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कैसे पैदा हुई कश्मीर की समस्या

कश्मीर को भारत छोड़ना नहीं चाहता था। यह नेहरू के धर्मनिरपेक्ष एजेंडे पर फिट बैठता था
श्रीनगर का प्रसिद्ध लाल चौक

लार्ड माउंटबेटन, नेहरू, पटेल, जिन्ना-ये सभी ऐसे नाटकीय किरदार रहे जिन्होंने पहले तो बंटवारे के दौरान और बाद में कश्मीर के मुद्दे पर अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभाई। द स्टेट्समैन के संपादक रहे इयान स्टीफंस इन सभी को निजी तौर पर जानते थे। फिर भी, इन सभी से बराबर दूरी बनाकर भी रखते थे। 28 अक्टूबर, 1947 को, जब कश्मीर का मुद्दा गरमा रहा था, स्टीफंस के एक संपादकीय से सनसनी फैल गई। महाराजा हरि सिंह शासित मुस्लिम-बहुल आबादी वाले कश्मीर की हलचलों पर वह नजर रख रहे थे। साथ ही हैदराबाद और जूनागढ़ (हिंदू-बहुल वाली मुस्लिम शासित रियासतें) पर भी। बड़ा सवाल यही था कि ये रियासतें किधर जाएंगी। भारत के साथ या पाकिस्तान में?

हैदराबाद के निजाम स्वतंत्र रहना चाहते थे लेकिन भारत ने सुरक्षा दस्ते भेजकर उसे अपने में मिला लिया। जूनागढ़ के मुस्लिम शासक पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे लेकिन भारत ने वहां की हिंदू आबादी को ध्यान में रखकर उसे मिलाया। लेकिन कश्मीर का क्या हो? महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते थे। वह जम्मू का भारत में विलय चाहते थे और कश्मीर में जनमत-संग्रह के पक्षधर थे। कथित तौर पर जम्मू से मुसलमानों की एक बड़ी आबादी का सफाया कर हरि सिंह अपने राज्य की डेमोग्रॉफी बदल देना चाहते थे। लेकिन इससे कश्मीर विवादों के घेरे में आ गया। यहां की मुस्लिम-बहुल आबादी के चलते पाकिस्तान इसका अपने में विलय चाहता था। दूसरी ओर, भारत इसे नहीं छोड़ना चाहता था। क्योंकि यह नेहरू के धर्मनिरपेक्ष एजेंडे पर फिट बैठता था।

हाल के वर्षों में कश्मीरी पंडितों को लेकर ढेरों चिंताएं सामने आई हैं। जम्मू के शरणार्थी शिविरों में पिछले 25 साल से रह रहे कश्मीरी पंडितों की बुरी हालत को लेकर सहानुभूति की लहर दिख रही है। कश्मीर घाटी में आतंकवाद का दौर शुरू होने के बाद से उनका पलायन शुरू हुआ। लेकिन कश्मीर का भविष्य कश्मीरी पंडितों के बगैर अधूरा है, अकल्पनीय है।

इन तथ्यों के दूसरे पहलू की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। टाइम्स ऑफ इंडिया के 18 जनवरी, 2015 के अंक में स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर ने एक लेख लिखा था। इसमें कश्मीरी पंडितों की दुखभरी दास्तान को समुचित परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। अय्यर ने इसे राज्य के ही अन्य एक जातीय संघर्ष के संदर्भ में बयान किया है। उनके लेख का शीर्षक था, ‘कश्मीर में दो जातीय संघर्षों की दास्तान’, जिसमें अय्यर लिखते हैं : ‘आज जम्मू हिंदू बहुल इलाका है लेकिन 1947 में यहां मुसलमानों की बहुलता थी। 1947 के सांप्रदायिक दंगों में जम्मू के मुसलमानों पर गाज गिरी। यहां से लाखों लोग पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के इलाकों में भाग गए। इसके बाद जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक हो गए, पांच दशक बाद एकदम इसी पैमाने पर कश्मीर घाटी से पंडितों का सफाया हुआ।’

अय्यर लिखते हैं: ‘जम्मू और कश्मीर की दुखद स्थिति मौत और मानवाधिकारों को कुचलने की एक लंबी और भयानक गाथा का नतीजा है। इसमें कई विलेन हैं और हीरो एक भी नहीं। जातीय संघर्ष और सफाए के लिए दोनों तरफ के लोग दोषी हैं। हालांकि दोनों ही तरफ के लोग पीड़ित होने का दावा करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि कभी उन लोगों ने भी अत्याचार किए थे। कश्मीर में आजादी की कथित मांग के उठते हुए 25 साल हो गए हैं। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई और भी चौड़ी हुई है। जातीय संघर्ष का सन्निपात पहले से ज्यादा तेज हुआ है। कई कहानियां ऐसी होती हैं, जिनका सुखांत नहीं होता।’

इस हकीकत को ध्यान में रखते हुए कश्मीर की समस्या का सटीक हल निकालना बेहद मुश्किल नजर आता है। हालांकि हमारे पास कोशिश करते रहने के अलावा इसका कोई हल नहीं है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान-दोनों ही देशों की सरकार लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने का कोई हल तलाश लेंगी।

( बीइंग द अदर: द मुस्लिम इन इंडिया से साभार)

 

हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान और दिल्ली-कश्मीर एक त्रिकोण है

मैंने अपनी नई किताब, बीइंग द अदर: द मुस्लिम इन इंडिया में उन मसलों को समेटने की कोशिश की है, जिनसे समकालीन भारत जूझ रहा है। चाहे वह सांप्रदायिकता का सवाल हो या कश्मीर का संकट। मैंने पूरे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इन मुद्दों को रखा है। अगर इन बातों को अब भी नहीं समझा गया तो यथास्थिति बनी रहेगी और हमारे समाज पर उसका नकारात्मक असर पड़ता रहेगा।

यह एक तरह का संयोग है कि 2016 में इस किताब का प्रकाशन हुआ, जब ये सारे सवाल काफी गंभीर रूप ले चुके हैं। हालांकि इस किताब को 1989 से ही मैंने अपने दिमाग में बुनना शुरू कर दिया था। मैं चाहता था कि एक पत्रकार के रूप में लगभग पांच दशकों के मेरे पेशेवर अनुभव के साथ-साथ मेरा निजी जीवन भी इस आख्यान का हिस्सा बने, जो इन सवालों के संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण है। यही वजह थी कि मैंने इसे आत्मकथात्मक लहजे में लिखने का विकल्प चुना।

अगर मैं ईमानदारी से कहूं कि यह किताब मैंने क्यों लिखी तो मेरा जवाब यह होगा कि इसका मुख्य उद्देश्य उस त्रिकोण को सामने लाना है, जिसमें हम लगभग 70 सालों से फंसे हुए हैं। हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान और दिल्ली-कश्मीर उस त्रिकोण का हिस्सा हैं। इन वर्षों में इन मुद्दों की जटिलता लगातार बढ़ती गई है और अब एक ऐसी स्थिति में हम पहुंच गए हैं, जहां इन्हें सुलझाने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। अगर हम सच में शांति और समृद्धि के रास्ते पर बढ़ता हुआ हिंदुस्तान देखना चाहते हैं।

आज जो इस देश में करने की कोशिश की जा रही है, उसकी शुरुआत 1947 में ही हो गई थी। पहले यह शराफत से चल रहा था, बाद में शरारत शुरू हो गई। दंगे पहले भी हो रहे थे और बाद में भी हुए। उनमें से कई दंगों का विवरण इस किताब में मैंने दिया है, जिन्हें एक पत्रकार के रूप में मैंने देखा। यह बात सही है कि पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है। भारतीय जनता पार्टी 30 फीसदी वोटों से हासिल अपने बहुमत को पक्का करने की कोशिश कर रही है। वे हिंदू समाज को संगठित करना चाह रहे हैं और इसलिए वे मुसलमानों को निशाना बना रहे हैं, ताकि ध्रुवीकरण आसान हो। लेकिन उन्हें ज्यादा समस्या पिछड़े और दलित वर्गों के उभार से है। भारत की सांप्रदायिक परियोजना किसी हद तक सवर्णवादी है। इस सांप्रदायिक परियोजना में एक बड़ी हलचल राम मंदिर निर्माण आंदोलन और बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ शुरू हुई, इसे लेकर इस किताब का एक पूरा अध्याय समर्पित है। 

इस किताब का मकसद यह भी है कि हम आजादी-विभाजन के इतिहास को फिर से देखें। जिस गंगा-जमुनी या मिली-जुली संस्कृति की बात मैं अपनी किताब में कर रहा हूं, उसके प्रति राष्ट्रीय आंदोलन के ज्यादातर नेताओं की प्रतिबद्धता नहीं थी। आखिर क्यों एक मुस्लिम राष्ट्र बनने दिया गया? मेरा ऐसा मानना है कि आजादी के बाद ही भारत में हिंदू राज कायम हो गया था। निश्चित तौर पर, उसमें मुसलमानों के बराबरी से रहने की व्यवस्था भी की गई थी, लेकिन यह भी तय था कि नेतृत्व हमेशा हिंदुओं के हाथ में रहेगा। इन तमाम बातों के बावजूद एक लंबी ऐतिहासिक प्रक्रिया में भारत एक बहुभाषिक और बहु-सांस्कृतिक देश के रूप में विकसित हुआ है और यही इसकी पहचान है।

(रोहित प्रकाश से बातचीत पर आधारित)

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