एनडीए सरकार के दो साल पूरे होने पर एक थीम सांग चल रहा है। मेरा देश बदल रहा है। आगे बढ़ रहा है। छत्तीसगढ़ का बस्तर भी यही कह रहा है। नक्सलवाद का गढ़ रहा बस्तर बदल रहा है। घने जंगलों के बीच स्थित गांव विकास की धारा से जुड़ रहे हैं। जीवनरेखा साबित हो रही हैं सड़कें। सुकमा जिले के दोरनापाल-जगरगुंडा के बीच 58 किलोमीटर की सड़क बन रही है। अति संवेदनशील क्षेत्र उप तहसील है जगरगुंडा। यहां के लिए सड़क दोरनापाल से होकर राष्ट्रीय राजमार्ग 30 से जुड़ती है। यह सड़क घने जंगलों से होकर गुजरती है। पोलमपल्ली, कांकेरलंका, तेमेलवाड़ा, चिंतागुफा, चिंतलनार, गोरगुंडा, पुसवाड़ा, गोंदपल्ली, कोंडासावली, कुंदेड़, अरलमपल्ली, जगरगुंडा, सिलगेर, बुरकापाल,ताड़मेटला, नरसापुर मतिमिलवाड़ा, मोरपल्ली, सुरपनगुड़ा, पेंटा, गुमोड़ी, मुकरम् जैसे गांव इसी सड़क पर पड़ते हैं। इन इलाकों में माओवादियों का प्रभाव सर्वाधिक है। यहां प्रत्येक पांच-दस किलोमीटर की दूरी पर फोर्स के कैंप है। लगभग 25 हजार की जनसंख्या इन गांवों में रहती हैं। इस रोड में पांच स्वास्थ्य केंद्र, तीन प्री-मैट्रिक छात्रावास, नौ आश्रम शाला, तीन पोटाकेबिन तथा नौ प्राइमरी स्कूल हैं। साप्ताहिक बाजार पोलमपल्ली, चिंतागुफा, चिंतलनार और एलमागुड़ा में लगाए जाते हैं।
इस रोड पर सलवा जुडूम से पहले बसों की आवाजाही बनी रहती थी।
नक्सलियों की गतिविधियां बढ़ने के बाद यह प्रमुख मार्ग अस्त-व्यस्त हो गया। जगह-जगह मार्ग काटा गया, जहां-तहां आईईडी बम लगाए गए। इसी सड़क पर 2012 से 2016 के बीच 10 जवान शहीद, 24 घायल, और पांच नागरिकों की मौत हुई इन्हीं कारणों से इसे खूनी मार्ग भी कहा जाता रहा। इसी मार्ग में ताड़मेटला कांड हुआ था, जिसमें 76 जवानों की शहादत हुई थी। ये जवान गश्त कर वापस चिंतलनार कैंप लौट रहे थे। इस सड़क का महत्व इसलिए भी है कि चिंतागुफा, चिंतलनार, जगरगुंडा किसी समय पर ईको पर्यटन का प्रमुख केंद्र हुआ करते थे। ब्रिटिश काल में यह क्षेत्र आखेट का प्रमुख स्थल रहा है। क्षेत्र के वनोत्पाद- शहद, गोंद, तिखुर, चिरोंजी के लिए जाना जाता था।
वर्तमान में क्षेत्र के सभी ग्राम पंचायतों के उचित मूल्य की दुकानों एवं जगरगुंडा के राहत शिविर के लिए राशन विशेष सुरक्षा बलों के साथ प्रत्येक तीन माह के लिए पहुंचाया जा रहा है। शासन की विभिन्न जन कल्याणकारी योजनाओं, स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते जीवन स्तर दुरुस्त हुआ है। स्कूलों, आश्रम भवनों और पोटाकेबिनों की सुविधाओं से शिक्षा के स्तर में सुधार हो रहा है। अतीत में इस सड़क के लिए 2012-13 में पांच बार टेंडर हुआ, लेकिन नक्सल दहशत के चलते कोई आगे नहीं आया। हालांकि सुरक्षा के भरोसे के बाद इस सड़क मार्ग का पुनर्निर्माण व चौड़ीकरण का कार्य 2014-15 से प्रारंभ हुआ। इस मार्ग के बनने से पड़ोसी जिले दंतेवाड़ा (अरनपुर) और बीजापुर आपस में जुड़ जाएंगे। जगरगुंडा, जो किसी समय एक बड़ा व्यापारिक केंद्र था, वह पुन: आबाद होगा। क्षेत्र के आर्थिक विकास को गति मिलेगी। इसी प्रकार मार्ग में स्थित चिंतागुफा, चिंतलनार में व्यापारिक गतिविधियां बढ़ेंगी। इस सड़क मार्ग के निर्माण से निकट भविष्य में सुकमा को अन्य राज्यों उड़ीसा और तेलंगाना से जोड़ा जा सकेगा। साथ ही, छत्तीसगढ़ की 12 ग्राम पंचायतों के 25 हजार ग्रामीणों को तथा लगभग चार हजार बच्चों पढ़ाई का मौका मिलेगा।
फिर से स्थापित होता एक गांव भेज्जी
