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अस्पृश्य विचारधारा के उदय से खलबली

आजादी के बाद से ही एक विशिष्ट विचारधारा का देश में दबदबा रहा और अब यह टूट रहा है
राकेश स‌िन्हा

भारतीय राजनीति में परिवर्तन का जो दौर चल रहा है, वह न अचानक हुआ है न अचंभित करने वाला है। इसकी भूमिका लंबे समय से भारतीय राजनीति में दिखाई पड़ रही है। इसी परिवर्तन में उत्तर प्रदेश के जनादेश को देखा जाना चाहिए। सन 1960 के दशक में जनसंघ ने टकराव की राजनीति के माध्यम से कांग्रेस को चुनौती दी थी। लेकिन तब गैर कांग्रेसवाद का युग था, जिसमें विचार का पक्ष कम राजनीति का पक्ष प्रबल था। धीरे-धीरे वैचारिक पक्ष प्रबल होता गया और राजनैतिक पक्ष गौण। अस्सी के दशक के बाद, विशेषकर जब राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत संघ के द्वारा हुई और भारतीय जनता पार्टी ने सक्रिय समर्थन दिया तब से देश में सबसे प्रखर विमर्श पंथनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद के मुद्दों पर चलता रहा। इसी वैचारिक संघर्ष के परिणामस्वरूप जमीनी स्तर पर अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा था क्‍योंकि लंबे समय से, कहें तो आजादी के बाद से ही एक विशिष्ट विचारधारा का देश में दबदबा रहा। इस वर्ग ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को सिर्फ अस्पृश्य और अवैधानिक ही नहीं माना, बल्कि फासीवादी, सांप्रदायिक और अल्पसंख्‍यक विरोधी करार देते रहे। इस प्रकार के परिवेश में संघ के द्वारा जिस विचार का प्रवाह विश्वविद्यालयों से बाहर आम लोगों के बीच हो रहा था वह न तो इन बुद्धिजीवियों को नजर आया न वे इसकी गंभीरता को समझ पाए। यही कारण है कि सन 2014 में जब लोकसभा का चुनाव हुआ तो नरेन्द्र मोदी जहां विकास के नारे के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे वहीं विपक्ष नरेन्द्र मोदी के खिलाफ वैचारिक अभियान चला रहा था। नरेन्द्र मोदी को फासीवादी, सांप्रदायिक कह कर देश और विदेश के बुद्धिजीवियों ने उन्हें हराने की एक व्यूह रचना तैयार की। न्यूयार्क टाइम्स और द गार्जियन की संपादकीय टीम ने नरेन्द्र मोदी को वोट न देने की अपील तक जारी की थी।

ठीक इसी प्रकार जब उत्तर प्रदेश का चुनाव हो रहा था तब भी विपक्ष वैचारिक प्रश्नों पर ही भारतीय जनता पार्टी का विरोध कर रहा था। इन दोनों में एक असाधारण साम्य दिखाई पड़ रहा है। सन 2014 के चुनाव से पूर्व जब भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानंमत्री पद का उम्मीदवार बनाया तब विपक्ष ने भाजपा की अंदरूनी राजनीति में अजीबो-गरीब रुचि दिखाई। जहां एक ओर विपक्ष भाजपा को सत्तारूढ़ होने से रोकना चाहता था वहीं विपक्ष और उससे जुड़े बुद्धिजीवियों की एक आवाज यह भी थी कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के जायज उम्मीदवार नहीं हैं। लेकिन उनकी मनोकामना पूरी नहीं हुई। अमित शाह के अध्यक्ष बनने का भी विरोध हुआ। एक प्रकार से जनमत तैयार करने की कोशिश की गई कि अमित शाह का अध्यक्ष बनना भाजपा के लिए अनुकूल नहीं है। ठीक उसी प्रकार उत्तर प्रदेश में जनादेश मिलने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्‍यमंत्री बनाया गया तो भाजपा विरोधी ताकतों और उनका समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों में हलचल मच गई। वे आदित्यनाथ के मुख्‍यमंत्री बनने को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। वे भाजपा के सत्ता में आने से ज्यादा आदित्यनाथ के मुख्‍यमंत्री बनने से आहत दिखाई पडऩे लगे। इस बार फिर एक तर्क दिया गया कि योगी आदित्यनाथ का मुख्‍यमंत्री बनना अल्पसंख्‍यकों के मन में खौफ का कारण बनेगा। इस बार भी पार्टी ने ऐसे विरोधों को दरकिनार कर दिया। यह सच है कि जब भी कोई पार्टी दबदबा स्थापित करती है तब उसकी अंदरूनी राजनीति में बाहर के लोग भी दखल देते हैं। यह कोई नई बात नहीं है। जब कांग्रेस का दबदबा था तब सोशलिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस के अंदरूनी मामले में दखल देते थे। उदाहरण के लिए जब पुरुषोत्तम दास टंडन अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे थे तब भी बाहरी सक्रियता दिखाई पड़ रही थी। लेकिन तब विचारों और मूल्यों की बात अलग थी। लेकिन अब अपने पूर्वाग्रह के द्वारा भाजपा को जनता की नजर में अलग ढंग से दिखाया जा रहा है। विरोध का एकमात्र कारण यही है कि भाजपा के बारे में उन्होंने जो धारणा बनाई है, वे उसे स्थापित कर दें और भाजपा समावेशी पार्टी न रहे। अल्पसंख्‍यकों को उसके नाम पर डराया जा सके।

