आज मीडिया का घर-घर पहचाना नाम बन चुके एनडीटीवी मीडिया समूह के मुखिया प्रणव राय ने 80 के दशक के अंत में भारत में जब पहली बार वोटरों का मिजाज भांपने के लिए ओपिनियन पोल किया था तब किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आने वाले समय में हर चुनाव में ऐसे ओपिनियन पोल या कहें चुनावी सर्वे लोकप्रियता की सभी सीमाएं तोड़ देंगे। दरअसलभारत में दो चीजों का विकास करीब-करीब एक साथ ही हुआ है। पहला इन चुनावी सर्वेक्षणों और दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या कहें समाचार चैनलों का। समाचार चैनलों की भारी भीड़ ने चुनावी सर्वेक्षणों को पिछले डेढ़ दशक से हर चुनाव के समय का अपरिहार्य बना दिया है। आज बिना इन सर्वेक्षणों के भारत में चुनावों की कल्पना भी नहीं की जाती। बल्कि कुछ समाचार चैनल तो साल में कई बार ऐसे सर्वेक्षण करवाते हैं और इसके जरिये सरकारों की लोकप्रियता और समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों की पड़ताल करते रहते हैं। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि आखिर भारत में इन सर्वेक्षणों का अर्थशास्त्र क्या है? आखिर इन सर्वेक्षणों को करवाने से किसका भला होता है और यदि कोई संगठन पैसे देकर ऐसे सर्वेक्षण करवाता है तो क्या उसका कोई निजी स्वार्थ भी इसमें जुड़ा होता है? इसके साथ ही हाल में पांच राज्यों के चुनावों के दौरान एञ्चिजट पोल भी चर्चा में रहे हैं क्योंकि एक एजेंसी को छोडक़र कोई अन्य एजेंसी इन नतीजों के आस-पास भी नहीं रहा।
दरअसल भारत में सर्वेक्षण का बाजार अभी अपने शैशव काल में है। इसमें से भी बड़ा हिस्सा बाजार सर्वेक्षण का है जिसके तहत कंपनियां कोई उत्पाद बाजार में उतारने या अपने किसी वर्तमान उत्पाद के प्रति लोगों का रुझान समझने के लिए सर्वेक्षण कंपनियों की मदद लेती हैं। यदि हम वर्तमान स्थिति देखें तो देश में कार्यरत सर्वे कंपनियों का कुल सालाना कारोबार बमुश्किल 350 करोड़ रुपये का है। इसका बेहद छोटा हिस्सा राजनीतिक सर्वे का है। सही मायने में देखा जाए तो देश की छोटी-बड़ी सभी सर्वेक्षण कंपनियां साल में मुश्किल से 10 करोड़ रुपये का कारोबार राजनीतिक सर्वेक्षण के जरिये कर पाती हैं। इसमें भी दो-तीन बड़ी कंपनियां ही मोटा हिस्सा ले लेती हैं। हालांकि यह देश के सबसे तेज गति से तरक्की करने वाले सेक्टरों में एक है जिसकी वृद्धि दर सालाना 30 फीसदी है। देश में अभी करीब 200 रजिस्टर्ड सर्वेक्षण कंपनियां हैं जिनमें मुश्किल से 10 ही ऐसी हैं जिनकी पूरे देश में पहुंच है। बाकी अलग-अलग शहरों में छोटे स्तर पर काम करती हैं।
आउटलुक से खास बातचीत में देश-विदेश की जानी-मानी सर्वे एजेंसी सी-वोटर के कर्ता-धर्ता यशवंत देशमुख बताते हैं कि मार्केट सर्वे करने वाली कंपनियों या एजेंसियों के लिए चुनावी सर्वे पैसे के मामले में कोई फायदे का सौदा नहीं है मगर फिर भी ये कंपनियां इसलिए चुनावी सर्वे में हाथ आजमाती हैं क्योंकि इससे इन्हें मुफ्त का प्रचार मिल जाता है। अगर किसी चैनल या मीडिया घराने ने ऐसी किसी एजेंसी को पैसे देकर सर्वे कराया तब तो लागत निकलने के साथ कुछ फायदा भी हो जाता है मगर सबसे