'दस्ते वहशत में कभी और दस्ते रफूगर में कभी,
बस तो एक खेल हुआ मेरा गरेबां न हुआ’
जब मैं 30 साल पहले मई-जून 1987 में मेरठ में हुए खौफनाक सांप्रदायिक दंगों की रिपोर्टिंग कर रहा था, उस दौरान खैरनगर के डॉ. जैदी ने ये शेर पढ़ा था जो मुसलमानों की सूरते-हाल के लिए आज भी मौजूं है। आखिर ये सूरते-हाल क्यों बनी है? देश का मुसलमान आज क्यों दहशत के माहौल में जीने के लिए मजबूर है? क्यों उसे लगता है कि वो महफूज नहीं है और कहीं भी उन्मादी भीड़ के हाथों मारा जा सकता है, यहां तक कि अपने घर में भी। क्यों आज गांधी, नेहरू जैसा कोई मसीहा नहीं है जो आग लगाती, बेगुनाह लोगों को मारती उन्मादी भीड़ के बीच जाकर उन्हें डांट-फटकार सके और उन्हें ऐसा करने से रोक सके?
ऐसा नहीं है कि आजाद भारत में कभी सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए। देश में खौफनाक सांप्रदायिक दंगों का एक लंबा इतिहास रहा है मगर ये दंगे एक शहर, एक जिले या एक राज्य तक सीमित हुआ करते थे। लेकिन पिछले तीन वर्षों से देश में खौफ और दहशत का जो माहौल बना है वैसा तो पिछली एनडीए सरकार (1998-2004) के दौरान भी नहीं था जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। आखिर इस देशव्यापी खौफ और दहशत की वजह क्या है?
26 मई 2014 को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शपथ ली और भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का गठन किया तो संघ परिवार के अनुषांगिक संगठनों की ओर से बयान दिए गए कि पृथ्वीराज चौहान के 800 साल बाद दिल्ली के तख्त पर पहली बार हिंदू शासन कायम हुआ है। कुछ लोग तो यहां तक कहने लगे हैं कि 2021 तक भारत को ईसाई और मुसलमानों से मुक्त करना है।
मोदी सरकार का गठन होने के एक सप्ताह बाद ही दो जून 2014 को पुणे में 24 वर्षीय आईटी मैनेजर मोहसिन मुहम्मद सादिक शेख को हिंदू राष्ट्र सेना के कार्यकर्ताओं ने सिर्फ इसलिए दौड़ा-दौड़ाकर मार डाला क्योंकि उसने पठानी सूट पहना हुआ था। 28 सितंबर 2015 को उत्तर प्रदेश में दादरी के निकट बिसेहड़ा गांव के 52 वर्षीय मुहम्मद अखलाक को इस शुबहे के आधार पर पीट-पीटकर मार डाला गया कि उसने अपने घर में गाय का गोश्त रखा हुआ है।
18 मार्च 2016 को झारखंड के लातेहार जिले के बालूमाथ जंगल में 32 साल के मजलूम अंसारी और 15 साल के इम्तियाज खान को इसलिए मारकर पेड़ों पर लटका दिया गया क्योंकि वे आठ बैलों को चतरा जिले के पशु बाजार में बेचने के लिए ले जा रहे थे। 31 मार्च 2017 को हरियाणा की नूह तहसील के जैसिंघपुर गांव के दूध व्यवसायी 55 वर्षीय पहलू खान को जयपुर-दिल्ली राजमार्ग पर उस समय कथित गौ-रक्षकों ने पीट-पीटकर मार डाला जब वह जयपुर से कुछ गायों को दूध के लिए खरीदकर ला रहे थे। 22 जून 2017 को हरियाणा के 15 वर्षीय जुनैद को बल्लभगढ़ के निकट ईएमयू ट्रेन से सफर के दौरान चाकू घोंप कर मार डाला गया।
