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बदल रहा है किसान

लगातार बदहाल होती आर्थिक स्थिति और सरकारी वादों से नाउम्मीद किसान आखिर उठ खड़ा हुआ
90 के दशक में एक रैली में महेंद्र सिंह टिकैत, जिन्होंने दिल्ली में प्रधानमंत्री की रैली तक की जगह बदलवा दी थी

वाकया 1946 का है। बॉम्बे प्रेसिडेंसी में पड़ने वाले मौजूदा गुजरात के अजरपुरा गांव में किसानों ने पॉलसन नाम की मिल्क प्रोडक्ट कंपनी के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया था। किसानों ने फैसला किया कि दूध बहा देंगे लेकिन कम कीमत पर पॉलसन को नहीं बेचेंगे। किसानों की मदद के लिए सरदार पटेल ने मोरारजी देसाई को भेजा। आंदोलन में शामिल किसानों को सरदार पटेल और मोरारजी देसाई का संदेश था कि आप लोग दूध निकालते हो लेकिन केवल उससे काम नहीं चलेगा। आप लोगों को दूध और उसके उत्पाद की बिक्री का नियंत्रण भी अपने हाथ में लेना होगा। यही वह शुरुआत थी जो आज गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन (जीसीएमएमएफ) यानी अमूल के रूप में करीब 30 हजार करोड़ रुपये की ऐसी कंपनी है जो गुजरात और दूसरे कई राज्यों में किसानों की बेहतर आय का आधार बनी हुई है। जिस दूध के लिए ग्राहक दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में 50 रुपये लीटर का दाम देते हैं, उसके उत्पादक मेहसाणा या बनासकांठा के किसानों को 40 रुपये लीटर तक मिलते हैं। यही फर्क है एक सफल किसान आंदोलन और उसके नेतृत्व का। यह वाकया बताता है कि सभी आंदोलन बेनतीजा नहीं रहते। लेकिन पिछले करीब दो दशकों में देश में किसान आंदोलनों का नेतृत्व लगभग समाप्त हो गया। यही वजह है कि राजनीतिक दलों, केंद्र तथा राज्य सरकारों की नीतियों में किसान किनारे होता गया और उसकी आवाज कमजोर पड़ती गई।

आजादी के बाद सत्तर के दशक में हरित क्रांति की कामयाबी के साथ किसानों ने फसलों की उपज बढ़ाई तो अतिरिक्त पैदावार से उनकी आय का स्रोत मजबूत होता गया। लेकिन आठवें दशक के मध्य तक आते-आते फसलों की लागत और कीमतों का अंतर कम होने लगा। इससे लाचार किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोतरी के लिए आंदोलन करने लगा। इस दौर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा में भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के आंदोलन को सबसे मजबूत किसान आंदोलन के रूप में देखा जाता है। असल में भाकियू का उदय भी कुछ ऐसे ही हालात में हुआ था, जिन हालात में पिछले कुछ दिनों में मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में छोटे और नए किसान संगठनों का आंदोलन खड़ा हो गया है। आज मंदसौर में जैसे पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत हुई, कुछ ऐसे ही हालात से भाकियू का जन्म हुआ था। उत्तर प्रदेश में बिजली की दरों में कांग्रेस सरकार की बढ़ोतरी भाकियू के किसान आंदोलन के मूल में थी। सरकार और किसानों के बीच बढ़ता टकराव किसानों पर पुलिस फायरिंग के रूप में सामने आया, जिसमें कई किसानों की जान गई। नतीजा उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली कस्बे में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में बनी भाकियू देश के सबसे बड़े और मजबूत किसान संगठन के रूप में स्थापित हो गई।

 