बड़ा फायदा यही है कि चैनल या अखबार में एजेंसी का नाम प्रमुखता से आता है जिससे कि एजेंसी का प्रचार हो जाता है। देशमुख कहते हैं कि पिछले चुनावों में लगातार देखा गया है कि अलग-अलग एजेंसियों के चुनावी सर्वे के नतीजे अलग-अलग होते हैं। इसके पीछे मुख्य वजह यह है कि सर्वे का काम सीटों की संख्या बताना नहीं है। यदि आप वोट शेयर की स्थिति देखेंगे तो पाएंगे कि प्रतिष्ठिïत कंपनियों के सर्वे में पार्टियों को मिलने वाले वोट का अनुमान कमोबेस एक जैसा ही होता है मगर इस वोट को सीटों में बदलने का फार्मूला अलग-अलग अपनाने के कारण उनके सीटों के अनुमान में भारी अंतर हो जाता है। यशवंत देशमुख दावा करते हैं कि हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उनकी एजेंसी ने अमेरिका में सर्वे किया था और निष्कर्ष निकाला था कि हिलेरी क्लिंटन को डोनाल्ड ट्रंप से ढाई फीसदी वोट ज्यादा मिलेंगे। अंतिम नतीजे ऐसे ही आए मगर अमेरिका में इलेक्टोरल कॉलेज की व्यवस्था ऐसी है कि ज्यादा वोट पाकर भी हिलेरी चुनाव हार गईं।
वैसे भारत में सर्वेक्षण का मतलब लोग हमेशा सिर्फ राजनीतिक सर्वेक्षण ही समझते हैं और इस सोच ने ही इस सेक्टर का बेड़ा गर्क कर रखा है। भारत में ओपिनियन पोल पर एक शोध पत्र तैयार करने वाले सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के प्रवीण राय के अनुसार भारत में ओपिनियन पोल का पूरा फोकस सिर्फ इस बात पर रहता है कि किसी राजनीतिक दल की चुनाव में कितनी सीटें आएंगी। जबकि सर्वे का काम सीटें बताना है ही नहीं। सर्वे का काम मतदाता का मूड बताना है या किसी अलग-अलग मुद्दों पर जनता की राय जानना है। मगर मुश्किल है कि भारत में मीडिया ने इसे सीटों की संख्या तक सीमित कर दिया है। देशमुख भी कहते हैं कि सर्वे के बाद मीडिया की खबरों को देखने से यह साफ हो जाता है कि सीट की संख्या के अलावा और कोई डाटा प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाता क्योंकि मीडिया के दिग्गज मानते हैं कि बाकी डाटा से दर्शक या पाठक बोर हो जाते हैं। इस सोच ने इन सर्वेक्षणों को मजाक बना दिया है।
दो साल पहले देश में सर्वे एजेंसियों पर किए गए स्टिंग ऑपरेशन से यह खुलासा हुआ है कि दरअसल पैसे देकर सीटों के इस खेल को कोई भी अपनी ओर मोड़ सकता है। इस स्टिंग के अनुसार अधिकांश छोटी एजेंसियां पैसे लेकर रॉ डाटा में बदलाव से लेकर अंतिम निष्कर्ष तक में बदलाव करने के लिए तैयार हो गई थीं। ऐसे में माना जाता है कि भारत में चुनावी सर्वे सिर्फ मीडिया हलचल भर बनकर रह गए हैं। अकसर देखा गया है कि न तो राजनीतिक दल उन्हें गंभीरता से लेते हैं और न ही आम जनता उसके आधार पर कोई राय कायम करती है।
सीएसडीएस से जुड़े रहे और आजकल अपनी पार्टी बना चुके योगेंद्र यादव के अनुसार हाल के समय में इन सर्वेक्षणों पर भरोसा कम हुआ है। यादव कहते हैं कि चुनावी सर्वे या फिर चुनाव बाद एञ्चिजट पोल की पूरी प्रक्रिया वैज्ञानिक पद्धति से होती है। मगर दिक्कत तब आती है जब उसमें निजी हित समाहित हो जाता है। ऐसे में सर्वेक्षण की पवित्रता प्रभावित होती है और इससे सही निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। यादव