ये चार घटनाएं इस बात का उदाहरण हैं कि पिछले लगभग तीन वर्षों में बीफ के शक के आधार पर या गायों की कथित रूप से तस्करी के नाम पर स्वयंभू हिंदू गौ-रक्षकों की टोलियां देश भर में जो उत्पात मचा रही हैं उन्हें रोकने के लिए सरकार की ओर से कोई राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाई नहीं दी। उलटे जिन-जिन राज्यों में ये घटनाएं हुईं वहां राज्य सरकारें पीड़ित पक्ष के खिलाफ और दोषियों के बचाव में खड़ी दिखाई दीं। इन वीभत्स घटनाओं पर केंद्र सरकार का रवैया तो खामोश तमाशाई वाला रहा बल्कि पहलू खान के मामले में तो एक केंद्रीय मंत्री ने ये बयान तक दे डाला की ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं जबकि दादरी में एक अन्य केंद्रीय मंत्री ने अखलाक के हत्यारों का महिमामंडन तक किया और उनके घर जाकर आर्थिक रूप से उनकी मदद भी की। ऐसे स्याह अंधेरों में सुप्रीम कोर्ट ने जरूर रोशनी दिखाने का काम किया। उससे और उम्मीद बंधी जब अदालत ने केंद्र सरकार समेत पांच राज्यों राजस्थान, गुजरात, झारखंड, महाराष्ट्र और कर्नाटक को उत्पाती गौ-रक्षकों पर प्रतिबंध लगाने का निर्देश दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश पर अभी तक अमल नहीं हो सका है।
क्या कारण है कि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों का कोई नेता इन घटनाओं के खिलाफ खड़ा नहीं होता। कोई कुछ बोलता क्यों नहीं है? गुजरात हिंसा के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मौजूदा प्रधानमंत्री को, जो उस समय राज्य के मुख्यमंत्री थे, 'राजधर्म’ निभाने की सलाह दी। आज कोई नेता ऐसी सलाह क्यों नहीं देता? आखिर क्यों कहीं से कोई उम्मीद नजर नहीं आती?
1947 में देश का बंटवारा होने और आजादी मिलने के बाद हमारे उस समय के नेताओं ने वादा किया था कि भले ही पाकिस्तान धर्म और नफरत के आधार पर बना लिया गया हो लेकिन हम अपने हिंदुस्तान को मजहब, जात-पात, भाषा और किसी भी तरह के भेदभाव से दूर रखेंगे। हमारा संविधान वही होगा जिसका वादा 90 वर्षों तक चले आंदोलन (1857-1947) के दौरान किया गया था। यानी ये देश एक पंथनिरपेक्ष, समाजवादी, लोकतांत्रिक, गणराज्य होगा और सभी नागरिकों को बराबर के अधिकार होंगे। किसी को इस आधार पर श्रेष्ठता हासिल नहीं होगी कि वह क्या खाता है और क्या नहीं। उसका धर्म या उपासना पद्धति क्या है। अपने देश में महात्मा गांधी से बड़ा गौ-रक्षक शायद कोई दूसरा नहीं हुआ लेकिन इसके लिए उन्होंने हिंसा की वकालत कभी नहीं की और कभी नहीं कहा कि गाय को बचाने के लिए किसी बेगुनाह इंसान की जान लो।
एक ओर जहां देश का आम और गरीब मुसलमान कुछ लोगों की हरकतों की वजह से खौफ और दहशत की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है, वहीं कुछ सिरफिरे धर्मांध मुसलमानों की वजह से पश्चिम बंगाल और देश के कुछ दूसरे हिस्सों में हो रही घटनाएं हिंदू सांप्रदायिकता को मजबूत कर रही हैं। पहले मालदा और अभी हाल ही में बशीरहाट में एक आपत्तिजनक फेसबुक पोस्ट पर मुसलमानों का आपा खो देना और हिंसा पर उतर आना उसका उदाहरण हैं। बशीरहाट में फेसबुक पोस्ट से नाराज मुसलमानों की मांग थी कि पोस्ट जारी करने वाले को गिरफ्तार किया जाए। वह 11वीं क्लास का छात्र बताया जाता है। अब तक किसी को यह नहीं मालूम कि पोस्ट में क्या लिखा गया लेकिन कहा गया कि वह पोस्ट मुसलमानों को चिढ़ाने के ख्याल से ही डाली गई थी।
सच्चाई चाहे जो हो लेकिन मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा को किसी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता। भारत के हर मुसलमान को यह समझना होगा कि उसे किसी भी मुद्दे पर अहिंसक प्रतिरोध के अलावा किसी दूसरे उकसावे से सावधान रहना है। अगर एक फेसबुक पोस्ट पर वे हिंसा करने लगेंगे तो फिर खुदा ही उनकी खैर करे!
इसके अलावा इस देश की महान जनता, सिविल सोसाइटी और जागरूक नागरिकों को भी ये समझना होगा कि यह देश पाकिस्तान बना कर नहीं चलाया जा सकता। यह सिर्फ हिंदुस्तान बनाकर ही चलाया जा सकता है जैसे पिछले एक हजार साल से चलता चला आया है। 70 साल पहले नफरत और मजहब के नाम पर जिस देश का निर्माण किया गया था उसे टूटने में 25 साल भी नहीं लगे। जिन पंजाबी और बंगाली मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के लिए मिलकर आंदोलन किया था वे 25 साल से भी कम समय में एक दूसरे का गला काटने लगे जिसका नतीजा 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के रूप में सामने आया। यहां भी याद रखना होगा कि पाकिस्तान का न तो कोई अलग इतिहास रहा और न ही भूगोल। जबकि भारतवर्ष पिछले पांच हजार साल से एक शाश्वत सच्चाई है। पिछले ढाई हजार सालों में यहां कई धर्मों और संस्कृतियों ने जन्म लिया है जिनमें जैन, बौद्ध और सिख धर्म शामिल हैं। कई अन्य बाहरी धर्मों जैसे पारसी, ईसाइयत और इस्लाम ने यहां परवरिश पाई। तो इस तरह से लगभग एक हजार साल पहले हिंदुस्तान अस्तित्व में आया। अलबरूनी ने अपनी पुस्तक 'किताब-उल-हिंद’ में पहली बार हिंदुस्तान लफ्ज का इस्तेमाल किया है और लिखा है कि यह मुल्क हिंदुस्तान और इसकी जो संस्कृति है वह बहुत महान है। उसके ढाई-तीन सौ साल बाद हजरत अमीर खुसरो पैदा हुए। वे पहले आदमी हैं जिन्होंने 'हिंदवी’ लफ्ज का इस्तेमाल किया जो हिंदी की भी जनक है और उर्दू की भी। तुर्क होने के बावजूद वह बोले, 'मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं’, 'मंतुरा हिंदुस्तानियम’ यानी हिंदुस्तानीयम शब्द अमीर खुसरो ने गढ़ा। जब हम सह-अस्तित्व की बात करते हैं तो मालूम होना चाहिए कि महात्मा गांधी का सह-अस्तित्व का विचार क्या था? उनकी अवधारणा क्या थी? वह तो यही थी जो 1000 साल पहले विभिन्न संस्कृतियों और मजहबों से, एक साझा संस्कृति पैदा हुई। उसे हम प्यार से हिंदुस्तानियत कहते हैं और इस हिंदुस्तान को बनाने में सबका योगदान है।
1857 हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की 'कट ऑफ डेट’ है यानी 'आजादी की पहली लड़ाई’। वह लड़ाई बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में लड़ी गई। 1857 से लेकर 1947 तक जो 90 वर्ष का समय है, इसे हम राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में जानते हैं। मुल्क की आजादी की लड़ाई में यह तय हो गया था कि आजादी के बाद यह मुल्क कैसा होगा और इसका संविधान इसकी विचारधारा क्या होगी और यह देश कैसे चलेगा? यही इस देश को एक रखने की शर्त है।
(लेखक पत्रकार हैं और राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं)