यकीनन मौका भी है, मुद्दे भी हैं फिर भी विपक्ष में कोई दमदार आवाज क्यों नहीं उभर पा रही है? आखिर राजनीति में यही तो पक्ष को विपक्ष में बदलने के औजार होते हैं। अभी कुछ डेढ़ साल पहले ही तो केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार खासकर जमीन अधिग्रहण, महंगाई, सीमा पर तनाव और काले धन के बारे में ''जुमलों’’ को लेकर बुरी तरह घिर गई थी। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ''रणनीतिक जादूगरी’’ के बावजूद दिल्ली और बिहार में पार्टी विजय पताका नहीं फहरा पाई थी। उसमें दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का उसका दावा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्यकर्ता आधार और बूथ मैनेजमेंट की बहुप्रचारित रणनीति भी काम नहीं आई।
बेशक, उसके बाद मोदी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी जैसे कदम ही नहीं उठाए, बल्कि यह भी बताने में कामयाब दिखी कि वह गरीब, किसान हितैषी और काले धन तथा भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार करने वाली है। यह अलग बात है कि नोटबंदी से पिछली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गई। इसी तरह सर्जिकल स्ट्राइक से सीमा पर तनाव तो कम नहीं हुआ, न ही किसान फसल बीमा जैसे कार्यक्रमों से किसानों का दर्द कम हुआ, जिसकी मिसालें नासिक और मंदसौर से उभरे किसान आंदोलन के रूप में दिख रही हैं। फिर, नए निवेश के अभाव में रोजगार सृजन भी इस दशक में सबसे निचले स्तर पर है। मोदी के विदेश दौरों से भी अभी तक मार्के का कोई निवेश नहीं आ पाया है, न ही नई उभरती विश्व व्यवस्था में चर्चाओं के अलावा देश की कोई खास अहमियत बन पाई है। सीमा पर पाकिस्तान के साथ ही नहीं, चीन के मोर्चे पर भी हालात गंभीर हुए हैं। देश में कश्मीर ही नहीं, बाकी हिस्सों में भी पीट-पीटकर मार डालने की घटनाएं बढ़ी हैं जिसके अल्पसंख्यक ही नहीं, दलित भी शिकार हो रहे हैं।
लेकिन विपक्ष करीब डेढ़ साल पहले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के ''सूट-बूट की सरकार’’ के आगे कोई लोकप्रिय मुहावरा भी नहीं गढ़ पाया है। मानो हाल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में भारी जीत और मणिपुर, गोवा में जोड़तोड़ कर सरकार बनाने की महारत से भाजपा ने विपक्ष को ऐसी पटखनी दे दी कि उसका मुंह ही नहीं उठ पा रहा है। कांग्रेस तो पंजाब में जीत का जश्न भी नहीं मना पाई। इससे कांग्रेस ही पस्त नहीं हुई, अरविंद केजरीवाल की बोलती भी बंद हो गई। और अब मोदी और भाजपा का हर मोर्चे पर कड़ा विरोध करने वाले केजरीवाल, ममता बनर्जी और लालू यादव सभी सीबीआइ, ईडी के जाल में या प्रदेश में नए उपद्रवों के जंजाल में घिरते दिख रहे हैं। नीतीश एनडीए के दलित उम्मीदवार रामनाथ कोविंद के मामले में अलग खड़े दिखाए दे रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के दिन ही 17 जुलाई को संसद का सत्र भी विपक्षी एकता का खुलासा करेगा।
हालांकि यह भी सही है कि राजनीति में कोई वक्त स्थायी नहीं होता। इसके पहले भी कई भारी बहुमत वाली सरकारों को बीच राह में लड़खड़ाने और कामयाब चुनौती मिलने की नजीरें हैं। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ही नहीं, एनडीए की पहली अटल बिहारी वाजपेयी सरकार तो चुनाव के ऐन पहले तक अजेय लग रही थी लेकिन आखिरी वक्त में ऐसा समां बंधा कि नतीजे विपरीत आ गए। लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि राजनीति में वक्त दोहराया नहीं जाता।
ऐसे में 2019 में मोदी को कहां से और कितनी दमदार चुनौती मिलेगी या कोई चुनौती नहीं मिलेगी? चुनौती दे सकने वाली कुछ कद्दावर शख्सियतों की चर्चा अगले पन्नों में है, जो धुरी बन सकती हैं। लेकिन कुछ ऐसे किरदार भी अहम हैं जिनकी चर्चा किए बिना यह कहानी अधूरी है। इनमें सूत्रधार भी हैं और सूरमा बनने की भी कद-काठी वाले हैं। ऐसी कुछ शख्सियतों पर एक नजर:
शरद यादव: पिछले लोकसभा चुनावों के नतीजे अभी नहीं आए थे तभी शायद तब के जदयू अध्यक्ष शरद यादव को आगे के हालात के आसार दिखने लगे थे। उन्होंने एक चैनल के कार्यक्रम में एक सवाल पर कहा कि मैं दधीचि बनूंगा और फिर से सबको एकजुट करूंगा, ताकि देश के सामने मोदी रूपी चुनौती से निपटा जा सके। उन्होंने विपक्ष को हर मुद्दे पर एकजुट करने और एक नया आक्चयान तैयार करने की हर कोशिश की। बिहार में महागठबंधन से लेकर भूमि अधिग्रहण और तमाम मुद्दों पर कांग्रेस समेत विपक्ष को एकजुट करने में उन्होंने अहम कोशिशें की हैं। अब वे क्या भूमिका निभाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
सीताराम येचुरी: पहली एनडीए सरकार के खिलाफ 2004 में कांग्रेस समेत विपक्ष को एक मंच पर लाने के एक अहम सूत्रधार तब के माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत थे। अब सुरजीत के शिष्य सीताराम येचुरी माकपा महासचिव हैं और विपक्षी एकता के पैरोकार भी हैं। लेकिन तब और अब के हालात बिलकुल विपरीत हैं। ऐसे में वे विपक्षी एकता के कैसे सूत्रधार बनते हैं, यह देखना बाकी है।
शरद पवार: राकांपा नेता भी विपक्ष के कद्दावर शख्सियतों में एक हैं। कभी तो वे महाराष्ट्र और कुछ-कुछ बाकी जगहों पर भी अपनी ताकत रखते थे। लेकिन अब अपने गढ़ महाराष्ट्र में कमजोर होने से उनकी साख कुछ कमजोर पड़ी है। हर पार्टी में रसूख के बल पर वे अहम सूत्रधार हो सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल: आम आदमी पार्टी ने कभी काफी जज्बा पैदा किया था। अन्ना आंदोलन से निकले उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में अप्रत्याशित 67 सीटें जीतकर मोदी के अहम प्रतिद्वंद्वी के नाते अपनी छवि बनाने में भी कामयाब हो गए थे लेकिन हाल में गोवा, पंजाब और दिल्ली नगर निगम चुनावों में पार्टी के बेहद निराशाजनक प्रदर्शन से उनकी हैसियत कुछ कमजोर हुई है। फिर भी वे करिश्माई माने जाते हैं।
इसके अलावा सपा के अखिलेश यादव, बहुजन समाज पार्टी की मायावती बेहद अहम शख्सियतें हैं जिन पर नजरें टिकी रहेंगी। फिर, ओडिशा के नवीन पटनायक और तमिलनाडु में द्रमुक नेता करुणानिधि और उनके बेटे स्टालिन की भी महती भूमिका निभाने की बारी है। जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक में संकट की स्थिति उनके लिए खास अहम हो सकती है। असल में ओडिशा और तमिलनाडु भाजपा की कोरोमंडल योजना के भी केंद्र में हैं, जो उसने उन 125 संसदीय सीटों के बारे में बनाई है, जहां उसका खास अस्तित्व नहीं रहा है। बहरहाल, राजनीति संभावनाओं का खेल है, देखिए आगे-आगे होता है क्या!