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रूमानी बूंदों से भीगा रजत पट

फिल्मों में प्रेम बारिश के रूप में भी बरसता है, भीगी साड़ी और उल्लासित मन दर्शकों को हमेशा बांधे रखने में कामयाब है
किशोर कुमार और मधुबाला

हिंदी फिल्मों के गीत अधिकांशत: रुमानी होते हैं। इस रुमानियत को पर्दे पर अधिक प्रभावी और आकर्षक बनाने के लिए कई बार इसके फिल्मांकन में बारिश के संदर्भ या पृष्ठभूमि का उपयोग कई फिल्मकारों ने किया है। हालांकि राज कपूर ने फिल्म बरसात के ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम’ और आर. के. फिल्म्स के ही बैनर तले निर्मित बूट पॉलिश के राग मल्हार और अडाना पर आधारित ‘लपक झपक तू आ रे बदरवा’ के फिल्मांकन में बारिश की बूंदों को स्थान नहीं दिया। लेकिन सन 1955 में श्री 420 के ‘प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल’ (लता-मन्ना डे) में घनघोर बरसात के शॉट के बीच छतरी के नीचे खड़ी नर्गिस और राजकपूर की जोड़ी का वह दृश्य तो अमर ही हो गया है। शंकर-जयकिशन की शानदार धुन और ऑर्केस्ट्रशन ने बारिश की पृष्ठभूमि में रोमांस की इस नई शैली की तस्वीर को युवाओं की नस-नस की धड़कन बना दिया था।

चौथे दशक में अधिकार (1938) फिल्म में लगभग नगण्य ऑर्केस्ट्रा के साथ तिमिर बरन द्वारा संगीतबद्ध और पंकज मलिक द्वारा गाए गीत ‘बरखा की रात आई मनवा’ को सुनना अविस्मरणीय अनुभूति प्रदान करता है। वैसे पांचवें दशक की बात करें तो मूर्ति (1945) के खुर्शीद, हमीदा और मुकेश के गाए और बुलो. सी. रानी द्वारा राग तिलक कामोद पर संगीतबद्ध ‘बदरिया बरस गई उस पार’ को भी जबर्दस्त लोकप्रियता मिली थी। बरसात, बदरिया और घटाओं को लेकर उन दिनों खूब गीत लिखे जाते थे जो ज्यादातर लीक के ही रुमानी गीत होते थे, पर 1947 की एक फिल्म रॉयल मेल में आजाद फिकरी का लिखा एक ऐसा गीत भी था, जिसके शब्द थे, ‘बरसात की बिजलियों, दुश्मन पे जा गिरो।’

श्री 420 में नरगिस और राजकपूर

छठे दशक में चलती का नाम गाड़ी (1958) का भीगी-भागी मधुबाला और किशोर कुमार पर फिल्माए हेनेसी अर्नी फोड के ‘सिक्सटीन टोन’ से कुछ प्रेरित दादा बर्मन द्वारा संगीतबद्ध ‘एक लड़की भीगी भागी सी’ तो सदाबहार गीत है ही। छठे दशक में बरसात पर आधारित कुछ मशहूर गीतों में सरदार (1955) के ‘बरखा बहार आई बूंदों के हार लाई’ (लता), फागुन (1958) के सोज भरे ‘बरसो रे हाय बैरी बदरवा बरसो रे’ (आशा), चित्रगुप्त द्वारा संगीतबद्ध भाभी (1951) के मेघ मल्हार आधारित ‘कारे-कारे बदरा जा रे जा रे बदरा, मेरी अटरिया न शोर मचा’ (लता), लहराती घटाओं के बैकड्रॉप में काली घटा (1951) के ‘काली घटा घिर आई रे... ओ मधुर मिलन है’ (लता-रफी) जैसे कई गीत याद आते हैं। पर यह तथ्य कम ज्ञात है कि इसी दशक में एक अप्रदर्शित फिल्म ऋतु बिहार के नाम से निर्मित हुई थी जिसमें जमाल सेन ने विभिन्न मौसमों को आधारित कर कई गीत कंपोज किए थे। इन्हीं में आशा भोंसले के स्वर में वर्षा आधारित गीत ‘अरेरेरे चले बुंदन के तीर, भींजे भींजे रे शरीर’  जैसा सुंदर गीत भी था। फिल्म बरसात की रात (1960) के साहिर के लिखे, रोशन द्वारा यमन कल्याण की छाया लेकर संगीतबद्ध और रफी के गाए ‘जिंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात’  जैसे गीत को भला कौन भूल सकता है। यहां फिल्मांकन भले ही रेडियो स्टेशन से गाते नायक का है, लेकिन याददाश्त में पूरी तरह बरसात की एक रुमानी रात है जहां नायिका का अपनी जुल्फों से पानी झटकना और आंचल निचोड़ने जैसी भंगिमाओं को साहिर ने लफ्जों की बेमिसाल अभिव्यक्ति दी है। इसी फिल्म में मल्हार पर आधारित संतूर और जलतरंग के साथ ‘गरजत बरसत सावन आयो रे’ (सुमन-कमल बारोट) भी एक यादगार गीत है। दरअसल यही धुन रोशन का ही संगीतबद्ध फिल्म मल्हार (1951) में लता के स्वर में ‘गरजत बरसत भीजत आइलो’ में प्रयुक्त हुई थी। बरसात के गीतों में सलिल चौधरी द्वारा परख के लिए संगीतबद्ध ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ का अपना अलग स्थान है जिसकी धुन की प्रेरणा सलिल को गाड़ी के वाइपर्स की ध्वनि से मिली थी। जिसे सन 1967 में लता ने अपने सर्वश्रेष्ठ 10 गीतों में स्थान दिया था। बिमल रॉय की प्रेमपत्र (1962) में घनघोर घटाओं और हवाओं की पृष्ठभूमि में शशि कपूर और साधना पर फिल्माए गुलजार लिखित और सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध ‘सावन की रातों’ एक अलग ही शैली का गीत था जिसमें बिंबात्मक शब्दों को मल्हार में सितार के बेहद दिलकश टुकड़ों के साथ सलिल ने लाजवाब तरीके से कंपोज किया था। यह सलिल के लिए लिखा गुलजार का पहला गीत था। सितार के ऐसे ही हसीन टुकड़े दिल दिया दर्द लिया (1966) के राग सारंग पर आधारित नौशाद द्वारा कंपोज ‘सावन आए या न आए, जिया जब झूमे सावन है’ में भी मिलते हैं हालांकि यहां सावन भौतिक रूप में मौजूद न होकर भावनाओं के उल्लास का प्रतीक बन कर आया है। ऐसा ही कुछ मिलन (1967) के मशहूर गीत ‘सावन का महीना पवन करे सोर’ (मुकेश-लता), बंधन (1969) के ‘बिना बदरा बिजुरिया कैसे चमके’ (मुकेश, साथी) की लोक धुन और आया सावन झूम के (1969) के शीर्षक गीत आदि में भी द्रष्टव्य है।

 

यह भी रेखांकित करने योग्य है कि फिल्मी गीतों में, सावन, बदरा, बरसात कई बार कुछ खास अनुभूतियों और भावनाओं के मेटाफर के तौर पर ही आते हैं। यही बात राग मालकौंस पर आधारित मेहरबान (1967) के आशा के गाए, राजेंद्र कृष्ण के लिखे और रवि द्वारा संगीतबद्ध ‘सावन की रात कारी कारी, जियरा सताए मोरे पियरा न आए’, राजेंद्र कृष्ण के ही लिखे और मदन मोहन द्वारा संगीतबद्ध शराबी (1963) के देव आनंद पर फिल्माए ‘सावन के महीने में, एक आग सी सीने में’, गुलजार के लिखे और हेमंत के गाए और संगीतबद्ध बीवी और मकान (1966) के ‘सावन में बरखा सताए, पल-पल छिन-छिन बरसे’, सांझ और सवेरा (1964) के सिंधु भैरवी आधारित ‘अजहुं न आए बालमा सावन बीता जाए’ (रफी- सुमन) के बारे में कही जा सकती है।