कोंटा विकास खंड के गांव भेज्जी में 2005 से पूर्व 106 परिवार निवास करते थे। लेकिन माओवाद के दंश ने इसे वीरान कर दिया था। यहां पोस्ट ऑफिस, स्वास्थ्य केंद्र, उचित मूल्य की दुकान, विद्युत व्यवस्था, बालक छात्रावास, कन्या आश्रम, सात किराना दुकान, हॉलर मिल आदि की व्यवस्था थी। भेज्जी में अप्रैल माह में कोंटा के 365 गांवों का सबसे बड़ा व सात दिनों तक चलने वाला कोराज माता का मेला लगता था, जो 2005 से बंद हो गया। भेज्जी में बड़ा साप्ताहिक बाजार लगता था। इससे लगे ग्राम मोसममड़गू, रेगरगट्टा, पाताभेज्जी, पोदेरपारा, बोदारास, एलाडमड़गू, गोरखा, कोकाचेरू, डब्बाकोंटा इस बाजार का उपयोग करते रहे। किंतु सलवा जुडूम से खफा
नक्सलियों ने इस गांव को वीरान कर दिया।
अब जिला प्रशासन, पुलिस और सुरक्षा बलों के साथ स्थानीय लोगों के प्रयास से इस गांव को फिर से आबाद किया जा रहा है। प्रयास जनवरी 2015 से किया जा रहा है, वर्तमान में लगभग 56 परिवार लौटे हैं। यहां सौर ऊर्जा, पेयजल, स्कूल भवन, शिक्षक आवास, इंदिरा, मनरेगा, अनाज गोदाम, मिट्टी-मुरूम रोड, मुर्गी व बकरी पालन शेड के काम चल रहे हैं।
यहां सीआरपीएफ अस्पताल चला रही है, जहां जवानों के अलावा भेज्जी और आस-पास के ग्रामीणों का इलाज होता है। यहां की सरंपच सोमबाई, ग्रामीण सत्यनारायण सिंह, रवींद्र ने बताया कि यहां की राशन दुकान से ग्रामीणों को सामग्री मिल रही है। शनिवार को बाजार के दिन भी इस उचित मूल्य की दुकान से केरोसिन, चावल मिल रहा है। प्राइमरी स्कूल के लिए अतिरिक्त भवन का निर्माण हुआ है। संचार की सुविधा हो गई है। कलेक्टर नीरज कुमार बनसोड के अनुसार, भेज्जी में 56 परिवार लौट आए हैं। लोक सुराज अभियान 2016 के दौरान मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह यहां आए थे। यहां सीआरपीएफ की 219 बटालियन के असिस्टेंट कमांडेट प्रवीण कुमार पिछले तीन साल से पदस्थ हैं। उन्होंने बताया कि इंजरम, गोरखा, कोकाचेरू में कैंप खुलने से तथा सड़कों के विकास से पहुंच मार्ग सुलभ हो गया है।
ऐसे भी हो रहा है पुनर्वास
क्या आपने कभी ऐसे किसी सरकारी कॉलेज के बारे में सुना है, जहां दाखिले के लिए किसी खास स्कूली शिक्षा का होना जरूरी नहीं है। प्रवेश नि:शुल्क है और पांचवीं-आठवीं फेल युवाओं से लेकर ग्रेजुएट तक 18 से 45 वर्ष आयु समूह का कोई भी प्रवेश ले सकता है। आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली भी इस तरह के कॉलेजों में प्रवेश लेकर विकास और आत्मनिर्भरता की मुख्यधारा से जुड़ने लगे हैं। राज्य के 27 जिलों में ऐसे कॉलेज हैं। इन्हें आजीविका महाविद्यालय अथवा लाइवलीहुड कॉलेज का नाम दिया गया है, जहां अपनी पसंद के रोजगार मूलक कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है। मिनी आई.टी.आई. की शैली में संचालित किए जा रहे हैं ये लाइवलीहुड कॉलेज।
राज्य का पहला लाइवलीहुड कॉलेज नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा जिले में अक्टूबर 2012 में शुरू किया गया था। अब तक 20 हजार से ज्यादा युवाओं ने इन कॉलेजों में प्रशिक्षण प्राप्त किया। नक्सल प्रभावित कांकेर जिले की कल तक निराश्रित रही बालिका कुमारी ज्योति ने दुर्ग जिले के लाइवलीहुड कॉलेज कंप्यूटर और अंग्रेजी का प्रशिक्षण हासिल किया। अब वह गुजरात के सूरत स्थित एक बड़े शॉपिंग मॉल में साढ़े छह हजार रुपये के मासिक वेतन पर काम कर रही है।
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‘हमारे ऑपरेशन में मदद दे रहे लोग’
इंटेलीजेंस इनपुट बेस नक्सल ऑपरेशंस में उल्लेखनीय सफलता के दावे किए जा रहे हैं। बड़ी संख्या में नक्सलियों का आत्मसमर्पण भी कराया गया है। नक्सल हिंसा प्रभावित इलाकों में क्या बदलाव आया है, इस पर डीजी (नक्सल ऑपरेशंस) दुर्गेश माधव अवस्थी से आउटलुक की बातचीत के प्रमुख अंश:-
क्या सचमुच में बस्तर बदल रहा है?