कहते हैं कि इसी वजह से भारत में चुनावी सर्वेक्षणों के नतीजों में एकरूपता नहीं होती और इसी के कारण वे असली परिणामों से मेल भी नहीं खाते। गौरतलब है कि योगेंद्र यादव देश में चुनावी सर्वेक्षणों को लोकप्रियता दिलाने वाले लोगों में रहे हैं और सीएसडीएस द्वारा किए जाने वाले चुनावी सर्वेक्षणों को मीडिया के जरिए लोगों के सामने पेश करने में उनका चेहरा ही एजेंसी की तरफ से सामने रखा जाता था। उसी के जरिए उन्हें आम जनता में बेहद लोकप्रियता भी मिली।
वैसे पिछले करीब 80 फीसदी चुनावों में सीटों का 95 फीसदी तक सही आकलन करने वाली एजेंसी टुडेज चाणक्य के सीईओ वी.के. बजाज कहते हैं कि वे चुनावी सर्वेक्षणों के लिए मार्केट रिसर्च एजेंसियों के अंतरराष्ट्रीय एसोसिएशन (एसोमार) द्वारा तय गाइडलाइंस का सख्ती से पालन करते हैं। हालांकि बजाज और उनकी एजेंसी पर आरोप लगते हैं कि वे सर्वे के हर स्तर पर कड़ी गोपनीयता बरतते हैं और कभी भी सवाल उठने के बावजूद अपने रॉ डाटा को सार्वजनिक नहीं करते। हालांकि इसके लिए बजाज ग्राहकों की निजता को मुख्य वजह बताते हैं। खास बात यह है कि टुडेज चाणक्य के ग्राहक कौन हैं या सर्वे के लिए कौन उन्हें काम सौंपता है यह भी एजेंसी सार्वजनिक नहीं करती। उनके सर्वे हमेशा न्यूज24 समाचार चैनल पर प्रसारित होते हैं जो कि कांग्रेस के नेता राजीव शुक्ला का चैनल माना जाता है।
यशवंत देशमुख कहते हैं कि आज अगर देश में सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता खतरे में आ गई है तो उसके लिए पारदर्शिता का अभाव बड़ी वजह है। इसी कारण अब सीएसडीएस की अगुआई में इंडियन पोलिंग काउंसिल के गठन की कवायद की जा रही है जिसका सदस्य बनने के लिए यह अनिवार्य शर्त होगी कि सभी सदस्य अपने डाटा में पूरी पारदर्शिता बरतें।
वैसे ओपिनियन पोल का एक दूसरा पहलू भी है। भले ही चैनलों पर दिखाए जाने वाले इन सर्वेक्षणों पर राजनीतिक दल भरोसा नहीं करते हों मगर अधिकांश दल राज्यों में अपनी स्थिति का पता लगाने के लिए इन एजेंसियों की मदद लेते हैं। दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के अलग-अलग नेताओं के लिए छोटे स्तर पर कई सर्वे करने वाली एजेंसी वाइज मीडिया के प्रमुख राजेश यादव आउटलुक से बातचीत में कहते हैं कि हर चुनाव से पहले ये राजनीतिक दल जमीनी हालात का पता लगाने के लिए सर्वे करवाते हैं। राजेश उदाहरण देते हैं कि एक बार उन्होंने फरीदाबाद में एक भाजपा नेता के लिए सर्वे किया। सर्वे में पता चला कि बहुत कम वोटों से संबंधित नेता पिछड़ रहे हैं। उन्होंने उस नेता को बूथवार यह बताया कि कहां उन्हें ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है। उन्होंने सलाह पर अमल किया और चुनाव महज 250 वोटों से जीत लिया। राजेश बताते हैं कि छोटी कंपनियां प्रति सैंपल या कहें प्रति फॉर्म अपने
क्लाएंट से पैसे वसूल करते हैं और यह राशि 50 रुपये प्रति फॉर्म से लेकर 200 रुपये तक होती है। जितनी बड़ी एजेंसी उतनी ज्यादा राशि। साफ है कि ओपिनियन पोल भले ही विश्वसनीयता खो रहे हों मगर उनका धंधा खत्म नहीं होने वाला। आने वाले समय में हमें और अधिक सर्वेक्षण देखने को मिलेंगे।