आंदोलन की जमीन

टिकैत की खांटी देसी शैली ने इस संगठन को पूरे उत्तर भारत में फैला दिया। इस संगठन के बड़े आंदोलनों और किसानों की ताकत ने केंद्र और राज्य सरकारों को कई बार अपनी मांगें मानने के लिए मजबूर कर दिया। यही वह दौर था जब महाराष्ट्र में शरद जोशी और विजय जावंधिया ने शेतकरी संघटना खड़ा कर प्याज किसानों के लिए बड़ा आंदोलन किया। कर्नाटक में नंजुंदास्वामी ने कर्नाटक रैयत संघ खड़ा किया। इसी दौरान पंजाब में आतंकवाद की समाप्ति के बाद अजमेर सिंह लाखोवाल भारतीय किसान यूनियन को मजबूती से खड़ा कर चुके थे। लगातार मजबूत होती किसान यूनियन का एक उदाहरण यहां जरूरी है। 1997 में सरकार ने देश में गेहूं आयात का फैसला किया। उस समय गेहूं के बाजार में आने का समय था लेकिन यूनियन के विरोध के चलते एशिया की सबसे बड़ी अनाज मंडी खन्ना में किसान गेहूं लेकर नहीं आए। इस लेखक ने खन्ना और मोगा मंडी के वीरान प्लेटफार्म को तब देखा था। लुधियाना में बातचीत के दौरान लाखोवाल ने कहा कि हम पानीपत में रेल रोक कर इसका विरोध करेंगे और अगले दिन पंजाब और हरियाणा के किसानों ने पानीपत में रेलें रोक दी थीं।

लेकिन यह भी विडंबना ही है कि पिछली बादल सरकार में लाखोवाल राज्य मंडी बोर्ड के चेयरमैन बने रहे और किसान की हालत खराब होती चली गई। उनसे पिछली मुलाकात उनके चंडीगढ़ स्थित पंजाब मंडी मार्केटिंग बोर्ड के दफ्तर में ही हुई थी। सभी किसान संगठनों और नेताओं में सबसे बड़ी समानता यह थी कि वे खेती करने वाली बिरादरियों से थे और देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले अपेक्षाकृत संपन्न किसानों का प्रतिनिधित्व कर थे, जो एक ग्रामीण मध्य वर्ग का हिस्सा थे। उनकी वित्तीय हालत कमजोर हुई तो वे सड़क पर आ गए। यही वजह थी कि इन संगठनों में आंदोलन करने का दमखम भी था। हाल ही में तमिलनाडु के किसानों के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन को कवर करने वाले मीडिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें शायद यह नहीं पता कि आठवें दशक में बोट क्लब पर कई बार लाखों किसानों ने कब्जा जमाया था।

 

किसानों का दबदबा

लेकिन यह वह दौर था जब किसानों के लिए घटती आय और कर्ज का इतना बड़ा संकट नहीं था, जितना आज है। इन आंदोलनों की ताकत की एक बड़ी वजह राजनीतिक दलों, केंद्र और राज्य सरकारों में किसानों से जुड़े लोगों की अहमियत भी थी। कृषि मंत्रालय की ताकत इतनी अधिक थी कि सरकार में तीसरे नंबर का नेता कृषि मंत्री को ही माना जाता था। यही वजह है कि जनता दल की सरकार में जब देश में 10,000 रुपये तक की पहली किसान कर्ज माफी हुई तो देवीलाल कृषि मंत्री थे। किसान संगठनों को एक मंच पर लाने की समाजवादी विचारक किशन पटनायक ने बहुत कोशिश की और ये एक राष्ट्रीय स्वरूप लेने के बहुत करीब पहुंच गए थे। ऑल इंडिया फार्मर्स आर्गनाइजेशन कोऑर्डिनेशन कमेटी भी बनी। शायद अब भी कुछ लोग इस संगठन का उपयोग करते हों। यह वह दौर था जब दिल्ली में किसान आंदोलन की ताकत दिखाने के लिए पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, कर्नाटक, तमिलनाडु और दूसरे राज्यों के किसान एक साथ जुटते थे। लेकिन राजनीतिक दलों की दखलंदाजी ने इन प्रयासों को तोड़ दिया। कई राजनीतिक दलों को इन किसान संगठनों से ताकत भी मिली। यही वजह है कि सिसौली में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक पहुंचे, जबकि हाल में दिल्ली में धरना दे रहे तमिलनाडु के किसानों को प्रधानमंत्री से मिलने का वक्त भी नहीं मिला।

 

यूं घटने लगा रुतबा

किसानों की अहमियत नौवें दशक के मध्य तक बरकार रही। लेकिन आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद किसान संगठन ही कमजोर नहीं हुए, कोई बड़ा किसान आंदोलन भी नहीं हुआ। अर्थव्यवस्था के नए क्षेत्र खुल रहे थे और कृषि का रुतबा इकोनॉमी में घटने लगा। इसके साथ ही किसान संगठनों की राजनीतिक दलों के साथ हमजोली ने भी इसे कमजोर किया। वहीं देश में कुकुरमत्तों की तरह उग आए गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) का किसानों के मुद्दों में दखल बढ़ना शुरू हो गया। नतीजा यह हुआ कि किसान संगठन भी एनजीओ बन कर रह गए और उनमें किसानों को बड़ी संख्या में संगठित कर सड़क पर लाने का माद्दा खत्म हो गया। गन्ना किसानों के मूल्य के मुद्दे पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में आए भाकियू के अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत से जब इस लेखक ने पूछा कि एक समय था जब आपने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उनकी मां इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर होने वाली रैली को बोट क्लब से हटाकर लालकिले के पीछे के मैदान में शिफ्ट करने को मजबूर कर दिया था, लेकिन आज आपके साथ सिर्फ दर्जन भर लोग ही आए हैं तो उनका जवाब था कि अब वह बात नहीं रही। इन दोनों रैलियों में जब लोगों की संख्या की तुलना हुई तो किसानों की रैली ने प्रधानमंत्री की रैली की पछाड़ दिया था।

 

लाचारी और खुदकुशी का दौर

हालांकि पिछले दशक और चालू दशक के पहले दो साल के दौरान किसानों के लिए कुछ बेहतर समय आया। हार्टिकल्चर उत्पादन, निर्यात बढ़ने और वैश्विक स्तर पर कृषि उपज के दाम बढ़ने से देश के किसानों की कमाई बढ़ी। इसने देश में मोटरसाइकिल से लेकर ट्रैक्टर इंडस्ट्री और उपभोक्ता सामान उद्योग को एक बड़ा ग्रामीण बाजार मुहैया कराया। किसानों के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाने लगे। लेकिन यह दौर ज्यादा नहीं चला। हालात बहुत तेजी से बदले और अधिकांश किसानों की वित्तीय स्थिति बदतर होती गई। वैश्विक बाजार में कृषि उत्पादों की कीमतों में गिरावट ने हालत खराब की, जबकि सरकार का जोर महंगाई रोकने पर लगा रहा, जिसके चलते फसलों के समर्थन मूल्य में मामूली बढ़ोतरी की गई। सरकारी खरीद की सुविधा बढ़ाने के बजाय कमोडिटी एक्सचेंजों में वायदा कारोबार और निजी क्षेत्र पर भरोसा किया गया।

उसके बाद तो देश के कई हिस्सों से सिर्फ किसानों के कर्ज के जाल में फंसने और खुदकुशी करने की खबरें ही आती रहीं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2015 की रिपोर्ट के मुताबिक 1995 से करीब 3 लाख 40 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें ज्यादातर छोटे और सीमांत किसान हैं। हाल के कुछ वर्षों में उद्योगों और गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों के घटने से खेत-मजदूरों की खुदकुशी भी बढ़ने लगी है। केंद्र सरकार के मई 2017 में सुप्रीम कोर्ट में रखे गए आंकड़ों के मुताबिक हर साल कृषि क्षेत्र में 12,000 से ज्यादा लोग आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में कृषि क्षेत्र में कुल 12,602 लोगों ने आत्महत्या की है, जिनमें 8,007 किसान और 4,595 कृषि मजदूर हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों ने जान दी है। उसके बाद कर्नाटक में 1,569, तेलंगाना में 1,400, मध्यप्रदेश में 1,290, छत्तीसगढ़ में 954, आंध्रप्रदेश में 916 और तमिलनाडु में 606 किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों की आत्महत्याओं से जुड़े 87.5 फीसदी मामले इन्हीं सात राज्यों में सामने आए हैं। 

 

लाचारी से उठने का उभरा जज्बा

अब समय बदल रहा है, किसान नए सिरे से अपने हक के लिए खड़ा हो गया। प्रधानमंत्री का नारा ही यही है कि देश बदल रहा है। इसलिए किसान भी अपनी दीनहीन और कमजोर छवि बदलने की ओर चल पड़ा है। मध्यप्रदेश के मंदसौर में जो चिंगारी आग में तब्दील हुई, उसने किसानों को एक बार फिर सरकार और राजनीति के एजेंडा में ला दिया है। साथ ही महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के पुणतांबा गांव से शुरू हुई किसान क्रांति ने जिस तरह राज्य सरकार को घुटनों पर ला दिया, वह किसानों की मजबूत होती शक्ति का ही प्रतीक है। जो राज्य सरकार पहले कर्ज माफी के लिए केंद्र को सिफारिश की बात करती थी, उसी सरकार ने बढ़ते आंदोलन के चलते 11 जून को कर्ज माफी की घोषणा कर दी। स्वाभिमानी शेतकरी संघटना के प्रमुख, सांसद राजू शेट्टी कहते हैं, 'हमने सरकार को 25 जुलाई तक का समय दिया है। अगर कर्ज माफी और दूसरी मांगों में कोई ढील होती है तो हम फिर आंदोलन शुरू कर देंगे।’

असल में राजनीतिक दलों से चुनावी वादों, केंद्र व राज्य सरकारों के विज्ञापनों के दावों और जमीनी हकीकत के बढ़ते अंतर ने किसानों को नाउम्मीद कर दिया है। इसी नाम्मीदी ने देश में नया किसान नेतृत्व खड़ा करने का रास्ता खोल दिया है। यही वजह है कि अब आंदोलन केवल मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक, पंजाब और झारखंड में किसी न किसी रूप में शुरू हो गया है।

 

सरकारी बेरुखी से बदले तेवर

जिस तरह पिछले कुछ साल में फसलों की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव आए हैं और ग्रामीण युवकों के लिए रोजगार के अवसर सीमित होते गए हैं, उसके चलते किसानों का संकट बढ़ा है। बढ़ती लागत, घटती आय और जीवन की बढ़ती जरूरतों ने ऐसा दुष्चक्र तैयार किया, जिसने किसानों को कर्ज के जंजाल में धकेल दिया। यही वजह है कि 2008 में यूपीए सरकार की कर्ज माफी के बाद राजनीतिक दलों के वादों में कर्ज माफी को प्रमुखता मिली। यूपीए सरकार ने कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग बनाया था। उन्होंने फसल की लागत के साथ 50 फीसदी मुनाफा जोड़कर समर्थन मूल्य तय करने की सिफारिश की। लेकिन सरकारें इन सिफारिशों को लेकर कितनी संवेदनहीन रही हैं, यह इस बात से पता चलता है कि आयोग के अध्यक्ष रहते हुए ही एम.एस. स्वामीनाथन ने इस लेखक से कहा कि इन रिपोर्टों पर कुछ खबरें छपनी चाहिए ताकि सरकार संज्ञान ले सके।

 

वादा कुछ, किया कुछ

हालांकि मौजूदा एनडीए सरकार को सत्ता में लाने में इन सिफारिशों ने अहम भूमिका जरूर निभाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान अधिकांश रैलियों में किसानों के साथ वादा किया था कि फसलों के दाम स्वामीनाथन समिति की सिफारिशों के आधार पर तय होंगे। लेकिन महंगाई पर काबू पाने के लिए सस्ते आयात के रास्ते खोल दिए गए। नतीजा यह हुआ की अनाज की कीमतों में भारी गिरावट आई। दो साल लगातार सूखा पड़ा। उसके बाद पिछले साल नोटबंदी का झटका आया। इसने फसलों की कीमतों के बढ़ने की उम्मीद ही तोड़ दी। असल में कृषि जिंसों का अधिकांश कारोबार नकदी में होता है। लेकिन नोटबंदी के बाद यहां नकदी का संकट बढ़ा है और नकदी लेन-देन पर कई तरह की बंदिशों ने हालात और खराब किए हैं। इसके चलते जिंस कारोबारियों ने धंधे से हाथ खींच लिए और किसानों को कम दाम मिले। खास बात यह है कि इस संकट के बावजूद रिजर्व बैंक जिस तरह महंगाई दर को टारगेट कर रहा है और सरकार और उसके बीच महंगाई दर को लेकर कानूनी समझौता हुआ है, उसमें फसलों के एमएसपी में बढ़ोतरी की संभावना बहुत कम रह गई है। मई, 2017 में खुदरा महंगाई 2.2 फीसदी रह गई है जो जनवरी, 2012 के बाद सबसे कम है। यह कमी खाद्य उत्पादों की कीमतों में भारी गिरावट के चलते आई, जो डिफ्लेशन के दौर में चले गए हैं।

जिस तरह यह आंदोलन फैला उससे यह बात साफ है कि किसान केवल मौके का इंतजार कर रहे थे। ऐसे में राजनीतिक दलों के आरोप-प्रत्यारोपों के बीच यह बात साफ होती दिख रही है कि एक बार फिर देश में राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन की जमीन तैयार हो गई है, जिसका नेतृत्व अभी साफ नहीं है, लेकिन जब आंदोलन चलेगा तो नेतृत्व भी खड़ा हो जाएगा। इसके लिए पहल दिख भी रही है। किसान संगठन दिल्ली में बैठक करके एक नेशनल कॉर्डिनेशन कमेटी गठित करने वाले हैं। इसमें स्वाभिमानी शेतकरी संघटना के प्रमुख राजू शेट्टी और राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के संयोजक वीएम सिंह अहम भूमिका निभा रहे हैं।

लेकिन राजनीतिक दलों और सरकार ने किसान आंदोलन को बांटने की रणनीति पर भी काम करना शुरू कर दिया है। जिस तरह मध्यप्रदेश में आंदोलन के बीच ही भाजपा का सहयोगी भारतीय किसान संघ आंदोलन से अलग हो गया। उसी तरह महाराष्ट्र में किसान क्रांति के संगठन को दो हिस्सों में बांटकर एक धड़े को सरकार ने समझौते के लिए उपयोग किया। वहीं राजू शेट्टी के संगठन के भी कुछ लोगों को सरकार ने तोड़ लिया। उसी तरह की हलचल दिल्ली में भी हुई। यहां कुछ तथाकथित संगठनों ने 16 जून को कुछ घंटे देशव्यापी चक्का जाम की घोषणा कर दी। राजू शेट्टी और वीएम सिंह कहते हैं कि यह देशव्यापी आंदोलन को खड़ा नहीं होने देने की राजनीतिक साजिश है।

उक्त बैठक में शामिल कुछ लोगों ने इस लेखक के साथ बातचीत में स्वीकार किया कि कुछ जेबी संगठन और कार्पोरेट के लॉबिस्ट इस पहल के जरिये अपने हित साधने की कोशिश कर रहे हैं।

हालांकि जिस तरह देश में जमीनी स्तर पर किसान आंदोलन कर रहे हैं, उससे लगता है कि इस बार सरकार को कुछ बड़े कदम उठाने को मजबूर होना पड़ेगा। साथ ही, किसान संगठनों को भी देखना होगा कि वह संकट के दीर्घकालिक हल के लिए काम कर रहे हैं या तात्कालिक हल के लिए। बेहतर नतीजे तो तभी आएंगे जब नेतृत्व की दूरदर्शिता 1946 के अजरपुरा आंदोलन जैसी हो, जिसने करोड़ों किसानों के जीवन को बेहतर किया है।

 

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