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हिटलरशाही का अफवाहनामा

यहूदियों को दुश्मन के रूप में लक्षित करने से गोएबल्स का प्रोपगंडा आश्चर्यजनक ढंग से सफल साबित हुआ था
सोशल मी‌ड‌िया

एडोल्फ हिटलर का 1933 में सत्ता में काबिज होना न सिर्फ जर्मनी और यूरोप के लिए, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक विनाशकारी घटना थी। आज तक वह परिघटना राजनीति और समाजशास्त्रियों के लिए हैरानी और जिज्ञासा का विषय है। फ्रांकफुर्त स्कूल ऑफ फिलासफी के दार्शनिक एरिक फ्रॉम से लेकर अमेरिकी पत्रकार और लेखक विलियम शायरर तक अनेक विद्वानों ने इसकी व्यापक व्याख्या की है। मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों, हिटलर के अविवेकी व्यक्तित्व, जर्मनी पर वारसा संधि के रूप में कू्रर शांति का थोपा जाना, यहूदी विरोध की भावना, अंध-राष्ट्रवाद, जर्मन लोगों के विशिष्ट राष्ट्रीय चरित्र वगैरह तमाम मुद्दों पर अनेक बहसें हो चुकी हैं। इन बहसों में कुछ का जिक्र कम हुआ, अफवाह उनमें एक है।

हिटलरी शासन में प्रोपगंडा और अफवाह की चर्चा से पहले 'माइन काम्फ’ (मेरा संघर्ष) नामक पुस्तक में हिटलर की कुछ बातों का उल्लेख रोचक होगा।

हिटलर की राय में प्रोपगंडा आम लोगों पर केंद्रित और उसका बौद्धिक स्तर आम लोगों के रुचि के हिसाब से होना चाहिए, ताकि उनकी कल्पनाओं को गुदगुदाया जा सके। हिटलर मानता था कि आम लोग मानवीय बच्चों की अनिश्चय ग्रस्त भीड़ की तरह होते हैं, उनके लिए संतुलित तर्क कर पाना असंभव होता है। उनकी भावना महज दोधारी होती है यानी वे सिर्फ प्रेम और घृणा, अच्छे और बुरे, सत्य और असत्य के बीच झूलते रहते हैं। हिटलर के हिसाब से प्रोपगंडा का काम आम लोगों को अति सरलीकृत विचारों से संतृप्त करना है, न कि सत्य की खोज करना। हिटलर के 'एनलाइटेनमेन्ट ऐंड प्रोपगंडा के मंत्री जोसेफ गोएबल्स का तूफानी प्रोपगंडा कैम्पेन हिटलर के इन्हीं विचारों पर आधारित था।

नात्सी लोगों का अफवाह पर सर्वाधिक भरोसा इसलिए था कि वे लिखित शब्दों को फालतू मानते थे। उनकी राय में आदमी उन्हीं चीजों को पढ़ता है, जो उनके पहले से बने विचारों को मजबूत करने का काम करती हैं। इसी वजह से नात्सियों का मानना था कि बोले गए शब्द लोगों के विचार को तत्काल बदल सकते हैं। खुद हिटलर लिखित शब्दों को बकवास मानता था, फौरी भाषण ही उसके लिए सब कुछ था। बोले गए शब्द नात्सी लोगों के लिए इतने महत्वपूर्ण थे कि नात्सी पार्टी में एक विशेष सेल का गठन किया गया था, जिसका एकमात्र काम देश के विभिन्न हिस्सों में सक्रिय नात्सी वक्ताओं के लिए 'फौरी सूचनाएं’ आपूर्ति करना होता था। कहने की जरूरत नहीं कि ये सारी जानकारियां मनगढ़ंत होती थीं।

गोएबल्स के प्रोपगंडा का मूल उद्देश्य आम लोगों में हिटलर के प्रति स्वामिभक्ति की भावना पैदा करना और यहूदियों को जर्मन राष्ट्र के घोर 'दुश्मन’ के रूप में पेश करना था। इनमें आधारहीन तथ्यों या अफवाहों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता था। यहूदियों को दुश्मन के रूप में लक्षित करने से गोएबल्स का प्रोपगंडा आश्चर्यजनक ढंग से सफल साबित हुआ था। कुछ लोगों का मानना है कि गोएबल्स की नकल में ही सभी तानाशाह अपने लिए एक दुश्मन की रचना करते हैं। राजनैतिक प्रोपगंडा के संदर्भ में आज दुश्मन का जुगाड़ करना तो सिद्धांत ही बन गया है।

जर्मनी में अफवाह पर चर्चा करते समय 'समन्वय’ का उल्लेख भी जरूरी है। सत्ता के सभी अंगों और स्रोतों को नात्सी नियंत्रण में इस्तेमाल करने की नीति को 'समन्वय’ कहा गया था। यह 'सेपरेशन ऑफ पावर्स’ (सत्ता के विकेंद्रीकरण) के सिद्धांत का ठीक उलटा था। इसी समन्वय के तहत हिटलरी जर्मनी में तमाम अखबारों और सूचनाओं के स्रोतों को नात्सी लोगों के संपादकीय नियंत्रण में ले लिया गया था। लोगों के पास हिटलरी अफवाहों पर आश्रित होने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। जर्मनी के रेस्तरां, बियर हॉल और काफी हाउसों में रेडियो रखना अनिवार्य था। लोगों की बातचीत नात्सी अफवाहों पर ही केंद्रित होती थी।

कई बार तो नात्सी जर्मनी अपनी आश्चर्यजनक, सामरिक तैयारियों के बारे में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाया करता था। इससे आम लोगों के बीच जुनून का माहौल बनता था और दुश्मनों के बीच खलबली मचती थी। खासकर तथाकथित निर्माणाधीन विनाशकारी हथियारों के बारे में विशेष अफवाहें फैलाई जाती थीं। वी-2-रॉकेट इसका एक चर्चित उदाहरण है। इसी तरह, हिटलर के एटम बम की अफवाह भी जोर से फैलाई गई थी।

हिटलरशाही में अफवाहों की चर्चा हो और 20 जुलाई 1944 की घटना का जिक्र न हो तो यह बड़ी बेईमानी कहलाएगी। इसी दिन जर्मन सेना का एक उच्च अधिकारी स्टॉफेनबर्ग ने हिटलर की हत्या की कोशिश की थी ताकि बर्लिन में तख्तापलट हो और जर्मन राष्ट्र को संपूर्ण पराजय से बचाया जा सके। षडयंत्र नाकाम रहा और इसमें लिप्त हजारों लोगों को हिटलर की खुफिया पुलिस गेस्टापो ने मौत के घाट उतार दिया। कहा जाता है कि इस हिटलर विरोधी अभियान की असफलता का कारण अफवाह ही थी। 18 जुलाई को ही गेस्टापो को इन्हीं अफवाहों से तख्तापलट की भनक लग गई थी। इस असफल बगावत के बाद भी लंबे समय तक पूरी जर्मनी में अफवाहों का बाजार गर्म रहा था। एक अफवाह यह भी चली कि फील्ड मार्शल एरविन रोमेल भी षडयंत्र में परोक्ष रूप से शामिल थे। बाद में रोमेल ने आत्महत्या कर ली थी, लेकिन अफवाह थी कि रोमेल ने हिटलर के दबाव में ही अपने को मार लेने का निर्णय लिया था।

तानशाही में अफवाह आम लोगों के लिए भी एक प्रभावी उपकरण होती है। इस मायने में यह दोधारी तलवार होती है। हिटलर और उसके नामी-गिरामी समर्थकों के खिलाफ भी आम लोगों में अफवाहों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता था। हिटलर के बारे में अफवाह थी कि वह सिफलीस की बीमारी से पीड़ित है। हिटलर की गर्लफ्रेन्ड एवा ब्राउन के बारे में भी आए दिन अफवाहें उड़ा करती थीं। जब हिटलर रूस के जोजफ स्टालिन से संबंध बेहतर करना चाह रहा था तो उन दिनों जोरों से अफवाहें चली थीं कि हिटलर गोएबल्स से नाराज है और गोएबल्स का अंत कभी भी हो सकता है।

कहा जाता है कि अफवाह से बच पाना इनसान के लिए असंभव है। 'बुश टेलीग्राफ’, 'ग्रेपवाइन’ जैसे शब्द पुष्ट करते हैं कि अफवाह की परंपरा पुरानी है। हालांकि अफवाह का अधिकतम प्रयोग परंपरागत समाजों में होता है, क्योंकि वहां परस्पर विश्वास और भरोसे लायक सूचनाओं की भयंकर कमी होती है। भारत इसका बिलकुल सही उदाहरण है।

पूरे विश्व में 'पोस्ट ट्रूथ’ के रूप में अफवाह की ही परंपरा दोबारा जोर-शोर से सक्रिय होती जा रही है। विश्लेषक और समाज विज्ञानी चकित हैं कि तथ्य आधारित सूचनाएं क्यों संदेहास्पद हो गई हैं और अप्रामाणिक बातें लोगों को क्यों आकर्षित करती हैं। 'पोस्ट ट्रुथ’ के जरिए ही डोनाल्ड ट्रंप जैसा अजीबो-गरीब शख्स व्हाइट हाउस में पहुंच गया है। यह सब क्यों हो रहा है, अब कोई पहेली नहीं है।

(लेखक जर्मनी की हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी से संबद्ध रहे हैं)

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