कुलीन बुद्धिजीवी के मन में एक अहं पैदा हो रहा है कि भारतीय विमर्श, जनमत, राजनैतिक व्यवस्था को वे ही निर्देशित कर सकते हैं। इस देश में राष्ट्रवाद की परंपरा ऐतिहासिक है। वह यूरोप से उधार ली गई परंपरा नहीं है। संघ ने इसी पंथ निरपेक्षता और राष्ट्रवाद के यथार्थवादी और भारतीय स्वरूप को आम लोगों तक पहुंचाया है। इस उभार को न समझ पाने के कारण अधिकांश पार्टियों ने वोटबैंक के आधार को अपना आधार बना लिया। सूचना क्रांति ने लोगों को वैश्विक रूप से जोड़ा और हर तरह के विचार को समझने का मौका दिया। मानसिक क्रांति दूसरा कारण है, जिसका श्रेय संघ को जाता है। इस फ्म में नरेन्द्र मोदी की भूमिका ने लोगों को रूढ़ ढांचे से बाहर निकाला। इन दो कारणों से जनादेश अप्रत्याशित हुआ। जनादेश की व्याख्‍या लोकतंत्र में मर्यादित तरीके से होनी चाहिए। आलोचना को रचनात्मक तरीके से रखा जाना चाहिए। गेरुए वस्त्र और संन्यासी होने की बात पर योगी आदित्यनाथ का विरोध करने से पहले उनके कामों का ब्योरा देखा जाए और उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों पर नजर डालें। बाल मजदूरों की शिक्षा से लेकर महिलाओं के सशक्‍तीकरण तक की वे बात करते हैं। लव जिहाद के मुद्दे पर उनका अल्पसंख्‍यकों को चुनौती देने से ज्यादा जोर अल्पसंख्‍यक समुदाय के असामाजिक तत्वों को चुनौती देना था जो समाज के सद्भाव को समाप्त करना चाहते हैं। इस प्रश्न को केरल के पूर्व मुख्‍यमंत्री, माक्‍र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, अच्युतानंदन ने मुख्‍यमंत्री के नाते प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा था कि केरल की आबादी को पैसे और विवाह के द्वारा परिवर्तित किया जा रहा है। इसी प्रकार से केरल उच्च न्यायालय ने लव जिहाद के मुद्दे को उठाया था। इस मुद्दे को सिर्फ आदित्यनाथ के राजनैतिक विमर्श से देखना दोहरा मापदंड है। इस जनादेश का एक और निहितार्थ है कि न सिर्फ इसने विपक्ष को पराजित किया बल्कि उस विचारधारा को भी खारिज किया जो अब तक संघ को खारिज करती थी।

(लेखक संघ विचारक एवं भारत नीति प्रतिष्ठान के निदेशक हैं)  

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