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सिंधु जल समझौते का पुनरावलोकन जरूरी

प्रधानमंत्री मोदी ने भी पंजाब में प्रचार के दौरान इस मुद्दे को उठाया
प्रो. सैयद इकबाल हसनैन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पंजाब चुनावों में प्रचार के दौरान तर्क दिया है कि पंजाब के किसानों को सिंधु और इसकी दो सहायक नदियों से ज्यादा पानी आवंटित किया जान चाहिए। उन्होंने बहुत ही जोरदार तरीके से और सही ढंग से कहा है कि भारतीय पंजाब में 1960 की जल संधि के तहत सिंधु नदी जल का सही तरीके से वितरण नहीं हो पाया, इसमें छह नदियों के जल और उसके प्रवाह को ध्यान में नहीं रखा गया। दुर्भाग्य से सिंधु जल संधि 1960 में विश्व बैंक की मध्यस्थता से हुई थी। इसके तहत तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, झेलम, चेनाब) को पाकिस्तान को सौंप दिया गया जो कुल प्रवाह का लगभग 80 फीसदी जल प्रवाहित करती हैं। इस संधि में पूरब की तीन नदियों को (रावी, ब्यास, सतलज) भारत को सौंप दिया गया जिसमें कुल प्रवाह का 20 प्रतिशत जल प्रवाहित होता है। इस संधि का पुनरावलोकन करने की आवश्यकता इसलिए भी हो गई है क्‍योंकि जलवायु का प्रभाव वैश्विक के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर पर भी पड़ रहा है। इसकी वजह से इनके प्रवाह में मौसम के आधार पर उतार-चढ़ाव देखने को मिले हैं।

स‌िंधु नदीः पाक‌िस्तान के साथ संध‌ि में जल व‌ितरण सही नहीं

सिंधु नदी बेसिन की एक जटिल भूराजनीतिक स्थिति है। यह लगभग 1.10 वर्ग मिलियन किलोमीटर मे फैली है, जिसमें से लगभग 64 प्रतिशत पाकिस्तान में, 29 प्रतिशत भारत में तथा 8 प्रतिशत तिब्बत और अफगानिस्तान में है। नदी का उद्गम पश्चिमी तिब्बत में हुआ है, उस जगह और ग्लेशियर से युक्‍त झील का नाम नाग एंग्लो रिंको है। रावी, सतलज, व्यास, झेलम और चेनाब तथा काबुल के प्रवाह भी इसी में शामिल हैं। भारत और पाकिस्तान में सिंधु जल संधि के अतिरिक्‍तकोई और सीमापारीय संस्थागत व्यवस्था नहीं है। इस संधि ने भारत और पाकिस्तान के मध्य संबंधों का एक मॉडल स्थापित किया है और एक कुशल तंत्र भी स्थापित किया है। जलवायु परिवर्तन और जल उपलब्धता की अनिश्चितता ने इस संधि की प्रभावकारिता को कम कर दिया है। मुख्‍यत: ऐसा जल की बढ़ती मांग और जल आपूर्ति में संभावित बदलाव व मौसम के अनुसार वर्षा की प्रणाली में परिवर्तन होना है। ग्रीन हाउस गैसों और बढ़ते ब्लैक कार्बन यानी एयरोसोल के कारण हिममंडल के ऊपर संकट पैदा हो गया है, जिसकी वजह से उच्च सिंधु नदी प्रणाली में बहुत ज्यादा प्रवाह हो गया है। ग्लेशियरों का पिघलना काफी गंभीर स्थिति को दर्शाता है। ऐसे में मौसम की पुरानी जल-व्यवस्था के आधार पर भविष्यवाणी करना काफी मुश्किल हो जाता है और इस पर निर्भर घटक जैसे कृषि और बिजली उत्पादन भी प्रभावित होते हैं।

सिंधु और सतलज नदियों का पश्चिमी तिब्बत के पठार पर उस जगह से उद्गम हुआ है, जहां पर प्रत्येक दशक में तापमान 0.3 डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ जाता है, जो कि औसतन दुगुना है। तिब्बती पठार, लद्दाख, लाहौल स्पीति घाटी, कश्मीर घाटी और गिलगिट बाल्टिस्तान में ग्लेशियर निवर्तन का मुख्‍य कारण ग्रीन हाउस गैस प्रभाव ही है। पिछले 25 वर्षों के अनुभव के आधार पर पता चलता है कि इस भाग को दुनिया के बाकी हिस्सों की अपेक्षा ग्लोबल वार्मिंग ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है।

पाकिस्तान में सिंधु नदी प्रणाली से सिंचाई की व्यवस्था एक ऐसा नेटवर्क है जो कि दुनिया में सबसे बड़ा है और इससे 215 मिलियन जनसंख्‍या को जलापूर्ति की जाती है। इसका नियंत्रण दो प्रमुख स्टोरेज बांधों (सिंधु नदी पर तारबेला बांध और झेलम नदी पर मंगला बांध) के जरिए होता है। दोनों ही उच्च सिंधु बेसिन में स्थित हैं और मुख्‍यत: ग्लेशियर पिंघलने के उपरांत भरे जाते हैं। अब भारत और पाकिस्तान के बीच जल का मुद्दा एक उîोजना का बिंदु (लैश प्वाइंट) बन चुका है। पाकिस्तान इसको लेकर अपनी चिंताएं जता रहा है तो भारत की अपनी चिंताएं हैं। दोनों ही देशों में सिंधु नदी का जल प्रमुख एजेंडों में से एक हो गया है।

दक्षिण एशिया में राजनीतिक दांवपेंच के तहत जल को एक प्रमुख हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। जल से जुड़े मुद्दे ऐसी संभावना रखते हैं जिससे भारत और पाकिस्तान में संघर्ष को बढ़ावा मिल सकता है। इसलिए दक्षिण एशिया के नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और सिविल सोसाइटी के सदस्यों की यह खास जिम्मेदारी हो गई है कि आर्थिक विकास को दृष्टिगत रखते हुए इसके वैश्विक, क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, पारिस्थितिकी सततता और बढ़ती आर्थिक गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए समाधान की व्यवस्था तैयार करें। प्रमुख समस्या इसकी वर्तमान व्याख्‍या और अनुमानों में अनिश्चितताओं के कारण है। दुर्भाग्य से, दक्षिण एशिया में सुरक्षा के नजरिये से हिमालयी नदियों केजल प्रवाह की गतिविधियों को समझने की कोशिश बेहतर ढंग से नहीं की जा रही है, जो भविष्य में काफी घातक परिणाम दे सकता है। अगर नियमित तौर पर ऐसे ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब जल संसाधनों को लेकर क्षेत्र में देशों के बीच बड़े संघर्ष शुरू हो जाएं। इसलिए भारत और पाकिस्तान दोनों को ग्लेशियर और मानसूनी परिवर्तन को लेकर स्वयं आकलन को तरजीह देनी चाहिए और एक खाका तैयार करना चाहिए। वैसे भी ग्लेशियर सिंधु बेसिन से 3000 मीटर ऊपर स्थित है और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है।

जलवायु परिवर्तन प्लेटफार्म ने भारत और पाकिस्तान दोनों को एक ऐसा मौका दिया है, जिसमें वे क्षेत्र में ग्लेशियर प्रणाली की निगरानी के लिए एक मॉडल तैयार कर सकते हैं और सिंधु जल संधि का पुनरावलोकन कर सीमापारीय जल सुरक्षा को सुनिश्चित कर सकते हैं।

  (लेखक पद्मश्री से सम्मानित पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर रहे हैं)

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