 

वहीं दूसरी ओर बादलों या वर्षा का प्रत्यक्ष फिल्मांकन और इसके द्वारा भावना को तीव्र करने का प्रयास हमें फिल्म संपूर्ण रामायण (1961) के लता के स्वर में वसंत देसाई की कर्णप्रिय रचना ‘बादलो बरसा नयन की कोर से’, आशीर्वाद (1968) के वसंत देसाई का ही संगीतबद्ध राग गौड़ मल्हार पर आधारित ‘घिर-घिर बरसे सावन अंखियां, सांवरिया घर आ’ (लता) और पुन: वसंत देसाई की ही सूरदासी मल्हार में राम राज्य (1967) की कंपोजीशन ‘डर लागे गरजे बिजुरिया’ जैसे गीतों में नजर आता है। दरअसल, वसंत देसाई ने जितना राग मल्हार के विविध रंगों का विपुल प्रयोग किया है, कम ही संगीतकारों ने किया है। फॉरेस्ट जड के प्रसिद्ध वृत्तचित्र मानसून में भी संगीत देने के लिए शायद इसीलिए वसंत देसाई को चुना गया था। मल्हार आधारित वसंत देसाई का सबसे सुंदर गीत वैसे मैं मानूंगा, उनकी दर्दनाक मृत्यु के बाद प्रदर्शित शक (1976) के जयंती मल्हार आधारित और गुलजार लिखित ‘मेहा बरसने लगा है आज की रात, आज की रात मेहा बरसने दो’ (आशा भोंसले) को जो पारंपरिक छंद विधान से अलग से जाकर एक बहुत ही खूबसूरत कवितामय रचना है।

इसी संदर्भ में याद आता है फिल्म सबक (1973) का उषा खन्ना का संगीतबद्ध और अपने जमाने का मुकेश का लोकप्रिय गीत ‘बरखा रानी जरा जम के बरसो, मेरा दिलबर जा न पाए, झूम कर बरसो।’ लता के स्वर में राहुल देव बर्मन द्वारा संगीतबद्ध मंजिल (1979) के ‘रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन’ का हलका-सा रवींद्र और शास्त्रीय संगीत का पुट, अमिताभ बच्चन और मौसमी चटर्जी का तेज बारिश के बीच मरीन ड्राइव और ओवल मैदान के बीच एक मध्यवर्गीय रुमानियत के साथ हाथ पकड़ कर चलना तो आज तक आकर्षित करता है। इसी गीत को किशोर कुमार ने भी गाया है (पर इसका फिल्मांकन एक महफिल के अंदर है, बारिश की पृष्ठभूमि में नहीं) और अपनी विशेष भाव प्रवणता के कारण यह गीत लता के गाए गीत की अपेक्षा कहीं अधिक मशहूर रहा। मंजिल का यह गीत तो सबको याद है लेकिन हम भूल गए हैं। मान जाइए (1972) का जयदेव द्वारा संगीतबद्ध और रेहाना सुल्तान और राकेश पांडे पर बादलों के लांग शॉट के साथ लता के उस बेजोड़ गीत ‘बदरा छाए रे कारे कारे कजरारे, ओ मितवा अंग लगा जा रे’ को। शास्त्रीय संगीत की छाया लिए ऐसी अद्भुत ऑफ बीट धुन का सृजन जयदेव ही कर सकते थे। बादलों के ऐसे ही शॉट के साथ शर्मीली (1971) के दादा बर्मन द्वारा स्वरबद्ध और लता के गाए तथा राखी पर फिल्माए राग पटदीप आधारित ‘मेघा छाए आधी रात बैरन बन गई निंदिया’ की धुन आज भी रोमांचित करती है। वहीं राहुल देव बर्मन अजनबी (1974) के राजेश खन्ना और जीनत अमान पर बारिश की फुहारों के बीच फिल्माए ‘भीगी-भीगी रातों में मीठी-मीठी बातों में, ऐसी बरसातों में कैसा लगता है’ और जैसे को तैसा (1973) के जीतेंद्र, रीना रॉय पर फिल्माए ‘अब के सावन में जी डरे, रिमझिम तन पे पानी गिरे’ आधुनिक ऑर्केस्ट्रेशन के साथ बेहद कर्णप्रिय गीत है। अपनी अंतिम फिल्म 1942-ए लव स्टोरी के ‘रिमझिम रिमझिम रुमझुम रुमझुम’ में बारिश की हलकी थपक के साथ आर.डी. अपने आठवें दशक के मोहक दौर की याद ताजा करते हैं। दूसरी तरफ लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की रिद्म आधारित लाक्षणिक शैली के साथ आए राग कलावती का सुर लिए ‘ओ घटा सांवरी’ अभिनेत्री, (1970), ‘पानी रे पानी तेरा रंग कैसा’, शोर, (1972) और उत्तेजक फिल्मांकन के साथ ‘हाय हाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी’, रोटी, कपड़ा और मकान (1974) जैसे बरसात के गीत भी सदाबहार बन गए हैं।

