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दक्षिण का ओबीसी दर्शन

तमिलनाडु और केरल में पिछड़े और दलित वर्गों की चेतना ने ही हिंदुत्व की ताकतों को दूर रखा
द्रविड़ आंदोलन के प्रणेता रामास्वामी नायकर पेरियार, कांग्रेस नेता के. कामराज (ऊपर); और सी. आर. अन्नादुरै तथा केरल में माकपा नेता के. आर. गौरी

बंगाल पुनर्जागरण के, जिसे अपनी तरह की पहली परिघटना के कारण भारतीय पुनर्जागरण भी कहा जाता है, लगभग साथ ही केरल में पुनर्जागरण का दौर शुरू हो गया था। यह बंगाल की तरह ध्यान नहीं खींच पाया क्योंकि यह ब्रिटिश भारत से बाहर त्रावणकोर की रियासत में शुरू हुआ था। दोनों आंदोलन समाज के अलग-अलग तबकों में शुरू हुए थे, इसलिए दोनों की विशेषताएं भी अलग-अलग थीं।

बंगाल का आंदोलन अंग्रेजी पढ़े-लिखे और तथाकथित ‘उच्च’ जातियों ने शुरू किया था और मुख्य रूप से समाज के उच्च वर्ग के लोगों तक सीमित था। इसके विपरीत केरल और उसके बाद ही तमिलनाडु में भी इसकी शुरुआत मध्य जातियों के बीच हुई, जिन्हें बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहा गया। केरल के आंदोलन के प्रारंभिक दिनों में दलित भी अग्रणी भूमिका में थे। उनकी सक्रियता के कारण ही यह काफी व्यापक भी बना। इसी आंदोलन के कारण आए बदलावों ने केरल शेष भारत से शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में आगे निकल गया। यही नहीं, यह राज्य 1970 के सामाजिक मापदंडों के अनुसार पश्चिम के विकसित देशों से होड़ लेने लगा। 

केरल पुनर्जागरण की शुरुआत 32 साल के संन्यासी श्रीनारायण ने की थी। उन्होंने एक नदी से एक पत्थर उठाया और उसे शिव की प्रतिमा के रूप में तिरुवनंतपुरम से 25 किलोमीटर दूर अरुविप्पुरम के अस्थायी मंदिर में स्थापित कर दिया। वहां उन्होंने एक पट पर लिखा, ''यह वह आदर्श स्थान है जहां सभी जाति-धर्म के भेदभाव के बिना भाईचारे में बसते हैं।’’ यही लेख पुनर्जागरण के अंतिम लक्ष्य की तरह स्थापित हुआ। यह 1888 की बात है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गठन के दो साल से कुछ अधिक हुए थे और उसका अभी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए पूरी तरह से उभरना बाकी था।

श्रीनारायण ने उस मंदिर की स्थापना इसलिए की थी कि तथाकथित ‘नीची’ जाति के लोग उस हीनभावना से उबर सकें, जो हिंदू मंदिरों में जाने से लगी रोक से उनके पैदा होती थी। इससे फौरन परंपरावादी भड़क उठे। श्रीनारायण, जो पिछड़े ईड़वा समुदाय से आते थे, से पूछा गया कि उन्होंने किस हैसियत से मूर्ति की स्थापना की क्योंकि ऐसा करने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मणों को है। उनका जवाब था कि उन्होंने ‘अपने शिव’ की स्थापना की है। उसके बाद उन्होंने त्रावणकोर ही नहीं, बल्कि केरल के अन्य हिस्सों के अलावा बगल के कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले में भी कई मंदिर स्थापित किए। यह उन्हीं लोगों की मदद से हुआ, जो अपना पूजा स्थल चाहते थे। उन्होंने लोगों को समझाया कि इन मंदिरों के दरवाजे जाति भेदभाव के बिना सभी के लिए खुले रखें।

उन्होंने सिर्फ शिव की मूर्तियों की स्थापना नहीं की। उनमें दक्षिण के प्रसिद्ध देवता सुब्रह्मण्य और देवी की प्रतिमाएं भी शामिल थीं। बाद में स्थापित किए गए मंदिरों में उन्होंने मूर्तियों की जगह आईने लगवाए जिन पर ओम, सत्य और धर्म लिखे रहते थे। ऐसा करने का उद्देश्य यह था कि पूजा करने वालों को उपनिषद के ‘तत्वमसि॑’ और अद्वैत सिद्धांत की सम्म‌िलित जानकारी मिल सके। उन्होंने यह भी कहा कि भविष्य में पूजा स्थलों की जगह शिक्षण संस्थानों की स्थापना की जाए। ऊपरी तौर पर तो लगता है कि श्रीनारायण के प्रयास एम.एन. श्रीनिवास के संस्कृतकरण की अवधारणा जैसा ही था लेकिन उन्होंने जिन देवताओं की स्थापना की, वे पूर्व वैदिक काल के थे।

श्रीनारायण के मंदिर निर्माण से कई लोगों ने यह नतीजा निकाला कि वे हिंदू संन्यासी थे। लेकिन उन्होंने खुद इसका यह कहकर खंडन किया कि दूसरे धर्म को मानने वाले चाहें तो वे उनके लिए भी धर्मस्थल बनाने को तैयार हैं।

महात्मा गांधी ने केरल यात्रा के दौरान उनके साथ काफी लंबी चर्चा की थी। गुरु के वारकला के शिवगिरी में मौजूद रिकॉर्ड के अनुसार यह बातचीत दुभाषिए के जरिए हुई थी। गांधी जी ने पूछा था, ''क्या स्वामी जी अंग्रेजी जानते हैं?’’ श्रीनारायण ने कहा, ''नहीं।’’ उन्होंने जानना चाहा कि क्या गांधी जी संस्कृत जानते हैं, गांधी जी का जवाब था, ''नहीं।’’ उसके बाद गांधी जी ने पूछा क़्या स्वामी जी इस बात को नहीं मानते कि मोक्ष पाने के लिए हिंदू धर्म ही काफी है। यह वह दौर था जब तथाकथित 'नीची’ जाति के लोग छुआछूत से मुक्त‌ित के लिए बड़ी संख्या में इस्लाम या ईसाइयत अपना रहे थे। जबकि गांधी जी ह‌िंदू मान्यताओं में आ रही गिरावट को रोकने के लिए इच्छुक थे। गांधी जी श्रीनारायण के इस जवाब, ''कोई भी धर्म मोक्ष के लिए पर्याप्त है’’ से संतुष्ट नहीं थे। वे अपना सवाल तब तक दोहराते रहे जबतक गुरु ने, ''हिंदू धर्म भी पर्याप्त है’’ नहीं कहा। हाल ही में केरल में गुरु के अंतिम सांस लेने से पूर्व की गई घोषणा 'जाति नहीं’ की शताब्दी मनाई गई है। इसमें उन्होंने कहा था कि जिस जाति और धर्म में उन्होंने जन्म लिया है, वे उससे ऊपर उठ चुके हैं। उसके बाद भी काफी लोग उन्हें एक धार्मिक वर्ग में शामिल करने का प्रयास कर रहे हैं।

उनके अनुयायियों ने 1903 में 'श्रीनारायण धर्म परिपालन योगम’ नाम की संस्था का गठन किया। गुरु इसके अध्यक्ष बनाए गए। उसके चार साल बाद अय्यनकलि ने, जो दलित अधिकारों के लिए संघर्षरत थे, 'साधु जन परिपालन संघम’ की स्थापना की। उसी समय वाक्कम अब्दुल खादर मौलवी नाम के इस्लामी विद्वान भी मुसलमानों के बीच सुधार के लिए काम कर रहे थे। ये सुधारक अंग्रेजी पढ़े नहीं थे, पर शिक्षा के लिए उनके प्रयास ईसाई मिशनरियों से प्रभावित थे।

इन सुधारों से सामंतवादी ताकतें कमजोर होने लगीं तो 'ऊंची’ जाति के लोंगों ने नए हालात से निपटने के लिए अपने समुदाय में भी सुधार के प्रयास शुरू कर दिए।  जब राजनैतिक दलों ने स्वतंत्रता और समता का वचन दिया तब सुधारवादी आंदोलन के कारण सचेत हो चुके शोषित वर्ग के अंदर यह आशा जगी कि समानता का सपना अब पूरा हो सकेगा।

राजनैतिक तौर पर पुनर्जागरण का सबसे अच्छा समय 1957 में तब आया जब राज्य में चुनावों के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। शीघ्र ही कम्युनिस्ट सरकार की भूमि और शिक्षा सुधारों को चुनौती देने के लिए कई जाति और धार्मिक समूह साथ उठ खड़े हुए। कांग्रेस पार्टी के उनके साथ बने गठजोड़ के कारण बची हुई सामंती ताकतों को वापसी का मौका मिल गया। इसके बाद दो दशक तक राज्य उन ताकतों के बीच संघर्ष का गवाह बना जो अलग दिशाओं में ले जाना चाहते थे। 1980 की शुरुआत में परोक्ष रूप से यह सहमति बनी, जिससे सामाजिक न्याय के प्लेटफॉर्म को सबसे ज्यादा क्षति हुई।

केरल का पुनर्जागरण बाद में कांग्रेस के दो ओबीसी नेता सी. केशवन और आर. शंकर के कब्जे में चला गया। ये दोनों राज्य के मुख्यमंत्री भी रहे। माक्सर्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी भी इसमें पीछे नहीं रही। उसने भी शक्त‌िशाली नेता रहीं के.आर. गौरी को एक चुनाव में मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी तक घोषित किया। हालांकि इसके पीछे पार्टी का मकसद जीत के बाद किसी दूसरे को गद्दी सौंपना था। उसके बाद पार्टी दो ओबीसी मुख्यमंत्रियों को हटा चुकी है।

तमिलनाडु में ई.वी. रामास्वामी नायकर सुधार आंदोलन के अग्रदूत रहे हैं। उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन 1919 में कांग्रेस से शुरू किया था, मगर छह साल बाद ही उन्होंने यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि यहां ऊंची जातियों को बढ़ावा दिया जा रहा है। उसके बाद उन्होंने ब्राह्मण विरोधी जस्टिस पार्टी की सदस्यता ग्रहण की। उसका अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने पार्टी का नाम बदलकर द्रविड़ कडगम कर दिया। उनके आत्मस्वाभिमान आंदोलन ने ब्राह्मण पुजारियों को शादी और अन्य समारोहों से बाहर कर दिया। द्रविड़ भावनाओं को मजबूत करने के लिए उन्होंने तमिल भाषा के इस्तेमाल को बढ़ावा देने की बात की। इतना ही नहीं, तमिलनाडु ने हिंदी को देश की एकमात्र सरकारी भाषा बनाने के सभी प्रयासों को रोका।

आजादी के तत्काल बाद उनके कुछ युवा सहयोगियों ने सी.एन. अन्नादुरै के नेतृत्व में पार्टी छोड़ दी। वे रामास्वामी के अपने से काफी छोटी उम्र की ब्राह्मण महिला से विवाह करने से खफा थे। अन्नादुरै ने द्रविड़ मुनेत्र कडगम (द्रमुक) का गठन किया और भाषा, सिनेमा और थिएटर को आधार बनाकर आंदोलन शुरू किया। प्रारंभ में उन्होंने स्वतंत्र द्रविडनाडु की आवाज भी उठाई पर जब उन्हें लगा कि वे राज्य में सत्ता में आ सकते हैं तो इस पृथकतावादी मांग से किनारा कर लिया।

कांग्रेस पार्टी को भी राज्य में द्रविड़ीकरण का सहारा लेना पड़ा और के. कामराज उसके सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। मगर इस कदम को उठाने में देर हो चुकी थी और 1967 में द्रमुक को सत्ता में आने से नहीं रोका जा सका। उसके बाद से द्रमुक और उससे टूट कर अभिनेता से नेता बने एम.जी. रामचंद्रन की पार्टी ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम (एआइएडीएमके) ने बारी-बारी से सत्ता संभाली है।

केरल और तमिलनाडु में पुनर्जागरण में शामिल ओबीसी नेता सत्ता की राजनीति और फायदे की लड़ाई में डूब गए हैं और वे सामाजिक समता का अपना लक्ष्य भूल गए हैं। सौभाग्य से, आंदोलन से मिले कुछ लाभ अभी भी बचे हुए हैं। केरल भारत के मानव विकास सूचकांक टेबल के शीर्ष पर बना हुआ है जबकि तमिलनाडु सामाजिक विकास को हासिल करने के प्रयास में लगा हुआ है। इन दो राज्यों में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की जो स्थिति है वह यह बताती है कि प्रारंभिक सुधारों में जो आदर्श तय किए गए थे, उनमें गिरावट आई है। दलितों ने शिक्षा के क्षेत्र में खासी प्रगति की है पर वे अभी भी सत्ता से दूर हैं। छुआछूत तमिलनाडु के गांवों में मुद्दा है और केरल के कुछ इलाकों में यह बुराई फिर से लौट आई है।

बहरहाल, ओबीसी आंदोलन के असर ने ही इन दोनों राज्यों में पिछले 65 साल से हिंदुत्व की ताकतों को दूर रखा है। लेकिन अपने स्वार्थों में लिप्त नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी को अपनी जमीन तैयार करने का मौका दे दिया है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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