आजादी के 70 साल बाद भी देश के किसानों की आर्थिक स्थिति काफी दयनीय है। वर्ष 2012-13 के नेशनल सैंपल सर्वे के 70वें दौर के अनुसार खेती-किसानी से जुड़े परिवारों की मासिक आय मात्र 3,081 रुपये है। बिहार, झारखंड, ओडिशा, सिक्कम, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और कई केंद्रशासित प्रदेशों में तो उनकी आमदनी 2,000 रुपये प्रति माह से भी कम है। सीमांत किसान तो अपनी मासिक आय से अपनी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं कर पाते हैं। देश में करीब 85 फीसदी छोटे और सीमांत किसान ही हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति इतनी खस्ताहाल है कि 1995 से 2014 की अवधि में करीब तीन लाख किसानों ने गरीबी और कर्ज के जाल में फंसकर खुदकशी कर ली।
देश में आय के सभी स्रोतों को मिलाकर औसत मासिक आमदनी 6,426 रुपये है, जो बिहार में 3,558 रुपये से लेकर पंजाब में 18,059 रुपये तक जाती है। यहां यह जिक्र करना भी गैर-मुनासिब नहीं है कि पंजाब में किसानों की आमदनी अपेक्षाकृत अच्छी होने के बावजूद यह अच्छी जिंदगी जीने के लिए नाकाफी है।
इस बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले साल घोषणा की कि साल 2022 तक देश में किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाएगी। अगर ऐसा होता है तो 2022 में जब देश आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा होगा तो किसानों की स्थिति सुधरी हुई होगी। अगर वाकई ऐसा होता है तो इससे न सिर्फ कृषि अर्थव्यवस्था बल्कि पूरी अर्थव्यवस्था में भी मजबूती आएगी।
हालांकि, इस लक्ष्य को साधने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें जिस तरह की पहल और रणनीतियों की चर्चा कर रही हैं वे बहुत संतोषजनक नहीं हैं। इनमें सुझाव आए हैं कि सिंचाई का रकबा और फसल का घनत्व या बारंबारता बढ़ाई जाए और कृषि तथा गैर-कृषि रोजगार में विस्तार किया जाए। ऐसे में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उपज और फसल बुआई की बहुलता बढ़ाने के जो प्रयास हुए हैं, उसमें कोई खास सफलता नहीं मिली है। पिछले कई साल से यह करीब 138 से 139 फीसदी ही रही है जबकि सिंचित भूमि का रकबा 2004-05 में 590 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 2012-13 में 660 लाख हेक्टेयर हो गया है। 2012-13 में कुल 19 करोड़ 40 लाख हेक्टेयर फसल बुआई क्षेत्र में से मात्र 930 लाख हेक्टेयर भूमि ही सिंचित थी।
इसमें कोई शक नहीं कि हाल के दिनों में सिंचाई के लिए बढ़े सरकारी निवेश और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत बने तालाबों के कारण स्थिति सुधरी है। लेकिन इतना होने के बाद भी प्रधानमंत्री के हर खेत में पानी पहुंचाने के लक्ष्य और योजना में अगले कई वर्षों तक वास्तविक स्थिति में बड़ी खाई बनी रहेगी। हालांकि ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसे तरीकों पर जोर दिए जाने से लागत कम आएगी। लेकिन इसका असर खासकर बागवानी की नकदी फसलों में दिखेगा।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विविधता के मद्देनजर यह भी जिक्र किया जा सकता है कि किसानों की कुल आय का 48 फीसदी हिस्सा ही कृषि उपज से प्राप्त होता है। खासकर सीमांत और छोटे किसानों के मामले में आय का करीब 32 फीसदी हिस्सा दैनिक मजदूरी से मिलता है। गैर-कृषि स्रोतों के जरिए किसानों की आय में सुधार करने की काफी संभावनाएं हैं पर इन पर गंभीरता से काम किए जाने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी होगा कि माकूल तकनीक, आधारभूत ढांचे उपलब्ध कराने पर पूरा ध्यान दिया जाए और इसमें पर्याप्त निवेश हो। इसके अलावा कृषि क्षेत्र में विस्तार की रणनीति अलग-अलग हिस्सों में अलग होगी। मसलन, पंजाब में शायद कृषि प्रसंस्करण और कृषि व्यवसाय में ज्यादा निवेश करना पड़े जबकि पूर्वी राज्यों में डेयरी, मत्स्य पालन, फल और सब्जी उत्पादन पर ज्यादा जोर की दरकार हो। कम पानी वाले क्षेत्रों में बागवानी और कृषि वानिकी की प्रबल संभावना है। इनके अलावा नीतियों में कुछ सुधार की फौरी जरूरत है।
