योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के साथ इतना तय हो गया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खतरों के खिलाड़ी हैं। उग्र हिंदुत्व की छवि लिए एक भगवाधारी को सत्ता सौंप देना आज की राजनीतिक परिस्थिति में आसान भी नहीं था। इसके बाद माना जा रहा है कि भारत में कट्टर हिंदुत्व का उदय हो चुका है। इसके लिए योगी आदित्यनाथ के रूप में एक आइकन मिल गया है। संन्यासी को सिंहासन पहली बार मिला है ऐसा भी नहीं है न ही भारतीय जनता पार्टी ने यह करतब पहली बार किया है। इसके पहले
भगवाधारिणी साध्वी उमा भारती मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। यह अलग बात है कि वह इस पद पर कुल 260 दिन (8 दिसंबर 2003 से 22 अगस्त 2004) ही रह पाईं थीं। इस लिहाज से संत समुदाय से मुख्यमंत्री बनने वाले योगी आदित्यनाथ दूसरे व्यक्ति हैं। उमा भारती के मुख्यमंत्री बनने और आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने में बहुत फर्क है। उमा भारती की छवि घोर हिंदुत्ववादी होते हुए भी कट्टर नहीं थी। उनका वैसा विरोध भी नहीं हुआ था जैसा आदित्यनाथ का हुआ। या यूं कहें उमा भारती के मुख्यमंत्री बनने की घोषणा के बाद लोग दहशत में नहीं आए थे जैसे आदित्यनाथ के मामले में हुआ। जाहिर सी बात है यह विरोध संन्यासी के मुख्यमंत्री होने से ज्यादा 'कट्टर आदित्यनाथ’ का विरोध है।
यह बात तो तय है कि योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश की कमान देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जुआ खेला है। यह विमुद्रीकरण से भी बड़ा खतरा है, जिसे मोदी ने उठाया था। मुद्राएं हर आम और खास को किसी न किसी रूप में प्रभावित करती हैं लेकिन मठ सभी को प्रभावित करें यह जरूरी नहीं है। धारा के विपरीत बह कर मोदी प्रचंड बहुमत को ऐसे इस्तेमाल कर जाएंगे इसकी किसी को आशा नहीं थी। इस ताजपोशी से एक फायदा यह भी हुआ कि उग्रता की डिग्री से मोदी एक बिंदु नीचे उतर आए। राम मंदिर के पक्ष में रथयात्रा करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी की तुलना में अटल बिहारी वाजपेयी उदार थे। अब गुजरात दंगों के दाग धुंधले हो गए हैं और आदित्यनाथ डर का पर्याय बन गए हैं। आदित्यनाथ के मुकाबले मोदी का चेहरा उदार और कम उग्र है।
चुनाव परिणाम आने के बाद से ही मुख्यमंत्री के नाम के कयास में आदित्यनाथ का हवा में उड़ता शिगूफा था। खबरें आ रहीं थीं कि मोदी किसी 'कुशल प्रशासक’ को सूबा सौंपना चाहते हैं। इस बीच जाति के गणित को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता था। परिणाम से पहले जी-जान से लगे केशव प्रसाद मौर्य खुद को मुख्यमंत्री मान कर ही चल रहे थे। हालांकि उन्होंने आखिर तक अपनी दावेदारी बनाए रखी और उप मुख्यमंत्री का पद झटक ही लिया। पिछड़ा, ठाकुर, दलित जैसे कई जातीय गणित में योगी का नाम इसलिए भी अनदेखा रह जा रहा था क्योंकि लगातार ठाकुर नेता के रूप में राजनाथ सिंह का नाम आगे था। लेकिन जब आदित्यनाथ का नाम तय हुआ तो चुनाव भविष्यकर्ता, विश्लेषकों, सभी के मन में प्रश्न था, आदित्यनाथ क्यों, आदित्यनाथ कैसे? इस प्रश्न का तात्कालिक उत्तर किसी के पास नहीं था। लेकिन यह तो तय है कि इतने सालों में मोदी ने अपनी जो हिंदुत्ववादी छवि बनाई है, वह उसे किसी भी रूप में बनाए रखना चाहते हैं। यानी यह छवि धुंधली होती उससे पहले ही उन्होंने एक और हिंदुत्ववादी को सत्ता सौंप दी। आदित्यनाथ के मार्फत यह स्पष्ट संदेश देना उनके लिए आसान था। इसके अलावा मोदी दूसरी पार्टियों से जाति समीकरण बिलकुल छीन लेना चाहते थे। जो उन्होंने सफलतापूर्वक कर भी दिखाया। कुर्मी, पटेल, जाट, जाटव, यादव में लोगों को बांट कर देखने वालों को समझना होगा कि हर हिंदू जाति से ऊपर है। उनके इस कदम से हिंदू वोट संगठित हो गया है। अब सन 2019 में अन्य दलों के नेता जाति कार्ड खेलने को लेकर सशंकित रहेंगे। दरअसल यह रणनीति भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खांचे में भी फिट बैठती है। उत्तर प्रदेश में मिले प्रचंड बहुमत को सभी ने अपने ढंग से पढ़ा। मीडिया ने उसके अलग निहितार्थ निकाले लेकिन मोदी ने इस बहुमत को हिंदुत्व मेनडेट की तरह ही लिया। आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से यह भी साफ हो गया कि अयोध्या का राम मंदिर अब दूर की कौड़ी नहीं है। अगर रामलला नए भव्य मंदिर में बिराजते हैं तो समझिए भाजपा ने जो पîो फेंटे हैं वह खुद ब खुद तुरुप के पत्तों में तब्दील हो जाएंगे। आदित्यनाथ की छवि को देखते हुए यह नामुमकिन भी नहीं लगता। हालांकि आदित्यनाथ को नियंत्रण में रखना मोदी के लिए आसान नहीं होगा। जैसा कि मोदी की छवि है कि वह सभी को नियंत्रण में रखते हैं। क्योंकि आदित्यनाथ का अपना कद है और उनकी छवि भी दबंग है। लेकिन आदित्यनाथ जल्दबाजी में कोई चूक करना नहीं चाहेंगे। उन्हें अपनी छवि चमकाने के बजाय छवि को बनाए रखने पर मेहनत करनी है। वह भी जानते हैं कि वह कद्दावर नेता राजनाथ सिंह के बरअक्स खड़े हैं और सिर्फ मुख्यमंत्री बन जाने से वह उत्तर प्रदेश के इस लोकप्रिय नहीं तो जनप्रिय नेता को अचानक खारिज नहीं कर सकते। मोदी के इस फैसले से यह तो तय है कि भारतीय जनता पार्टी को कम से कम हिंदुत्व के एजेंडे के लिए मोदी का राजनैतिक उत्तराधिकारी मिल गया है।
यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश के इतिहास में शनिवार 18 मार्च का दिन राजनैतिक रूप से सबसे चौंकाने वाले दिन बन गया। 325 सीट जीतकर सबसे अधिक सदस्यों वाली राजग सरकार के मुखिया आदित्यनाथ योगी होंगे, शनिवार शाम साढ़े छह बजे से पहले इस बात पर विश्वास करना कठिन था। भाजपा ने हमेशा की तरह विधानसभा चुनाव में जाने से पूर्व अपने संभावित मुख्यमंत्री के नाम का ऐलान नहीं किया था। और राजनैतिक विश्लेषक भी यह सोच नहीं सकते थे कि भारी विजय के बाद जबकि विजयी विधायकों में योग्य विधायकों की संख्या भी अच्छी-खासी है, पार्टी खांटी हिंदुत्ववादी छवि वाले आफ्मक शैली में भाषण देने वाले योगी को सूबे का ताज सौंप सकती है। चुनाव से पहले जब आदित्यनाथ योगी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक कार्यफ्म में शिरकत करने के लिए आमंत्रित किया गया था तो तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा सिंह की आपत्ति पर प्रशासन ने उनके इलाहाबाद प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया था। पूर्व में कई जनपदों में आदित्यनाथ योगी की सभाओं पर प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं और निषेधााज्ञा तोडऩे पर उनके ऊपर मुकदमे भी दर्ज किए गए हैं।
