वह महाशिवरात्रि का दिन था। गांव से सात-आठ किलोमीटर दूर एक बड़ा मेला लगता था। मेले की लोकप्रियता दूर-दूर तक थी। दूसरे राज्यों के भी डेढ़-दो सौ गांवों के लोग उस मेले में आते थे। गांव वाले मेले में पुरोहितों के लिए दही और चूड़ा लेकर आते और उन्हें खिलाते थे। यह पुण्य की ही लालसा थी कि शायद ही कोई हो जो अपनी सामर्थ्य के अनुसार दही-चूड़ा लेकर न आता हो। मान्यता थी कि वहां ब्राह्मणों को दावत देने से यजमानों की मनोकामनाएं पूरी होंगी और जीवन खुशहाल होगा। लेकिन सूरदास किस खुशहाली और मनोकामना की आस में ब्राह्मणों के लिए दही-चूड़ा लेकर आते थे यह सभी की समझ से बाहर था।
सूरदास पास ही के गांव के थे। शादी नहीं हुई थी सो न बाल-बच्चे थे, न अपना घर। वह रिश्तेदार के घर लगभग बंधुआ मजदूर की तरह जीते हुए अब बूढ़े हो चुके थे। उनका जीवन सुबह चार बजे भैंस के गोबर के साथ शुरू होता और भैंस को नाद से हटाने के साथ खत्म होता था। फिर भी वह हर साल महाशिवरात्रि के मेले में दही-चूड़ा लेकर आते थे। उनका आना इस तरह अटल था कि लोग कहते थे कोई और दही-चूड़ा लेकर आए या न आए, सूरदास आएंगे ही। सूरदास देख नहीं सकते थे फिर भी बिना किसी सहारे या मदद के वह मेले में पहुंच जाते थे। लोग इसे सूरदास की हिम्मत के बजाय शिव की कृपा मानते थे।
आज भी लोग अपने-अपने ब्राह्मणों को दूर-दूर से ढो कर लाया हुआ दही-चूड़ा और चीनी तृप्त भाव से खिला रहे थे। सैकड़ों ब्राह्मण इस अहसान के साथ खा रहे थे कि उनके खा लेने भर से यजमानों की सीट स्वर्ग में रिजर्व हो रही है। दांत के नीचे आती चीनी और उससे निकलती करर-करर की आवाज से सूरदास परेशान हो रहे थे। परेशानी उनकी तेजी से उठती-गिरती पलकों से साफ पता चल रही थी। कई बार वह पूछ चुके थे,‘हमारे पंडित जी आए कि नहीं?’ वह पूछते और अपने दही-चूड़े की थैली को हाथ से टटोल कर अपने पास होने की तस्दीक कर लेते। इसी बीच किसी ने सामने से सूरदास के पंडित को आते देखा और कहा,‘आपके भगवान आ गए सूरदास।’
सूरदास खुश हो गए। जल्दी-जल्दी कंधे पर पड़ा गमछा उतारा और जमीन झाड़ने लगे। दोबारा उन्होंने दही और चूड़े पर हाथ फेरा। तब तक पंडित पास आ चुका था। सूरदास को जमीन झाड़ता देख चिढ़ गया और बोला, ‘भगवान ने आंख नहीं दी, दिमाग तो दिया है न। धूल उड़ रही है। बंद करो झाड़ना। जल्दी से दही-चूड़ा निकालो। जोर की भूख लगी है। तीन बार आ चुका हूं यहां। सबके यजमान कब के पहुंच चुके हैं। मुझसे न झेली जाएगी तुम्हारी यजमानी। हम ही मिले हैं अंधों के लिए। अब रख लेना दूसरा पंडित।’
