वादी में बगावत की फिर वही काली घटाएं घिर आई हैं, जो नब्बे के दशक में 'धरती पर इस जन्नत’ को मुख्यधारा से दूर ले गई थीं। श्रीनगर लोकसभा उपचुनाव में महज 7.13 प्रतिशत मतदान और सेना की जीप के बोनट पर बंधे नौजवान के नजारे तो ऐसी तस्वीर पेश करते हैं, मानो आज भी वही दौर है, जिसकी बानगी कुछ समय पहले आई फिल्म 'हैदर’ में भी देखने को मिली थी, मानो दो ढाई दशकों का फासला हुआ ही नहीं। अस्सी के दशक के अंत और नब्बे के दशक की शुरुआत के भारी उथल-पुथल के दिनों में कश्मीर घाटी में मौजूद रहे बीबीसी संवाददाता तथा 'ए मिशन इन कश्मीर’ के लेखक एंड्रयू ह्वाइटहेड तो कहते हैं, 'नौजवानों में नाराजगी 1990 के दशक से भी भारी है।’ उन्होंने हाल में श्रीनगर के लाल चौक पर एक सेमिनार में नब्बे के दशक के दौर की गवाह रही एक बुजुर्ग महिला की बातों का हवाला दिया। महिला ने उनसे कहा कि उस वक्त लोगों में 'नाराजगी और खौफ’ था पर आज नौजवान 'नाराज और बेखौफ’ हैं।
इसका शिद्दत से एहसास डॉ. फारूक अब्दुल्ला और उनकी पार्टी नेशनल कॉन्फ्रेंस को है। सिर्फ 3.8 प्रतिशत वोट पाकर जीते नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष डॉ. फारूक अब्दुल्ला ने कहा, 'सशास्त्र बल विशेष अधिकार (आफ्सपा) को फौरन हटाया जाना चाहिए। यह कानून तो कब का हटा लिया जाना चाहिए था।’ नेशनल कॉन्फ्रेंस के श्रीनगर में मुख्यालय में जीत की खुशी नहीं सन्नाटा पसरा था। पार्टी के एक युवा नेता ने कहा, 'इतने कम वोट पड़े हैं कि खुशी से ज्यादा शर्मिंदगी है।’ हालांकि पार्टी के प्रवक्ता जुनैद आजिम मट्टू ने कहा कि मतदान के दिन आठ लोगों की मौत हुई तो कोई जीत की खुशी कैसे मना सकता है।
राज्य में सत्तारूढ़ पीडीपी के नजीर अहमद खान से 10,000 वोटों से जीते फारूक अब्दुल्ला ने प्रचार के दौरान भी यह कहकर नौजवानों की नब्ज पर हाथ रखने की कोशिश की थी कि पत्थरबाजों का गुस्सा जायज है। सेना और अर्ध्रसैनिक बलों की कार्रवाइयों के खिलाफ घाटी में गुस्सा किस कदर बढ़ता जा रहा है, उसकी एक गवाही हाल में वायरल हुआ वीडियो भी दे रहा है। नौ अप्रैल को श्रीनगर में जिस दिन मतदान हो रहा था, बडगाम के चिल ब्रास इलाके से 27 साल के फारूक अहमद को सेना ने पकड़ा और जीप के बोनट से बांध दिया। उसके साथ 35 राष्ट्रीय रायफल्स का कारवां आगे बढ़ा, ताकि कारवां पर पत्थरबाजी न हो सके। यह नजारा जब सोशल मीडिया पर वायरल हुआ तो मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की नाराजगी भी फूटी और सेना ने घटना की जांच कराने का आदेश दिया। अब इसमें कुछ जवानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई है।
नौजवानों में बेखौफ नाराजगी के नजारे श्रीनगर में नौ अप्रैल को मतदान के दिन खुलकर दिखे। सभी अलगाववादी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था या घर में नजरबंद कर दिया गया था। इंटरनेट बंद कर दिया गया था। चारों ओर बड़ी संख्या में संगीन लिए सशस्त्र बल गश्त लगा रहे थे। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों में जहां 26 फीसदी वोट पड़े थे और फारूक अब्दुल्ला अपने चार दशकों के राजनैतिक कॅरियर में पहली दफा पीडीपी के तारिक हमीद कर्रा से 40,000 वोटों से हारे थे, वहां इस बार महज 7.13 फीसदी ही वोट पड़े। वह भी उन इलाकों में ही कुछ ज्यादा लोग वोट करने निकले, जिनमें गुर्जर या शिया आबादी ज्यादा है। हमीद कर्रा ने पिछले साल जुलाई में हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद इस्तीफा दे दिया था। घाटी में तभी से हालात बेकाबू होने शुरू हो गए थे।
इस बार मतदान 1967 के बाद सबसे कम हुआ, जब पहली बार जम्मू-कश्मीर में संसदीय चुनाव हुए थे। 2008 में अमरनाथ भूमि हस्तांतरण विवाद और घाटी की आर्थिक नाकेबंदी से भड़की हिंसा के बाद 2009 के लोकसभा चुनावों में 26.55 फीसदी मतदान हुए थे। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नरमपंथी धड़े के नेता मीरवायज उमर फारूक कहते हैं, 'लोगों ने इन बेमतलब चुनावों को खारिज कर दिया। अब उनकी दिलचस्पी इस यथास्थिति वाली सियासत में नहीं रह गई है।’ मीरवायज का मानना है कि यह उन दलीलों की हार है जो कश्मीरियों की चुनाव में हिस्सेदारी को यह सबूत मान रहे थे कि कश्मीर भारत का 'अभिन्न अंग’ है। वे पूछते हैं : 2014 के लोकसभा में 26 फीसदी वोट को घाटी के हालात सुधरना माना गया था तो अब मौजूदा वोट फीसदी को क्या कहेंगे?