शनिवार से पहले अफवाहें उड़ रही थीं कि मुख्यमंत्री के नाम को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में मतभेद हो गया है। मोदी तो संघ या विहिप से जुड़े किसी प्रचारक को यह पद देना चाहते थे लेकिन वह अटल बिहारी वाजपेयी के पदचिन्हों पर चलते हुए किसी विवादास्पद शक्चिसयत को यूपी में इतना महत्वपूर्ण पद नहीं देना चाहते थे। गोरक्षपीठ के पीठाधीश्वर आदित्यनाथ योगी को भी इस बात का इलहाम हो गया था कि बाजी उनके हाथ से निकल चुकी है इसलिए वह शुफ्वार की शाम निराश होकर दिल्ली से वापस गोरखपुर आ गए थे। लेकिन शनिवार की सुबह आदित्यनाथ योगी के पास भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का फोन आया और उन्हें तत्काल दिल्ली बुलाया गया। उनसे कहा गया कि उनके लिए विशेष विमान भेजा जा रहा है। योगी जब तक एयरपोर्ट पहुंचते विशेष विमान भी पंहुच गया। अगले दो-तीन घंटे महत्वपूर्ण रहे। दोपहर 12 बजे योगी का फोन गोरक्षपीठ पहुंचा और उनके सुरक्षाकर्मियों को सडक़ मार्ग से तत्काल लखनऊ पहुंचने को कहा गया। पीठ के लोगों ने आगे होने वाली घटनाओं को भांप लिया लेकिन अपने होंठ सिल लिए। लखनऊ के लोकभवन में विधान मंडल दल की बैठक शाम चार बजे प्रस्तावित थी और पांच बजे प्रेस कांफ्रेंस होनी थी। लेकिन प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य और प्रभारी ओम माथुर देर से पहुंचे। सबसे अंत में जब आदित्यनाथ योगी पंहुचे तो वहां मौजूद एक अफसर ने टिप्पणी की कि सबसे अंत में आने वाला ही मुख्यमंत्री होता है। बैठक में केंद्र से भेजे गए पर्यवेक्षक वेंकैया नायडू के कहने पर विधानसभा में भाजपा के विधानमंडल दल के नेता सुरेश खन्ना ने योगी के नाम का प्रस्ताव रखा। वेंकैया नायडू ने कोई अन्य नाम मांगा लेकिन कोई दूसरा नाम नहीं आया। इस तरह योगी की ताजपोशी का रास्ता साफ हो गया।
26 वर्ष की उम्र में पहली बार वह सांसद बने और तब से लगातार (पांच बार) सांसद चुने जाते रहे। लोगों का मानना है कि मोदी ने योगी की ताजपोशी कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि हिंदुत्व को लेकर अब लुका-छिपी का खेल खत्म हो गया है। यूपी के चुनाव में कई प्रयोग हुए। मंत्रिमंडल के गठन में भी कई परंपराएं तोड़ी गईं। पार्टी ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। बावजूद इसके मंत्रिमंडल में अनिर्वाचित एक मुस्लिम नेता मोहसिन रजा को राज्यमंत्री बनाने में देर नहीं की। मंत्रिमंडल में ऊपर के तीनों पदों, मुख्यमंत्री और दो उप मुख्यमंत्री फिलहाल विधानसभा के सदस्य नहीं हैं। मंत्रिमंडल के गठन के समय चुनाव के यज्ञ में आहुतियां देने वाले और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को निभाने वाले