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साहित्य में शंख (उद्)घोष

बांग्लाभाषी यह कवि जीवन-मर्म से कविताएं निकालते हैं और ऊर्जा-उष्मा में पिरोते हैं
प्रस‌िद्ध बांग्ला कव‌ि शंख घोष राष्ट्रपत‌ि प्रणब मुखर्जी से सम्मान ग्रहण करते हुए

सन 1932 में जन्मे कवि शंख घोष कोलकाता में रहते हैं। यहीं के प्रेसिडेंसी कॉलेज और कलकत्ता विश्वविद्यालय के छात्र रहे। कोलकाता के कॉलेजों में शुरू में पढ़ाने के बाद वह जादवपुर विश्वविद्यालय से जुड़ गए,  दीर्घकाल तक वहीं बांग्ला साहित्य का अध्यापन किया और शिक्षक के नाते भी विपुल ख्याति अर्जित की। कवि के रूप में उनकी ख्याति अन्य सभी प्रकार की प्रसिद्धियों पर भारी पड़ती है। कोलकाता की गलियों-सडक़ों, ट्रामों-बसों में, उन्होंने जो और जैसा जीवन देखा-जिया समय-समय पर उससे कविता सहज भाव से बुनती-गुनती चली गई। जीवन-प्रसंगों से उन्होंने सिर्फ कोलकाता के जीवन की ऊर्जा-ऊष्मा अपनी कविता में नहीं उतारी बल्कि उन प्रसंगों से भी बटोरी-संजोई जो जीवन-मर्म और मनुष्य हृदय की अतल गहराइयों को स्पर्श करते हैं और हमें आध्यात्मिक प्रतीतियों की ऊंचाइयों पर ले जाते हैं। प्रकृति,  उनके उपादान,  कविता में सहज रचे-बसे हैं। बांग्ला उनकी मातृभाषा है। उसी के भाषिक-संसार में उनकी गहरी जड़ें हैं। पर उनकी कविता हिंदी समेत देश, विदेश की अन्य भाषाओं में भी पहुंची, सराही गई और ग्राह्य हुई।

शंख घोष बाबू मोशाय, सरीखे ही दीख पड़ते हैं। अभी 27 अप्रैल को जब वह वर्ष 2016 का ज्ञानपीठ पुरस्कार, राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से ग्रहण करने आए तो इसी वेश-भूषा में थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी उन्हें बधाई देने वाले पहले व्यक्तियों में से थे। उन्हें साहित्य समाज के सभी बड़े पुरस्कार मिले हैं। वह पद्मभूषण से भी अलंकृत हैं। शंख घोष की परवर्ती पीढ़ियों के अत्यंत प्रतिभावान कवि जय गोस्वामी ने उन्हें पुरस्कार की बधाई दी तो वह थोड़ी देर के लिए चुप हो गए थे। सत्ताइस अप्रैल की दोपहर उनसे मिलने पहुंचा तो मुझसे बांग्ला में कहा, ‘भय होच्चे’ (डर लग रहा है)। इस बात का कि शाम के समारोह में कितने लोग जुटेंगे, कैसे क्या होगा, पता नहीं। मैंने मुस्कराते हुए कहा, ‘कैसा डर। आपको क्या डर।’  यह बात विनम्रतावश नहीं कही गई थी। शंख घोष हैं ही ऐसे। जन के जीवन को प्रभावित करने वाली राजनीतिक शक्तियों, सामाजिक दुर्नीतियों को जो व्यक्ति और कवि अच्छी तरह जानता-समझता रहा है वह लोगों से दूर भागता रहा है। कोलकाता में भी वह किसी साहित्य-सभा में चुपके से आकर पिछली कुर्सियों में बैठ जाते हैं। लोगों की आंखें, घूम-फिर कर उनकी ओर जाती हैं पर जब तक पहले से तय न हो कि उन्हें बोलना है, आग्रह के बाद भी वह सभा में नहीं बोलते। वह चुपचाप सुनते हैं, लोगों से दो-एक बातें करते हैं और चले आते हैं। मनुष्य की गरिमा के लिए संघर्ष करने वाले कवि हैं शंख घोष। सहज जीवन के हामी, प्रेम में विश्वास करने वाले। मनुष्य से मनुष्य की बराबरी में विश्वास करने वाले। ट्राम-बसों में होने वाली भीड़ और भीड़ की गतिविधियों के प्रसंग से कुछ संवादों या वाक्यों को याद करते हुए उन्होंने एक कविता लिखी थी, ‘भीड़।’ जिसके निहितार्थ गहरे हैं। ‘उतरना है? उतर पड़िए हुजूर, उतारकर चर्बी कुछ अपनी यह’ ‘आंखें नहीं हैं? अंधे हो क्या?’ / ‘अरे तिरछे हो जाओ,  जरा छोटे और।’ / ‘भीड़ में घिरा हुआ/ और कितना छोटा बनूं मैं/ ईश्वर!/ रहूं नहीं अपने जितना भी/ कहीं भी,/ खुले में, बाजार में, एकांत में!’

वह कविताओं में सामान्य बोलचाल और दैनंदिन बातों का सहरा लेते, अद्भुत कविताएं लिखते आए हैं। मिट्टी के तेल के लिए राशन की लाइन में खड़े एक व्यक्ति के मुंह से वह कहलवाते हैं,  ‘जब ‘आग’ ही नहीं है कहीं तो क्या करूंगा मैं यहां खड़ा रहकर? मैं तो खाली कनस्तर बजाता हुआ यहां से चला जाऊंगा?’ यह आग-प्रसंग आया कहां से?  लाइन में खड़ा वह व्यक्ति देखता-सुनता है कि लोग आपस में मामूली बातों पर झगड़ रहे हैं, धक्‍का-मुक्‍की कर रहे हैं, एक दूसरे को धमकी दे रहे हैं कि कोई उनकी जगह कहीं छीन न ले! भले ही ‘छीनने’ वाला व्यक्ति अपनी जगह सही हो! हां, किसी भी प्रकार की आक्रामकता, धक्‍का और बड़बोलेपन के विरुद्ध खड़ी हुई है उनकी कविता। इस सबके बीच ‘मेघ’ भी हैं, ‘मेघ जैसा मनुष्य’ भी है। इसी शीर्षक की कविता में वह लिखते हैं, ‘गुजर जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य/ लगता है छू दें उसे, तो झर पड़ेगा जल/ गुजर जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य/ लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी/ वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक या चाहता है आश्रय? गुजर जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य/ संभव है जाऊं मैं पास में उसके किसी दिन तो/ मैं भी बन जाऊंगा एक मेघ।’

क्या जगह है कोलकाता। यहीं तो जीवन का बहुतेरा भाग बिताया था रवींद्रनाथ ठाकुर, शरत बाबू और जीवनानंद दास ने। यहीं के तो हैं शंख घोष से पहले ज्ञापपीठ पुरस्कार पाने वाले बांग्ला लेखक-कवि ताराशंकर वंद्योपाध्याय, विष्णु दे, आशापूर्णा देवी, सुभाष मुखोपाध्याय और महाश्वेता देवी। यहीं रहकर तो अपना कामकाज किया था सत्यजित राय, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और शंभु मित्र जैसे लोगों ने। यहीं रहते थे जामिनी राय। कोलकाता में रहकर काम करने वाले लेखकों-कवियों, रंगकर्मियों, संगीतकारों, चित्रकारों, नृत्यकारों, फिल्मकारों, फोटोग्राफरों की सूची बनाते चलें तो वह बहुत लंबी होगी। इनकी याद यहां इसलिए कि समय-समय पर शंख घोष ने फिल्मकारों-रंगकर्मियों आदि पर भी महत्वपूर्ण बातें लिखी और कही हैं। उनके सरोकार गहरे हैं। अध्ययन विस्तृत है। रवींद्र साहित्य के अध्येता-पारखी-विश्लेषक और विशेषज्ञ के रूप में तो वह देश-दुनिया में जाने जाते हैं। कोलकाता की जर्जर और ‘नई’ चाल की सडक़ों-गलियों में बिखरा रहता है, न जाने कितने प्रकार का जीवन! राजनीतिक दलों और संस्थाओं-समारोहों के इश्तिहारों के साथ टंगे होते हैं बैनर, विज्ञापन। विज्ञापन की दुनिया को लेकर ही उनकी कविता ‘मुख ढेके जाए विज्ञापने’ (मुख ढक जाता है विज्ञापन से) है। यह बहुतों को ‘मुखस्थ’ है। विज्ञापनों के ढेर में व्यक्ति का चेहरा छिप गया है। झुलस गया है। जीवन की दो-चार आत्मीय बातें सुनने का अवकाश अब किसे है।

शंख घोष की चुप्पी भी बहुत कुछ बोलती है। राजनीतिक दलों समेत, बुद्धिजीवी और उनके प्रेमी-पाठक, सामान्य जन प्रतीक्षारत रहते हैं कि वह किस विषय पर क्या बोलेंगे और उनके ‘बोलने’ का असर आज भी बंगाल में होता है। कवि-कथाकार उदयन वाजपेयी कहते हैं, ‘शंख घोष की आवाज इतनी गहरी है मानो गले से नहीं, किसी कुएं से गूंजती हुई आती है।’ फोन वह स्वयं उठाते हैं। मोबाइल का इस्तेमाल नहीं करते। उनके घर लिखने-पढ़ने वालों, आम पाठकों का ‘अड्डा’ भी जुटता है। शंख दा बतियाना चाहते हैं आत्मीय ढंग से। सुनना चाहते हैं सबकी, सुनाना चाहते हैं अपनी। उनकी कविताएं तो हैं ही जो उनकी आंतरिक दुनिया में, उनके कवि-स्वभाव में प्रवेश के लिए हमेशा उपलब्‍ध हैं। उनकी सत्तर पुस्तकें हैं गद्य-पद्य मिलाकर। बच्चों के लिए भी कविता संग्रह हैं। ‘दिनगुलि रातगुलि’, ‘आदिम लता गुल्ममय’, ‘निहित पाताल छाया’, ‘मुख ढेके जाए विज्ञापने’, ‘बहु सुर स्तब्‍ध पोड़े आछे’, ‘शुनि शुधू नीरव चीत्कार’ (कविताओं की) तथा ‘दामिनीर गान’, ‘कवितार मुहूर्त’, ‘ऐतिहेर विस्तार’, ‘बट पाकुदेर फेना’ (गद्य) आदि पुस्तकों के कई संस्करण आ चुके हैं।

शंख घोष से मेरा प्रत्यक्ष परिचय 1983 में हुआ था। वह वागर्थ, भारत भवन, भोपाल के निमंत्रण पर आए थे। उनकी कविताओं के अनुवाद उन्हीं के साथ बैठकर करना था। तब उनकी पंद्रह कविताओं के अनुवाद किए थे। अनंतर पंद्रह और किए। तब एक छोटी-सी पुस्तक तैयार हुई थी। अब मेरे अनुवादों में उनकी साठ कविताओं की एक पुस्तक ‘मेघ जैसा मनुष्य’  आने वाली है राजकमल प्रकाशन से। कह सकता हूं कि उनकी कविताओं से गुजरना, भाषा के अचूक इस्तेमाल से गुजरना है। अनुभव-समृद्धि से गुजरना है। अपने ‘समकाल’ की विनष्टकारी और रचनात्मक शक्तियों से रूबरू होना है। जल-आकाश-लता-गुल्म-पशु-पक्षियों के संसार से नए तरह से जुड़ना है।

फिल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता ने उन पर जो फिल्म बनाई है, उसमें एक जगह शंख घोष कहते हैं, ‘मैं सुभाष मुखोपाध्याय का स्नेह-भाजन बना था। उन्हें मेरी लिखी चीजें अच्छी लगने लगी थीं। एक दिन उन्होंने अकेले में पूछा, ‘सुना तुम कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करना चाहते हो?’ मैंने कहा था, ‘नहीं। मैं स्वतंत्र रूप से लिखना-पढ़ना चाहता हूं। सोचा था, शायद उन्हें मेरी बात बुरी लगेगी। पर उन्होंने प्रसन्न भाव से कहा था, ‘ठीक है तो फिर ऐसे ही रहना।’ शंख घोष सचमुच स्वतंत्र रहे और आज तक हैं। उनकी यह स्वतंत्रता मूल्यवान है। उनके घर के दरवाजे पर उनका नाम नहीं है। बेटियों के पुकारने वाले नाम ‘मीठी’, ‘टिया’  लिखे हैं। विनम्रता उनकी आत्मीयता को और बल देती है, उनका स्नेह आप्लावित करता है। उनकी कविताओं से मिलने वाला नैतिक बल संबल बन जाता है। बहुतों का। मेरा भी।

(लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। शंख घोष पर उनकी पुस्तक ‘मेघ जैसा मनुष्य’ जल्द आने वाली है।) 

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