हालांकि इस बारे में दो राय है कि लोगों ने वोट का बायकॉट अलगाववादियों के कहने से किया। नाम न जाहिर करने की शर्त पर श्रीनगर के पुराने शहर में एक नौजवान ने कहा, 'बायकॉट का अलगाववादियों से कुछ लेना देना नहीं है। 2008 और 2014 के चुनावों में लोगों ने अलगाववादियों के आह्वान पर कुछ हद तक गौर किया था लेकिन इस बार तो बायकॉट लोगों का अपना फैसला था।’ मतदान के दिन हिंसा की करीब 250 वारदातें हुईं जिनमें सशस्त्र बलों की गोली से 15 साल के एक लड़के समेत आठ लोगों की मौत हो गई।
सबसे चिंताजनक यह है कि सात मौतें उस बडगाम इलाके में हुईं जिसे 'भारत समर्थक सियासत का गढ़’ माना जाता रहा है। बडगाम के मुख्य चौक के पास वोट के दिन सारे मतदान केंद्र सूने थे। कुछ दूरी पर कुछ नौजवान खड़े होकर मतदान केंद्र में आने-जाने वालों पर नजर गड़ाए हुए थे। वहां तैनात एक सीआरपीएफ के जवान ने कहा, 'यहां हालात काफी खतरनाक हैं, न जाने इस साल आगे क्या होगा।’
हालात हर जगह एक जैसे थे। 10 अप्रैल को नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता मट्टू दफ्तर में अकेले बैठे चारों ओर की खबरें ले रहे थे। वे इसी उम्मीद में थे कि चुनाव आयोग अनंतनाग उपचुनाव को टालने का ऐलान कर देगा। इसकी मांग प्रतिकूल माहौल के मद्देनजर महबूबा मुफ्ती के भाई, पीडीपी के उम्मीदवार मुफ्ती तस्सदुक ने की थी। वहां कई मतदान केंद्रों को जला दिया गया था, जो अधिकांशत: स्कूलों में थे। आखिर अनंतनाग 12 अप्रैल को तय उपचुनाव स्थगित कर दिए गए।
हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेंस के उलट पीडीपी के नेता ऐसे पेश आ रहे हैं मानो वे ऐसे बायकॉट को देख हैरानी में पड़ गए हैं। पीडीपी-भाजपा गठजोड़ के मुख्य प्रवक्ता नसीम अख्तर ने दिलचस्प बयान दिया। उनके मुताबिक नेशनल कॉन्फ्रेंस की साख खत्म होने की वजह से लोगों में वोट देने की दिलचस्पी नहीं दिखी।
लेकिन श्रीनगर में उच्च अधिकारियों का भी मानना है कि बायकॉट का आह्वान न होने पर भी वोट इससे ज्यादा नहीं पड़ते। जाहिर है, घाटी में मुख्यधारा के राजनैतिक दल हाशिए पर पहुंच गए हैं। नौजवान जिस तरह बेखौफ होकर अपनी जान की बाजी लगा रहे हैं, उससे अपशकुन के संकेत ही ज्यादा हैं। अगर केंद्र और राज्य कुछ नया नहीं कर पाए और लोगों की नाराजगी दूर नहीं हुई तो मामला और बेकाबू हो सकता है।
ये हालात दरअसल पीडीपी-भाजपा गठजोड़ सरकार के अधूरे वादों से भी पैदा हुए हैं। पीडीपी ने चुनावों के समय स्वायत्तता के मुद्दे पर विशेष जोर दिया था। उसने भाजपा के साथ गठबंधन दस्तावेज में स्वायत्तता, पाकिस्तान से बातचीत, सीमा के आर-पार नागरिक संबंधों के लिए राह प्रशस्त करने के उपाय उठाने पर जोर दिया था। लेकिन ये वादे दस्तावेज में ही पड़े रहे। यहां तक कि कश्मीर को विशेष पैकेज देने की बात भी हवा में रही। इससे नौजवानों में नाराजगी बढ़ती रही। इस नाराजगी में बुरहान वानी की हत्या चिनगारी बनकर आई और घाटी हिंसा की आग में तपने लगी।