लोगों को भी महत्व दिया गया। मंत्रिमंडल के गठन से पूर्व तमाम विश्लेषकों का अनुमान था कि किसी ओबीसी को ही सूबे का मुखिया बनाया जाएगा। पार्टी ने इस मिथक को तोड़ा कि अब कोई सवर्ण महत्वपूर्ण पद हासिल नहीं कर सकता, आदित्यनाथ योगी (पूर्व नाम अजय सिंह बिष्ट) को सर्वोच्च पद देकर सवर्णों की निराशा को दूर कर दिया। मुख्यमंत्री सहित 47 सदस्यीय मंत्रिमंडल में सबसे अधिक 13 ओबीसी, 5 दलित, 8 ठाकुर, 7 ब्राह्मण, 4 वैश्य, 2 जाट, 2 भूमिहार, 1 मुस्लिम, 1 कायस्थ और 1 सिख को स्थान दिया गया है। बृजेश पाठक, दारा सिंह चौहान, एसपी सिंह बघेल, स्वामी प्रसाद मौर्य, डॉ. रीता बहुगुणा जोशी, गोपाल नंदी, दूसरे दलों से भाजपा में आए और उन्हें भी सम्मान दिया गया। सिद्धार्थनाथ सिंह और श्रीकांत शर्मा राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के प्रवक्ता रहे हैं इसलिए उन्हें मीडिया की जिम्मेदारी सौंपी गई। महेन्द्र सिंह पहली बार विधायक बने हैं। उन्होंने असम की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, इसलिए उन्हें भी मंत्री पद देकर उनकी मेहनत को सम्मान दिया गया है। स्वतंत्र देव सिंह किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं लेकिन उन्होंने मोदी की रैलियों का प्रबंधन कुशलतापूर्वक निभाया इसलिए उनको भी पुरस्कृत किया गया। हालांकि दो-तीन दिन तक उनका नाम भी संभावित मुख्यमंत्री के रूप में चर्चा में रहा था। मंत्रिमंडल का गठन इस तरह क्षेत्रीय और जातीय संतुलन के साथ किया गया है ताकि इसे सन 2019 के रोडमैप के रूप में देखा जाए। इस बार मंत्रिमंडल में दो उप मुख्यमंत्रियों का अनूठा प्रयोग भी किया गया है। इसके पहले मुजफ्फरनगर के चौधरी नारायण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, कमलापति त्रिपाठी, राम चंद्र विकल भी उप मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
योगी की छवि हमेशा हिंदुओं को ललकारने वाले कट्टर हिंदू की रही है। अल्पसंख्यक मानने लगे हैं कि अभी तक दूसरे दल उन्हें अपना वोट बैंक समझकर उन्हें ललचाते जरूर थे लेकिन दिया कुछ नहीं। अन्य दलों ने हमेशा भाजपा को सांप्रदायिक दल बताकर उससे दूर रखा। ढाई वर्ष के मोदी कार्यकाल में कोई सांप्रदायिक घटना न घटने से उनके भीतर मोदी के प्रति विश्वास भी जागृत होने लगा है। अगर योगी ने अपनी प्रचारित छवि के अनुरूप कोई विवादास्पद बयान नहीं दिया तो सन 2019 के लिए भाजपा के सामने चुनौतियां कम हो सकती हैं। लोगों का मानना है कि योगी कठोर निर्णय लेने वाले मुख्यमंत्री साबित हो सकते हैं। उनमें लोगों को मोदी की छवि भी नजर आती है। तडक़े तीन बजे से उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती है। वह दिन में खाना नहीं खाते और लोगों में उनकी छवि ईमानदार व्यक्ति की है।
19 मार्च रविवार को योगी के शपथ ग्रहण समारोह में सभी 14 भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री शामिल हुए थे। इस भव्य समारोह के बाद योगी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के प्रधान सचिव नृपेंद्र मिश्र से 45 मिनट बात की। नृपेंद्र मिश्र यूपी कैडर के सेवानिवृत्त आईएएस अफसर हैं। इससे जाहिर है कि यूपी की कमान पीएमओ के पास ही रहेगी। मतदाताओं ने भी भाजपा को नहीं बल्कि नरेन्द्र मोदी को वोट दिया था इसलिए पीएमओ का हस्तक्षेप उन्हें आश्वस्त करेगा।
उप मुख्यमंत्री बनाए गए केशव प्रसाद मौर्य को पीडब्ल्यूडी विभाग का मंत्री बनाया गया है। उन्होंने आउटलुक से कहा कि हमने उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का वायदा किया था जिसे पूरा करके दिखाएंगे। सरकार ने इस दिशा में तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री मोदी जी और अमित शाह जी के मार्गदर्शन में सरकार की हनक जल्दी दिखनी शुरू हो जाएगी। सुशासन हमारी प्राथमिकता है। योगी जी के निर्देश पर संकल्प पत्र वितरित किए जा चुके हैं और उसी आधार पर नौकरशाही ने काम शुरू कर दिया है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार हिंदू और मुसलमान में किसी तरह के भेद-भाव नहीं करती, सरकार की योजनाओ का लाभ सभी को मिलेगा।
शपथ ग्रहण समारोह में सबसे खास बात सपा के पूर्व सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और उनके पुत्र निवर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मौजूदगी रही। मुलायम सिंह यादव ने न सिर्फ तत्परता के साथ मोदी से मुलाकात की बल्कि अखिलेश को बुलाकर मिलवाया भी। बिना कोई अवसर गंवाए मुलायम सिंह यादव ने मोदी के कान में कुछ कहा भी। शायद मोदी उनकी बात समझ नहीं पाए तो मुलायम सिंह यादव ने दोबारा कहा, जिस पर मोदी ने मुस्कराते हुए हामी भरी। इस दृश्य को देखने के बाद वहां मौजूद लोग इसकी चर्चा करने से नहीं चूके। कहां सैकड़ों मंचों पर अखिलेश का मोदी पर करारा वार करना, पिता-पुत्र में कलह होना, पुत्र द्वारा पिता को हटाकर पार्टी अध्यक्ष पद पर कब्जा करना और कहां मुलाकात में इतनी गर्माहट। राजनीति भी शायद कभी-कभी प्रेरणा का काम करती है।
भक्तन को कहा सीकरी सों काम
भक्तन (संतन भी पाठांतर है) को कहा सीकरी सों काम। अर्थात मान्यता तो यह रही कि साधु-संतों का राजनीति, सत्ता और पद प्रतिष्ठा से कोई लेना-देना नहीं। संत कवि कुंभनदास सम्राट अकबर के श्रद्धा पात्र थे। अकबर ने उन्हें फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया। वे अकबर की भेजी शाही सवारी से नहीं गए और पैदल ही सीकरी पहुंचे। राजदरबार में पहुंचे तो सम्राट ने खुद बंदगी की और उनसे कुछ सुनने की इच्छा व्यक्त की। कुंभनदास ने बिना किसी लाग-लपेट ये सटीक बातें कवित्त में कहीं-
भक्तन को कहा, सीकरी सों काम, आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम,
जाको मुख देखे, दुख लागे ताको करन
परी परनाम, कुंभनदास लला गिरिधर बिन
यह सब झूठो धाम।।
अकबर ने कहा जो कुछ इच्छित हो ले लीजिए। कुंभनदास एक बार ठिठके, पर मांग ही लिया-आज के बाद के उन्हें कभी सत्ता-शासन के सामने न बुलाया जाए।