नक्सली हिंसा को लेकर हमारी रणनीति शांति, सुरक्षा और सद्भाव के साथ विकास की थी, जो काम कर गई है। बस्तर के भीतरी इलाकों में हो रहा विकास का प्रमाण है कि लोग मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। वे न केवल सरकार की आत्ससमर्पण नीति के कायल हैं, बल्कि हमारे ऑपरेशन के मददगार भी हैं।
हथियार डालने वाले नक्सलियों और उनके परिजनों की सुरक्षा की क्या गारंटी है?
उन्हें आत्मनिर्भर बना रहे हैं। हम आंकड़ों पर नहीं, धरातल पर काम कर रहे हैं। सुरक्षा बलों के 113 सफल ऑपरेशन में 71 से अधिक हार्डकोर नक्सली मारे गए हैं। सात सौ से अधिक ने आत्मसमर्पण किया है। समर्पित नक्सली सरकार की योजनाओं का लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
केंद्रीय सुरक्षा बलों और पुलिस में तालमेल को लेकर सवाल उठते रहे हैं। क्या स्थिति है?
यह नक्सली प्रोपेगैंडा है। ये अपने सूचना तंत्र के माध्यम से इस तरह की अफवाह फैलाने की कोशिश करते हैं कि पुलिस और बाहर की फोर्स में झगड़ा है, ग्रामीणों को मार रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं। लेकिन यह सारा कुछ नक्सली ही कर रहे होते हैं।
हाल में आदिवासी मड़कम हिड़मे के मारे जाने की घटना पर विवाद हुआ। इस पर क्या कहेंगे? हाईकोर्ट ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं।
यह मामला संवेदनशील हो गया है। हाईकोर्ट ने न्यायिक जांच के आदेश दिए हैं। इस पर किसी तरह की टिप्पणी उचित नहीं होगी। मैं यही कहूंगा कि फ्रंट पर लड़ने वाले जवानों को सख्त निर्देश है कि महिलाओं और निर्दोष ग्रामीणों के साथ कोई सख्ती न की जाए।
यदि नक्सल ऑपरेशन का यह पद पहले ही बन जाता तो क्या नुकसानों से नहीं बचा जा सकता था?
इस पद के सृजन से ने केवल सरकार को बल्कि आम आदमी को राहत मिली है, जो शांति के साथ विकास और बदलाव का संवाहक व पक्षधर है। आखिर सुरक्षा बलों का भी तो सामाजिक सरोकार और मानवाधिकार है। फ्रंट पर लड़ने वाली फोर्स के लोग भी तो गरीब मध्य वर्ग के परिवार से आए हैं। नक्सल प्रभावित गांवों के पुनरुत्थान, सड़कों के कायाकल्प, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में सुरक्षा बलों का अहम योगदान है।
झारखंड में असर दिखा रहा है अभियान
सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के कई प्रशिक्षण शिविर नष्ट किए
महेंद्र कुमार
झारखंड पुलिस के नक्सल विरोधी अभियान पर अब तक अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं। पांच सौ से अधिक सुरक्षा बलों के जवानों के अलावा एक सांसद, दो विधायक और करीब डेढ़ हजार आम लोगों की मौत के बाद पहली बार यह अभियान हाल के दिनों में प्रभावी हो रहा है। पिछले सप्ताह झारखंड के अलावा उड़ीसा और छत्तीसगढ़ के इलाके के सबसे बड़े नक्सली कमांडर बड़ा विकास ने राज्य के पुलिस महानिदेशक के सामने हथियार डाल दिए। बड़ा विकास को माओवादियों के सबसे बड़े नेता अरविंद जी का दाहिना हाथ माना जाता है।
झारखंड के 24 में से 22 जिले नक्सलवाद से ग्रस्त थे। कई जिलों में तो नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती थी। नक्सलियों ने चतरा और गिरिडीह को लिबरेटेड जोन घोषित कर दिया था। सरकारी अधिकारी भी उनका हुक्म मानने को विवश थे। विकास कार्यों में लेवी के नाम पर कमीशन का बोलबाला था। नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाने में पुलिस बेहद कमजोर दिख रही थी। समन्वय के अभाव में पुलिस को हमेशा नुकसान उठाना पड़ता था। नक्सलियों ने एक सांसद और दो विधायकों को मौत के घाट उतार दिया। उन्होंने कई बार राजनेताओं पर हमले किए और पुलिस के साथ आमने-सामने की लड़ाई लड़ी। लेकिन नक्सल विरोधी अभियान कभी भी असर नहीं छोड़ सका था।
करीब तीन साल पहले झारखंड और नक्सल प्रभावित दूसरे राज्यों में पहली बार एक साथ नक्सल विरोधी अभियान शुरू किया गया। इस अभियान को कोई नाम नहीं दिया गया, लेकिन रणनीति बेहद सोची-समझी थी और जवानों को गुरिल्ला लड़ाई का प्रशिक्षण दिया गया। उन्हें अत्याधुनिक हथियार और दूसरे जरूरी उपकरण दिए गए। नक्सलग्रस्त इलाकों में विकास के लिए छोटी-छोटी योजनाएं शुरू की गईं। इसका परिणाम अब जमीन पर दिख रहा है। बड़ा विकास झारखंड के लातेहार इलाके में सक्रिय था। सुरक्षा बलों का अभियान देख कर पता चल गया था कि नक्सली अब अधिक दिन तक सुरक्षा बलों से मुकाबला नहीं कर सकेंगे। इसलिए उसने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। वैसे कहा जा रहा है कि संगठन का करीब 50 करोड़ रुपया उसके पास है, जिसे बचाने के लिए ही उसने हथियार डाले हैं।
बड़ा विकास पर झारखंड सरकार ने 25 लाख का इनाम घोषित किया था। इसके अलावा छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में भी उस पर इनाम घोषित था। उसके खिलाफ एक सौ से अधिक मामले विभिन्न थानों में दर्ज हैं। पांच दर्जन से अधिक नक्सली वारदातों में वह सीधे तौर पर शामिल था। इतने बड़े नक्सली के आत्मसमर्पण करने से स्वाभाविक तौर पर पुलिस का मनोबल ऊंचा हुआ है। झारखंड के डीजीपी डीके पांडेय कहते हैं, नक्सलियों की उलटी गिनती शुरू हो गई है। सुरक्षा बल के जवान उनकी जड़ों तक पहुंच गए हैं। अब अगर नक्सली हथियार नहीं डालते हैं तो उन्हें गोलियों का निशाना बनना पड़ेगा। बड़ा विकास के आत्मसमर्पण से ठीक पहले लातेहार इलाके में सुरक्षा बलों ने नक्सलियों के कई प्रशिक्षण शिविर नष्ट किए और बड़ी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद बरामद किए। उधर गिरिडीह जिले में भी पारसनाथ और झुमरा इलाके में सुरक्षा बलों को बड़ी सफलताएं हाथ लगीं। इधर नक्सलियों को आम जनता से अलग करने के लिए कई योजनाएं लागू की गई हैं। सरयू एक्शन प्लान और पारसनाथ एक्शन प्लान के तहत गांवों को पक्की सड़कों से जोड़ा जा रहा है। गांवों में पीने का पानी और स्वास्थ्य सेवाओं के साथ शिक्षा की व्यवस्था की जा रही है। इसका भी सकारात्मक असर दिखने लगा है।
लेकिन झारखंड को नक्सल मुक्त करने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। राज्य सरकार का दावा है कि उसकी आत्मसमर्पण नीति बेहद आकर्षक है, जिसके कारण नक्सली हथियार डालने के लिए तैया र हो रहे हैं। इसके साथ ही नक्सल विरोधी अभियान को धारदार बनाया जा रहा है ताकि सरेंडर नहीं करने वाले नक्सलियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके।