अविभाजित मध्य प्रदेश में फैली नक्सलवाद की बीमारी एक बार फिर अपने पैर पसारती नजर आ रही है। जहां छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग के बाद अंबिकापुर में दस्तक देने वाले नक्सलवाद की जड़ें गहरा रही हैं वहीं मप्र में बीते बारह सालों में उनका दायरा सिमटने के बाद एक बार फिर विस्तार की कवायद शुरू हो चुकी है। बालाघाट जिले में नक्सली आतंक की बढ़ती धमक से इसके संकेत साफ समझे जा सकते हैं। वैसे देखा जाए तो मप्र में बालाघाट ही ऐसा जिला रहा है जहां नक्सलियों ने न सिर्फ पुलिस के वाहनों को विस्फोट से उड़ाकर बड़े नरसंहार किए हैं। एडीशनल एसपी स्तर के अफसर भी वहां शहीद हुए हैं। दिग्विजय सिंह काबीना के एक मंत्री लिखीराम कांवरे की हत्या भी वे कर चुके हैं। लेकिन बीते पांच छह सालों में यहां मौजूद टाडादलम और मलाजखंड दलम की सक्रियता सिर्फ ठेकेदारों और अफसरों से वसूली तक सीमित थी। बालाघाट जिले में एक ऐसे भी पुलिस कप्तान रहे जिन्होंने पुलिस को साफ कह दिया था कि नक्सलियों से मुठभेड़ कतई न करें। यदि किसी ने ऐसा किया तो उन्हें नहीं बख्शेंगे। दरअसल, यह अफसर झारखंड के पलामू जिले के थे। उन्हें डर था कि यदि बालाघाट में वह कोई कार्रवाई करेंगे तो नक्सली उनके परिजनों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पुलिस के इस हथियार डालने वाले पैंतरे को देखते हुए मलाजखंड दलम भी हिंसा के बजाय फंड जुटाने पर जोर देता रहा।
लेकिन पिछले दो सालों से बालाघाट में आईजी के बतौर तेजतर्रार अफसर डीसी सागर और एसपी गौरव तिवारी ने नक्सलियों के खिलाफ जमकर मुहिम चलाई तो टाडा दलम और मलाजखंड दलम बौखला गया। इसी साल अप्रैल में उन्होंने पुलिस की मुखबिरी के संदेह में दो लोगों पर हमला किया। इनमें से एक व्यक्ति की मौत हो गई। सड़क निर्माण में लगी एक जेसीबी मशीन को जलाया। बांस से भरे पांच ट्रक भी फूंककर उन्होंने सरकार का चुनौती देने की कोशिश की है। बालाघाट के आईजी डीसी सागर कहते हैं, ‘बालाघाट में नक्सलियों की चुनौती को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये विस्तार की कवायद में जुटे हैं। कई साल पहले बंद हो चुके दरकेसा और परसवाड़ा दलम को जिंदा किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ के युवकों को इनमें भर्ती किया गया है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि ये अब बच्चों को भी माओवाद की ओर प्रेरित कर रहे हैं। हाल में हुई दो मुठभेड़ों के दौरान जब्त सामान के साथ मिली किताबों से इसकी पुष्टि होती है।’ बालाघाट में नक्सलवादी नई पुलिस चौकियों को खोलने के खिलाफ ग्रामीणों को भड़का रहे हैं। जिले में बनती सड़कों का विस्तार भी रोकना चाहते हैं। सुरक्षा और विकास के इन आयामों का विस्तार नक्सलियों को पसंद नहीं।
नक्सल ऑपरेशन का काम देख रहे एडीजी पुलिस सीवी मुनिराज बालाघाट में आईजी भी रह चुके हैं। मुनिराज ने माना कि नक्सलियों की सक्रियता में पहले भी थी लेकिन बीते तीन महीनों से उन्होंने वारदातों को अंजाम देना शुरू कर दिया है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मध्य प्रदेश के मंडला और डिंडोरी जिले को नक्सल प्रभावित क्षेत्र की सूची से बाहर किया है। शहडोल, सीधी, सिंगरौली नक्सल प्रभावित जिलों में शुमार करने का प्रस्ताव भी मध्य प्रदेश सरकार ने खारिज कर दिया है। लेकिन इन जिलों में भी उनकी सक्रियता की खबरें बीच-बीच में मिलती रही हैं।
वैसे देखा जाए तो बालाघाट भौगोलिक नजरिये से नक्सलियों के लिए शुरू से अहम रहा है। माओवादियों के पृथक दंडकारण्य के नक्शे के लिहाज से देखें तो बालाघाट रेड कारपेट कॉरीडोर का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह जिला महाराष्ट्र के नक्सली प्रभावित जिले गढ़चिरौली और चंद्रपुर और छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव के बीच गलियारा कहा जा सकता है। बस्तर और राजनांदगांव के नक्सली दलम और महाराष्ट्र के नक्सली टोलियों की महत्वपूर्ण बैठकें भी बालाघाट में होती रही हैं। तेलंगाना में कमजोर हो चुके माओवाद की भरपाई वे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से करना चाहते हैं। मध्य प्रदेश में अमरकंटक से लेकर गुजरात के मुहाने तक सटे बड़वानी जिले तक नक्सलवाद के विस्तार की उनकी योजना है। नर्मदा नदी से सटे जंगलों में अपना साम्राज्य कायम करने की उनकी पुरानी हसरत है।