अरसे बाद उपन्यासकार अरुंधती राय की वापसी भी धमाकेदार हुई है। यह मोटी-सी जिल्द उन टूटी-बिखरी जिंदगियों की किस्सागोई है जो तमाम झंझावातों के बावजूद अपने वजूद की लौ जगाए हुए है जैसे अंधेरे कुओं में रोशनी की किरण झिलमिलाती है। यह अजूबा है क्योंकि रिहाइशी बस्तियों में कब्रगाह भी घुसा हुआ है और बगल में अस्पतालों के कचरे का पहाड़ खड़ा है। लेकिन यह ऐसे ही होता है, जैसे चट्टानों के बीच कुछ झाडिय़ां खिल उठती हैं। मानो जिसे नहीं होना चाहिए, वह बदस्तूर कायम है।
कई मायनों में यह गफलतों की किस्सागोई है। इसका प्लॉट इतना विस्तृत है कि लेखिका को अपने सभी प्रिय विषयों को रचने-बसने की गुंजाइश दे देता है। मानो उन्होंने अपने सभी राजनीतिक आलेखों का एक ढीला-ढाला गट्ठर बनाया और उसे किस्सागोई के एक हलके सांचे में ढाल दिया। कश्मीर और बस्तर जैसे एक सांवले बच्चे के साथ बलात्कार में उतर आते हैं। किस्सागोई के हर पड़ाव से जैसे आप आगे बढ़ते हैं, आपका सामना लंबे-लंबे हिस्सों से होता है जिन्हें उनके आलेखों से अलग कर पाना मुश्किल जान पड़ता है। समाज और राजनीति की वही बारीक चीर-फाड़, परिचित-सी छींटाकशी और आदतों के ब्यौरों से तीखा तंज, कई बार बेहद समृद्ध गद्य और गंभीर विवेचन तो कई बार फेसबुकिया शैली की चुटीली टिप्पणियां। हर मोड़ पर ‘नॉन-फिक्शन’ की कुछ झलकियां हैं, विकीपीडिया जैसे वृत्तातों से थोड़ा दिलचस्प या दिल्ली वाला ब्लॉग, उनके गद्य से हलका-सा अलग मिलता है। यही नहीं, किसी एक किस्से के अंत में जानी-पहचानी घटनाओं, कुछ फुटनोट जैसी तमाम बातें हैं जिससे एक दिलचस्प रिपोर्ताज या किसी पत्रकार की रिपोर्ट के नोट्स का अहसास होता है।
किस्सागोई जादुई और सामाजिक यथार्थ के बीच ऐसे मोड़ लेती है कि आप समझ ही नहीं पाते कि घटनाओं को बारीकी से देखने और उनको एकसूत्र में पिरोने की उनकी शैली का मुरीद हुआ जाए या फिर सुर्खियों की चीर-फाड़ करने के उनके तरीके से ऊबा जाए। यह भी अजूबा लगता है कि क्या ये दोनों चीजें उनकी कल्पना में अलग-अलग चलती हैं और फिर एक धागे से पिरो दिया गया है जैसे, विभिन्न प्रदेशों की खुली सीमा के साथ एकता का तानाबाना है। इसके वास्तुशिल्प में भी विविधता है। कई बार वह अवास्तविक-सा लगता है। मसलन कहीं फतेहपुर सीकरी जैसा सौंदर्य है तो पुरानी दिल्ली की कोई कब्रगाह, डल झील में कोई हाउसबोट जैसे सौंदर्य, दुख और आतंक सबका कोई कोलॉज है।
एक मायने में यह अस्वाभाविक भी नहीं है। आलोचना भी हर संरचना का अनिवार्य अंग है। अगर उसे मुख्यधारा से दूर कर देंगे तो वह दूसरे तरीके ढूंढ़ लेगा। यह स्वाभाविक है कि ‘न्यू नॉर्मल’ या नए आमफहम नजरिये का विरोध किसी भू-राजनीतिक विशेषज्ञ की ओर से नहीं, बल्कि उससे उठ रहा है जो अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता है, जिस प्रदेश को कभी वश में नहीं किया जा सका है। इसलिए विरोध की यह जिम्मेदारी साहित्य ही उठाएगा। कई बार एकदम अपनी दुनिया में या फिर अरुंधती के गद्य की तरह, जो कहीं किसी को बचाने के लिए वास्तविक दुनिया की छोटी-छोटी सैर भी कर आता है।
क्या साहित्य यह बोझ उठा सकता है? बेशक, लेखक पर ही निर्भर है। पुराने समय के आलोचक अमूमन पेचीदा, वक्रोक्ति या व्यंजना जैसी शैली अपनाते रहे हैं। लेकिन अरुंधती की पसंद अभिधा ही है यानी जो कहो सीधे कहो। लेकिन वह सामान्य यथार्थ को भी काव्य दृष्टि के अपने विलक्षण चातुर्य से ऐसे पेश करती हैं जिससे कई अर्थ खुलने लगते हैं।
मसलन, आफताब/अंजुम कड़े लैंगिक भेदभाव की दुनिया में ऐसा शख्स है जिसका कोई देश नहीं है। वह दो वाक्यों से पुरुष से स्त्री बन जाता है। उसमें चंगेज खान का खून भी है। अंतत: वह उन सबका सहारा बनती है जिसके लिए कहीं कोई जगह नहीं है। इसमें कश्मीर मूसा के जरिये आता है, जो गरिमामय है लेकिन अपने राज जल्दी नहीं बताता।
दिल्ली तो उपन्यास की मानो असली जमीन है। लेकिन दिल्ली हो या कश्मीर सभी एक अनोखे सूत्र से पिरोए हुए हैं। हर किस्से में एक लय, एक संगीत है। लेकिन अरुंधती की शैली की यह काव्यात्मकता कुछ हद तक गुजरात में आते ही छूटने लगती है। वहां दंगाई पशुवत नहीं, मशीन की तरह संवेदनाहीन हैं। कुल मिलाकर उपन्यास एक अनोखी समझदारी की ओर ले जाता है। वह विविधता का अर्थ समझाने की कोशिश करता है। एक मायने में यह उपन्यास पिछले दो दशकों में सार्वजनिक मंच में आई बहसों और सामाजिक अलगाव को गहरी संवेदना के साथ रखता है। वाकई यह कृति हमेशा अपना स्थान बनाए रखेगी और लोगों को अक्लमंदी की ओर ले जाने का काम करेगी।