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सेंसर, स्वतंत्रता और सरकार

पहले सरकारें फिल्मों से नाराज होती थीं मगर अब तो सेंसर बोर्ड और खास दर्शक समूह भी राजनैतिक विचारधारा के उग्र पहरुए बन बैठे
कैंची चलाने की बढ़ती ख्वाह‌िशेंः जोधा अकबर, ल‌िप‌स्ट‌िक अंडर माई बुर्का,उड़ता पंजाब, इंदू सरकारक के मामले इसकी ‌म‌िसालें

हाल ही में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ. अमर्त्य सेन पर सुमन घोष निर्मित डॉक्यूमेंट्री द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन से 'गाय’, 'गुजरात’, 'हिंदू भारत’ और 'हिंदुत्व’ शब्द काटने के अटपटे आदेश दिए गए। फिल्म में जहां-जहां ये शब्द थे वहां 'बीप’ की ध्वनि डालने को कहा गया ताकि ये सुनाई न दें। ये उदाहरण सेंसर बोर्ड की वर्तमान नीति का राजनीतिक उद्देश्य बताने के लिए पर्याप्त है। अब फिल्म को श्रेणी का प्रमाण-पत्र देने के अलावा सेंसर बोर्ड का एक और उद्देश्य है, तथाकथित 'उच्च भारतीयता और देश के सांस्कृतिक तथा सामाजिक मूल्यों की रक्षा।’ सेंसर बोर्ड एक बार फिर ऐसे सख्त माता-पिता की भूमिका निभाने लगा है जो सोचते हैं कि उनकी छत्रछाया से निकलने के बाद वयस्क संतान कुछ गालियां और इंटरकोर्स जैसे शब्द सुनकर या प्रगाढ़ आलिंगन और चुंबन (जैसा कि लिपस्टिक अंडर माई बुर्का फिल्म के विरोध में तर्क गढ़े गए थे) देखकर भ्रष्ट हो जाएगी। मैंने 'एक बार फिर’ इसलिए लिखा कि पहले भी ऐसा होता रहा है।

आजकल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह पर कई फिल्में बन रही हैं। संभव है इनके पीछे परोक्ष रूप से सरकारी वरदहस्त हो। नई कड़ी में मधुर भंडारकर की फिल्म इंदु सरकार है। यह फिल्म आपातकाल के दौर पर बनी है। फिल्म के रशेज देखकर कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों ने मोर्चा खोल दिया है। कहा जा रहा है कि यह फिल्म इंदिरा गांधी, संजय गांधी और आपातकाल के दौरान हुई घटनाओं के तथ्यों को गलत तरीके से दिखाकर उन्हें बदनाम करने के लिए बनाई गई है। देखा जाए तो कांग्रेस इस फिल्म का प्रचार ही कर रही है। क्योंकि विवादित होने का मतलब है, बड़े समूह तक फिल्म की पहुंच। कांग्रेस यह नहीं समझ पा रही कि दर्शक यानी जनता हर चीज को अपने नजरिए से देखती है और लंबे समय तक याद नहीं रखती। अगली सुपर हिट आते ही लोग पिछली फिल्म भूल जाते हैं। पिछले दिनों अभिनेता अनुपम खेर सत्ता पक्ष के वाचाल समर्थक के रूप में उभरे। एक फिल्म में वह स्वयं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की भूमिका निभा रहे हैं। कांग्रेस फिल्म के विरोध में भी भीड़ इकट्ठा करे तो कोई अचरज नहीं होगा। हमारे देश और राज्यतंत्र को कभी न कभी तो प्रौढ़ होना ही होगा।

सेंसर का यह रवैया नया नहीं है। पिछले दिनों उड़ता पंजाब फिल्म की वजह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप का मामला आम आदमी के बीच भी चर्चा का विषय बना। सेंसर बोर्ड ने फिल्म के नाम से 'पंजाब’ शब्द निकालने का आदेश दिया। साथ ही फिल्म से कई दृश्य हटाने को कहा। आदेश का पालन न होने तक उसकी रिलीज पर पाबंदी लगा दी गई थी। बोर्ड के अध्यक्ष पहलाज निहलानी ने उस वक्त इसके जो कारण बताए थे वे पूरी तरह राजनैतिक थे। उन्होंने कहा था, 'फिल्म के प्रदर्शन से पंजाब में होने वाले चुनावों में सत्ता पक्ष के विरोध में वातावरण बनेगा।’ उस वक्त पंजाब में विधानसभा चुनाव होने वाले थे। इसका क्या मतलब निकाला जाए कि सेंसर बोर्ड का काम सत्ता पक्ष के हितों की रक्षा करना भी है। सभी जानते हैं कि निहलानी की इस पद पर नियुक्ति राजनैतिक ही है। जैसे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, पुणे में नए अध्यक्ष की नियुक्ति से फिल्म क्षेत्रों में खलबली मची थी वैसी ही आशंकाएं निहलानी की नियुक्ति से उभर कर आई थीं। उड़ता पंजाब में उनके नजरिए ने ये आशंकाएं सही साबित कर दीं। 'ऐसा है या नहीं’ यह दृष्टिकोण का और विवाद का विषय हो सकता है। जो भी हो सचेत फिल्मकारों में व्याप्त यह धारणा निर्मूल नहीं कही जा सकती कि बोर्ड सुनिश्चित एजेंडे के अंतर्गत काम कर रहा है।

आज के दर्शकों को नहीं पता होगा कि तीस के दशक से पहले, हमारी फिल्मों में भी यह सब होता था, ठीक पश्चिम की फिल्मों की तरह। मुझे नाम याद नहीं आ रहा, पर एक फिल्म में रणधीर कपूर की पत्नी और पूर्व अभिनेत्री बबीता के पिता हरि शिवदासानी का आठ मिनट लंबा चुंबन दृश्य था। तब ब्रिटिश जीवन शैली की गलत छाप पड़ने से भारत की जनता को बचाने के लिए इस दृश्य को निकालने के आदेश दिए गए थे। जब मैं 'माधुरी’ का संपादक था तब भी ये पाबंदियां लागू थीं। यहां तक कि महिलाओं का अंग प्रदर्शन निषिद्ध था। मुझे याद है, जवाहरलाल नेहरू की बहन और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की प्रतिनिधि विजयलक्ष्मी पंडित के स्लीवलेस ब्लाउज वाला सीन एक डॉक्यूमेंट्री से काट दिया गया था! तब सेंसर बोर्ड को छूट देने की मांग उठती थी तो बहस चुंबन दिखाने की अनुमति पर अटक कर रह जाती थी। फिल्मों में चुनौतीपूर्ण सामाजिक और राजनैतिक विचार व्यक्त करने की बात इस बेमतलब बहस में खो जाती थी। हमारी फिल्मों में सत्ता के विरोध प्रदर्शन पर निषेध भी ब्रिटिश काल से ही चला आ रहा है। मूक फिल्म विदुर को प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी गई थी।

क्योंकि विदुर को महात्मा गांधी की तरह दिखाया गया था। लिखित सरकारी आदेश था, ''इस फिल्म से देश में विद्रोह और अंग्रेजी राज के विरुद्ध आक्रोश को प्रोत्साहन मिलेगा। अत: इसे दिखाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।’’

इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया था, तब हालात बेहद खराब हो गए थे। फिल्मों की छोड़िए समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं तक पर सेंसर लागू था। स्थानीय पत्र का हर अंक सेंसर से पास कराना पड़ता था, फिल्म पत्रिकाओं को भी। 'माधुरी’ के भी कई अंक इस प्रक्रिया से गुजरे हैं। फिल्म थी आंदोलन। इसकी पृष्ठभूमि स्वतंत्रता संग्राम की थी। लेखक मेरे परिचित उमाशंकर थे। निर्देशक लेख टंडन तो मित्र थे ही। उमाशंकर ने वह फिल्म इंदिरा विरोध को लक्ष्य कर लिखी और बनवाई थी। उनके पीछे कोई बड़ा फाइनेंसर भी था। इस फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति नहीं मिली थी। इसी तरह सुचित्रा सेन की मुख्य भूमिका वाली गुलजार की फिल्म आंधी पर भी रोक लगा दी गई थी। आंधी की शूटिंग शुरू होने से पहले पूरे एक महीने सुचित्रा जी को इंदिरा गांधी की ढेरों डॉक्यूमेंट्रियां दिखाई गई थीं ताकि चाल-ढाल में वह इंदिरा लगें। इस बात का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन उन दिनों चर्चा थी कि विशुद्ध मनोरंजन के लिए फिल्म बनाने वाले उस वक्त के फिल्मकार जे. ओम प्रकाश आंधी के प्रमुख फाइनेंसरों में से एक थे। वह स्वतंत्र पार्टी के संस्थापकों में से भी थे। 

आपातकाल के दौरान ही निर्देशक अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का बनी थी जो इंदिरा गांधी और संजय गांधी पर सीधा व्यंग्य थी। इसमें शबाना आजमी जनता की प्रतिनिधि थीं और अन्य मुख्य भूमिकाओं में उत्पल दत्त,रेहाना सुल्तान, मनोहर सिंह थे। इस फिल्म की रीलें सरकार ने जब्त कर जला दी थीं। आपातकाल समाप्त होने पर यह एक बार फिर बनाई गई। महीनों तक लगातार खबरों में बनी रहने वाली यह फिल्म रिलीज हुई तो दर्शकों ने इसे नकार दिया। फिल्म एक सप्ताह भी नहीं चल पाई। लेकिन तब आज की तरह इस सब के पीछे सेंसर बोर्ड नहीं था। आजकल राजनैतिक आधार पर फिल्मों को रोकने का काम सरकार नहीं करती। अब यह सब अतिसक्रिय सेंसर बोर्ड कर रहा है। तब और अब में एक और अंतर यह है कि तब इंदिरा अपनी सरकार बचाने के लिए ये सब कर रही थीं, आजकल एक विचारधारा के प्रचार के लिए यह सब हो रहा है।

 भीड़तंत्र भी कुछ कम नहीं है

फिल्मों को आसान टारगेट माना जाता है। रिलीज होने के समय तक निर्माता की आर्थिक हालत खस्ता हो चुकी होती है। एक दिन की देरी से सूद-ब्याज के लाखों रुपये उसके सिर चढ़ जाते हैं। वह किसी भी शर्त पर समझौता करने को तैयार हो जाता है। किसी भी जाति, पेशे, धर्म की बदनामी के नाम पर फिल्म के खिलाफ आंदोलन खड़े कर दिए जाते हैं। जैसे शाहरुख खान की बिल्लू बार्बर आई, तो फिल्म के नाम में बार्बर शब्द देख कर चंद शरारती नेताओं ने शोर मचा दिया। सिनेमाघरों पर हमले की धमकियां दी जाने लगीं। रातों-रात निर्माता को फिल्म के थीम सांग तक में से बार्बर शब्द हटाना पड़ा और परदे के पीछे लेन-देन भी हुआ। कई बार इस भीड़ के पीछे राजनैतिक पार्टियां भी होती हैं। जैसे, पाकिस्तानी कलाकारों वाली फिल्मों के खिलाफ उद्धव ठाकरे का फरमान। उस वाकये से सिद्ध हो गया कि महाराष्ट्र में सरकार की कम और भीड़ की ज्यादा चलती है। सरकार को घुटने टेकने पड़े। ऊपरी तौर पर निर्माता ने पांच करोड़ रुपये का चंदा दिया। परदे के पीछे किसने क्या वसूला, यह कोई नहीं जानता। ऐसे ही जब जोधा अकबर फिल्म बन रही थी तो कहा गया कि अकबर की जोधा नाम की कोई राजपूत रानी थी ही नहीं। इसे राजपूतों और हिंदुओं का अपमान बताया गया। फैसला होना था, हुआ भी। सौदे में क्या तय हुआ यह कोई नहीं जानता। गनीमत है कि यह मुद्दा मुगले-आजम के जमाने में नहीं उठा। अभी हाल में संजय लीला भंसाली की निर्माणाधीन फिल्म पद्मावती के सेट जला दिए गए। हिंदुत्व और राजपूत गौरव की रक्षा के नाम पर अज्ञानी भीड़ को भड़काकर हमले करवाए गए। जायसी की पद्मावती और अलाउद्दीन की महान आध्यात्मिक कथा का आभास देती यह फिल्म भंसाली बनाकर ही रहेंगे, पर सिनेमा हॉल में उसका क्या हाल होगा यह समय ही बताएगा।

(लेखक माधुरी पत्रिका के संपादक रहे हैं)

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