पुरोहित की बात सुन सूरदास के चेहरे पर बेचारगी की एक ऐसी हंसी उभरी, जो अनचाहे हुए गुनाह की माफी की याचना कर रही हो। जैसे सब गुड़़ गोबर हो गया हो। सूरदास की पुतलियां खुलती नहीं थीं इसलिए आंखों के बजाय वह बार-बार दांत निपोरकर माफी मांगने जैसा कुछ कर रहे थे। हालांकि मुंह से कुछ बोल नहीं रहे थे, पर उनके चेहरे पर जो भाव उभर रहा था उससे पत्थर भी पिघल सकता था। लेकिन यह तो पुरोहित था, भगवान का दूत, वह कैसे पिघलता।
सूरदास ने पुरोहित के आगे पत्तल बढ़ा दी। फिर दही, चूड़ा और जेब में रखी चीनी की पुडिय़ा उसके आगे कर दी। उन्हें लगा पुरोहित देर से आने से बहुत नाराज है, इसलिए उसे खुश करने के लिए बोलने लगे, ‘पूरे चार किलो का दही है। वह भी बकेना भैस (ऐसी भैंस जो दो-तीन महीने बाद बच्चा देने वाली हो) की। बकेना का दूध तो वैसे बहुत गाढ़ा होता है पर मैंने चार को ढाई-तीन किलो कर दिया है औंटा कर। दही भी मैंने खुद जमाया है।’
सूरदास चुप हो गए। उन्हें लगा पुरोहित जी खाने लगे पर उन्हें दांतों के नीचे आने वाली चीनी की करर—करर की आवाज सुनाई नहीं दी तो संदेह हुआ। वह मनुहार भरे स्वर में बोले, ‘पंडित जी शुरू कीजिए। ओह अच्छा-अच्छा, अरे रुकिए। मेरे भी दिमाग को पता नहीं क्या हो रहा है। कुछ याद नहीं रहता आजकल।’ इतना कहकर सूरदास दाहिने जेब में कुछ टटोलने लगे। फिर बाईं ओर भी तलाशा। पर कुछ हाथ नहीं लगा। अपने को चारों ओर से तलाशते हुए बड़बड़ाने लगे, ‘घर से चलते हुए दक्षिणा के लिए रुपये रखे थे पता नहीं कहां गिर गए।’
इस बीच पुरोहित उनकी बात पर गौर किए बिना चूड़े की गठरी खोलने में जुटा था। गठरी खोलते ही उसका दिमाग खौल गया। चूड़े में मिट्टी के छोटे-छोटे ढेले पड़े हुए थे। फिर दही की ओर देखा। दही एक कपड़े में बंधा हुआ था। उसमें से पानी रिस रहा था। दही खोली तो उसमें भी छाली पर हलकी मिट्टी पड़ी थी। गुस्से से भर कर पुरोहित ने पूछा, ‘ये क्या लेकर आए हो। यही माटी-पत्थर खाऊंगा। यह है बकेना की दही। मिट्टी पड़ी है इसमें। अंधे हो तो घर में बैठना चाहिए। कौन कहता है परमार्थ करने को। पूरा दिन खराब कर दिया। तुम एक ब्राह्मण को भूखा रखने का पाप जानते हो। पिछले जन्म में पता नहीं क्या पाप किया था कि ऐसे हुए। अगला जन्म भी कैसा होगा तुम अभी से सोच लो।’
भूखा पुरोहित गुस्से में पैर पटकते हुए खड़ा हो गया। सूरदास की पुतलियां तेजी से ऊपर-नीचे होने लगीं। वह बैठे हुए ही कांपने लगे। उनका चेहरा रोने-हंसने जैसा कुछ हो गया था। वह कभी दांत-निपोरते, कभी मुंह बंद करते। दूसरे जिन यजमानों के पुरोहित खाकर जा चुके थे वे भी सूरदास के नजदीक आ गए। उन्होंने भी पुरोहित से सूरदास को माफ करने को कहा। उसके लिए गालियां निकालीं और दया की भीख मांगी। कई दूसरे यजमान चूड़े में पड़ी मिट्टी निकालने में जुट गए।
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। भूखा ब्राह्मण चिढ़ गया था। वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। उसने कहा, ‘इसने कहा मेरे पास दक्षिणा नहीं है, फिर भी मैं मान गया। चलो कोई बात नहीं दक्षिणा बाद में देख लेंगे। नहीं तो मेले में बिना दक्षिणा के कौन भोजन करता है। पैसा मिल जाए तो हम भी कुछ खरीद कर घर ले जाएं। मैं एक मिनट यहां नहीं रुक सकता। यह अंधा पहले नहीं बता सकता था कि इसने दही और चूड़े के साथ क्या कर रखा है?’ इतना बोल कर अभी पुरोहित ने पैर आगे बढ़ाया ही था कि लपककर सूरदास ने पैर पकड़ लिए। वह पुरोहित के पैर से लिपट गए। अपनी धोती ऊपर कर बोले, ‘ये देखिए, महाराज मेरा पूरा घुटना छिल गया है। खून रिस रहा है। आते हुए रास्ते में एक गाड़ी वाले ने मार दिया और मैं गिर गया। दही की मटकी टूट गई तो मैंने गमछे में बांध ली। चूड़ा भी झोले से पूरा बिखर गया था। मैंने ऊपर-ऊपर का चूड़ा उठा लिया था। अंधा हूं न महाराज। आंखें होती तो यह गलती न होती। लगता है, दक्षिणा भी वहीं गिर गई। मैं घर जाते ही आपकी दक्षिणा पहुंचा दूंगा। आपको मुंह नहीं खोलना पड़ेगा।’
‘अरे छोड़ो पैर। ये क्या नाटक है। पहले नहीं बता सकते थे कि तुमने मिट्टी बटोर के रखी है चूड़े में। दही में भी मिट्टी गिरी पड़ी है।’ सूरदास उतने ही कातर लहजे में फिर बोले, ‘पता होता तो आपके साथ पाप करने की हिम्मत करता? मुझे दिख जाता कि चूड़े के साथ मिट्टी आ रही हैं तो मैं न बटोरता महाराज। भगवान ने आंखें नहीं दीं बाबू इसी से यह गलती हुई। जब मैं 12 साल का था तबसे यहां आकर आपके परदादा, दादा, बाप और आपको खिला रहा हूं। एक साल भी नागा नहीं किया कभी। महाराज माफ करो। दया करो भगवान। पर खाने से मना मत करो। इस जन्म का पाप इसी जन्म में भुगत लेने दो। अगले जन्म में भुगतने की हिम्ममत अब नहीं बची है मुझमें। दया करो। दया करो,’ कहते हुए सूरदास रो पड़े। पुरोहित पैर छुड़ाने की कोशिश करता रहा और वह पैर से लिपटे रहे। दूसरे यजमानों ने भी पुरोहित से खूब आग्रह किया पर पुरोहित टस से मस न हुआ।
सूरदास की धोती पर खून का बड़ा-सा धब्बा उभर आया था। रुका हुआ खून घुटने पर दबाव पड़ने के कारण बहने लगा था। पुरोहित का हठ देख सूरदास अब सिर्फ एक बार मुंह जूठा करने की विनती करने लगे। पर पुरोहित जैसे पत्थर का हो गया था। उस पर विनती का कोई असर नहीं हुआ। उसने जवानी की ताकत का इस्तेमाल सूरदास को पैर से भरपूर झटका देने के लिए किया। इस अप्रत्याशित झटके से सूरदास जमीन पर दूर तक चले गए। दूसरे यजमान अभी बूढ़े-अंधे सूरदास को संभाल पाते कुछ समझते इससे पहले पुरोहित तेजी से मेले में गायब हो गया। यजमान सूरदास की नाक से बह रहे खून को पोंछ रहे थे। अब भी सूरदास, ‘महाराज को रोको, अरे कोई तो गुरु जी को रोको’ की रट लगाए हुए थे।