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बढ़ती आर्थिक चुनौतियां

करीब दो माह पहले जब केंद्र की मोदी सरकार तीन साल पूरे होने के जश्न की तैयारी कर रही थी तो सब कुछ ठीक लग रहा था। नोटबंदी के आलोचकों को उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में भाजपा को मिली सत्ता के जरिये जनता का जवाब बताया जा रहा था।
file photo

यही वजह थी कि उत्तर प्रदेश सरकार ने पहली कैबिनेट बैठक में राज्य के किसानों का करीब 36 हजार करोड़ रुपये का कर्ज माफ करने का वादा पूरा करने की घोषणा कर दी। लेकिन शायद सत्ताधारी दल को यह नहीं मालूम था कि यह कर्ज माफी मंडल कमीशन जैसी शैली में उसके ऊपर भारी पड़ने वाली है। असल में पिछले दिनों जब केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने पिछले वित्त वर्ष (2016-17) की चौथी तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़े जारी किए तो उसमें आर्थिक विकास दर गिरकर 6.1 फीसदी पर आ गई। इसी के साथ भारत से सबसे तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था का तमगा भी छिन गया। लगे हाथ यह विवाद भी शुरू हो गया कि यह गिरावट नोटबंदी के चलते आई है। हालांकि नोटबंदी से देश की आर्थिक हालत बिगड़ी है, इसे सरकार पचा पाने को तैयार नहीं है। सो, अगले ही दिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और कई तर्कों से इस बात को खारिज करने की पूरी कोशिश की। लेकिन अब देश के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक के ही एक रिसर्च का नतीजा है कि नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर असर अभी जारी रहेगा। इसी बात को मुख्य आर्थिक सलाहकार ने भी इस लेखक से एक बातचीत में स्वीकार किया था कि जीडीपी पर नोटबंदी का प्रतिकूल असर पड़ा है।

असल में बात यहीं रुक जाती तो संभालना आसान होता। अर्थव्यवस्था के हर मोर्चे पर सरकार की दिक्कतें लगातार बढ़ रही हैं। मसलन, जिस तरह देश में किसानों का आंदोलन फैल रहा है, उसके चलते उत्तर प्रदेश के बाद महाराष्ट्र सरकार को किसान कर्ज माफी की घोषणा करनी पड़ी। पंजाब से लेकर कर्नाटक, तमिलनाडु से लेकर राजस्थान और हरियाणा तक सभी राज्यों पर किसान कर्ज माफी का दबाव है। मध्यप्रदेश में जैसे पुलिस की गोली से छह किसानों की जान गई, वह देश के किसी भी हिस्से में उग्र किसान आंदोलन की जमीन तैयार कर चुका है। अगर सभी राज्य कर्ज माफी की ओर बढ़े तो एक आकलन के अनुसार यह करीब तीन लाख करोड़ रुपये की रकम होगी। ऐसे में, खराब वित्तीय हालत से गुजर रहे राज्यों में राजकोषीय संतुलन बनाए रखना मुश्किल होगा। राजकोषीय संतुलन गड़बड़ाने की आशंका से ही केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली बार-बार दोहरा रहे हैं कि कर्ज माफी का बोझ राज्यों को अपने स्तर पर ही उठाना पड़ेगा। लेकिन इसी केंद्र ने सातवां वेतन आयोग लागू करके राज्यों के खजाने पर भारी बोझ का इंतजाम कर रखा है। वोटों को प्रभावित करने वाले किसानों के मसले ने राज्यों के सामने आगे कुआं, पीछे खाई जैसी स्थिति पैदा कर दी है।

 उधर, केंद्र सरकार भी कर्ज के एक दूसरे मामले में उलझी हुई है। सरकारी बैंकों का करीब सात लाख करोड़ रुपये का कर्ज डूबत कर्ज की श्रेणी में है। ऐसे में सरकारी बैंकों को बचाने की चुनौती भी जेटली के सामने है। जेटली किसानों से भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। किसान केवल कर्ज माफी के लिए ही आंदोलन नहीं कर रहे हैं बल्कि फसलों की बेहतर कीमत भी उनकी बड़ी मांग है, जिसका केंद्र वादा कर चुका है। लेकिन फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया जाता है तो महंगाई दर काबू में रखने का लक्ष्य गड़बड़ाता है और ब्याज दरें ऊंची बनी रहेंगी। इसी वजह से हाल की मौद्रिक नीति समीक्षा में रिजर्व बैंक ने ब्याज दरों में कटौती नहीं की। हालांकि सरकार उम्मीद कर रही थी कि रिजर्व बैंक ब्याज दरें घटाएगा।

सुस्त होती अर्थव्यवस्था ने रोजगार के अवसरों को सीमित किया है। संरक्षणवाद की नई लहर से विकसित देशों में भारतीयों के लिए नौकरियां कम हुई हैं। देश में तेजी से बढ़ते आईटी सेक्टर में भी छंटनी के बादल तैर रहे हैं। सो, भाजपा के सहयोगी संगठनों ने भी सरकार की आर्थिक नीतियों पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं। भारतीय मजदूर संघ के अध्यक्ष ने आउटलुक के इसी अंक में एक इंटरव्यू में कहा है कि सरकार की आर्थिक नीतियों में सलाहकार नीति आयोग की गलत सिफारिशें रोजगार के अवसर कम कर रही हैं। कुछ इसी तरह के आरोप स्वदेशी जागरण मंच के भी हैं। भारतीय किसान संघ भी मध्य प्रदेश में किसान आंदोलन में ही शामिल है।

तीन साल पूरे कर चुकी मोदी सरकार के लिए शायद आर्थिक मोर्चे पर नई चुनौतियां पैदा हो गई हैं। हालांकि हर दिक्कत का हल अब जीएसटी में खोजा जा रहा है जो एक जुलाई से लागू होने वाली है। लेकिन मौजूदा चुनौतियों का हल इतना सीधा नहीं है। शायद सरकार को कोई नई रणनीति बनाकर इन चुनौतियों से पार पाना होगा।

 

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