एक, कृषि उपज की कीमत और विपणन व्यवस्था में सुधार किसानों की आय बढ़ाने की कुंजी साबित होंगे। अभी समर्थन मूल्य मुहैया कराने का मौजूदा तंत्र नाकाफी और अप्रभावी है। विविध बाजार, व्यापार के लिए एक से ज्यादा लाइसेंस, बाजार शुल्क के लिए कई लेवी केंद्र और किसानों की बाजारों तक सीमित पहुंच के अलावा कई राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केट कमेटी (एपीएमसी) कानून देश भर में कृषि उत्पादों की आवाजाही में रुकावट पैदा करने वाले हैं। इससे किसानों की विपणन कीमत और लाभ दोनों प्रभावित होते हैं। सरकार के हाल में सभी थोक बाजारों को ई-नैम से जोड़ने की योजना से निश्चय ही लाभ मिलेगा। लेकिन राज्य सरकारों को इस मामले में ज्यादा सक्रिय होने की जरूरत है।
दूसरे, कृषि लैंड लीजिंग के नियम भी कृषि आय में बढ़ोतरी लाने में रोक लगाते हैं। मौजूदा कानूनी प्रावधानों के कारण लाखों हेक्टेयर जमीन खाली पड़ी रहती है। अगर जमीन लीज पर लेने वाले किसानों को सांस्थानिक कर्ज, बीमा और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं तो उनकी आय में बढ़ोतरी की जा सकती है।
तीसरी बात यह है कि तकनीकी बदलाव भारत ही नहीं, विदेशों में भी कृषि विकास में सहायक रहे हैं और ये भविष्य में भी सहायक होंगे। पिछले कुछ दशक में संकर और ज्यादा पैदावार वाली किस्मों की फसलों की सफलता की कहानी जगजाहिर है। इन सब के बाद भी यदि नई तकनीकी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई और कृषि के अलावा इसके उपक्षेत्र जैसे फसल उत्पाद, पशु पालन, वानिकी, मछली पालन, कृषि वानिकी में आय बढ़ाने के उपाय नहीं किए गए तो स्थिरता आ जाएगी। देश में क्षेत्रीय स्तर पर पैदावार के बीच गहरा अंतर है, उसे पाटना जरूरी है। इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), राज्य कृषि विश्वविद्यालय (एसएयू) और राज्य सरकारों को मिलकर एक मिशन के रूप में काम करना चाहिए।
चौथी बात यह है कि किसानों को कम दर पर समुचित संस्थागत कर्ज दिलाने की व्यवस्था हो। ऐसा किसानों की सूदखोरों पर निर्भरता खत्म करने के लिए जरूरी है। वर्तमान में संस्थागत और गैर-संस्थागत दो स्रोतों से लिए जाने वाले कर्ज पर ब्याज की दर काफी ज्यादा है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए जरूरी है कि संस्थागत कर्ज पर ब्याज की दर कम की जाए। इसके अलावा निजी रूप से कर्ज देने वाले और कमीशन एजेंटों पर शिकंजा कसा जाए।
पांचवी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से भारत में कृषि काफी असुरक्षित हो गई है। बार-बार अकाल, बाढ़, ओला वृष्टि से किसानों की आय अस्थिर हो जाती है और उनके सामने नारकीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसे में सही कृषि बीमा नीति के साथ-साथ उन्हें राज्यों में सही तरीके से लागू करने की भी व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसा होने पर न सिर्फ किसानों को राहत मिलेगी बल्कि उनकी आय भी बढ़ेगी।
दूसरी ओर स्थिति यह है कि कृषि पैदावार लागत लगातार बढ़ रही है जबकि उपज का मूल्य साल-दर साल और क्षेत्र-दर-क्षेत्र घटता-बढ़ता रहता है। सरकार को इससे राहत देने के लिए दाम स्थिरता कोष के गठन के बारे में विचार करना चाहिए। इसका इस्तेमाल तब किया जाना चाहिए जब फसलों की कीमत बाजार में एक तय स्तर से नीचे पहुंच जाए।
अगर सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करना चाहती है तो उसे तत्काल अपने प्रयास तेज करने चाहिए। इसके लिए आवश्यक सुधारों वाली नीति के साथ ही सही तंत्र विकसित करना चाहिए।
(लेखक नीति आयोग में लैंड पॉलिसी सेल के प्रमुख हैं)