वर्तमान में बहुत कुछ इस भारतीय संत परंपरा के विपरीत हो गया है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद पर संत योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के राजनीतिक हानि-लाभ के यथार्थ और गुणा-गणित के संकेत भले ही कुछ और हों पर, भारतीय संत परंपरा में त्याग तपस्या की अवधारणा का नया स्वरूप और नया आयाम सामने आया है। उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख केंद्र एनेक्सी पंचम तल तक सीमित न रहकर अपनी साख, ईमानदारी और निष्कलंक साधु जीवन की छवि को योगी आमजन के मन में कैसे उतार पाएंगे, इस पर सभी की निगाहें होना स्वाभाविक है। वैसे बेखौफ और विवादित बयानों के लिए हमेशा सुर्खियों में रहे योगी अपनी वास्तविक संत छवि के सहारे उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की नैया पार लगाने में कितने सफल होंगे, यह समय बताएगा। 'सबका साथ, सबका विकास’ का पीएम मोदी का नारा संत जी कितना चरितार्थ कर पाएंगे, यह अभी तो कौतूहल का ही विषय है।
अमितांशु पाठक
आत्मतत्व का साक्षात्कार ही संन्यास का परम प्रयोजन
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती
हिंदू परंपरा में चार वर्ण और इतने ही आश्रम हैं। चार आश्रम में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास हैं। ये मनुष्य की सौ वर्ष की आयु के अनुसार 25-25 वर्ष के हिसाब से बंटे हैं। ब्रह्मचर्य शिक्षा और जीवन जीने की कला सीखने का काल होता है। गृहस्थ जीवन में ब्रह्मचर्य काल में सीखे गए ज्ञान के उपयोग का समय होता है। वानप्रस्थ खुद को गृहस्थ संसार से आत्मज्ञान की परिधि में ले जाने का समय होता है। सबसे अंत में संन्यास आश्रम है, यह आत्मसाक्षात्कार का समय होता है। प्राचीन काल में ऐसा होता था, लोग इसी अनुसार जीवन जीते थे।
इससे अलग भी संन्यास की परंपरा है। यह दो तरह का होता-विद्वत और विविदिषा संन्यास। विद्वत संन्यास आत्मज्ञान के लिए लिया जाता है जबकि विविदिषा संन्यास जानने की इच्छा से लिया जाता है। ज्यादातर संन्यास इसी रूप में लिया जाता है। यहां संन्यासी सुख-दुख, राग-द्वेष, शोक-मोह आदि द्वंद्वों से परे रहता है। आत्मतत्व का साक्षात्कार करता है। संन्यास जीवन और समाज के मूलभूत प्रश्नों को समझने का प्रयास है। संन्यास का अर्थ है कि इस बात का ज्ञान हो जाए कि संसार अपरंपार है। जब गिरने का बोध हो जाए तो ऐसी जगह पर क्यों जाएं जो जगह पतन वाली हो।
भौतिक जीवन का त्याग ही संन्यास है। संन्यासी भिक्षाजीवी होता है। वह लाभ के पद पर नहीं रहता। वृत्ति का निश्चय गृहस्थ के लिए होता है। ईसाइयों में सेवा के लिए सांसारिक जीवन छोड़ते हैं पर हिंदुओं में सेवा के लिए नहीं बल्कि समाज को सही दिशा देने के लिए संन्यास की परंपरा है। प्राचीन परंपरा रही है कि संन्यासी किसी राज्य में तभी आता है जब उस राज्य में अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गई हो। संन्यासी राज्य में आता है राजा को समझा कर धर्म मार्ग पर ले जाता है। अगर ऐसा संभव नहीं होता तो वह राजा को हटा कर दूसरे योग्य को सत्ता का संचालन सौंप देता है। संन्यासी राज्य पर धर्म के सहारे नियंत्रण रखता है, राजा को गलत होने पर रोकता है।
(लेखक द्वारका शारदा पीठ और ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य से जुड़े प्रमुख स्वामी हैं)