 

आठवें दशक की फिल्मों में जहां एक तरफ पहेली (1977) में रवींद्र संगीत का सुर लिए और वायलिन से जल का प्रभाव उत्पन्न करते ‘सोना करे झिलमिल झिलमिल’ और मधुर धुन के साथ इस बार सितार से पानी का प्रभाव लेकर आए ‘तन भीजे मन भीजे’ जैसे रवींद्र जैन के द्वारा संगीतबद्ध सुंदर गीत याद आते हैं और दिलराज कौर के स्वर में जय कुमार पार्टे की संगीतबद्ध जान हाजिर है (1975) की बिलावल आधारित गहन उदासी की सृष्टि करता ‘सावन आया बादल आए, मेरे पिया नाहीं आए’ आज भी रोमांचित करता है, वहीं दूसरी ओर उत्तर प्रदेश की पारंपरिक कजरी को लेकर वनराज भाटिया द्वारा सृजित जुनून (1978) का ‘घिर आई कारी घटा मतवारी’ तो अपनी सुंदर धुन और झूला झूलती युवतियों के ऊपर सटीक फिल्मांकन के कारण हिंदी फिल्मों में कजरी के बेमिसाल प्रयोग के रूप में स्थापित है।

पिछले तीन दशकों के फिल्म संगीत में भी बरसात को लेकर गीतों का फिल्मांकन चलता ही रहा है और भूमंडलीकरण के इस दौर में भी प्रेमी-प्रेमिका के रोमांस का वह पुराना बरसाती मुहावरा लगातार हिट भी होता रहा है। पर्दे पर अभिनीत भंगिमाएं अवश्य अधिक बोल्ड और खुली होती गई हैं। फिल्म मिस्टर इंडिया के ‘काटे नहीं कटते ये दिन ये रात’, बेताब का ‘बादल यूं गरजता है, नमक हलाल के ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो’, मोहरा के ‘टिप टिप बरसा पानी’, दिल तो पागल है का ‘कोई लड़का है’, हम तुम के ‘सांसों को सांसों में ढलने दो जरा’, सत्या के ‘गीला गीला पानी’, सरफरोश के ‘जो हाल दिल का इधर हो रहा है’, फना का ‘ये साजिश है बूंदों की’, गुरु का ‘बरसो रे मेघा’, आस्था का ‘तन पे लगती कांच की बूंदें’, दृष्टि का ‘मेहा झर झर बरसत रे’ जैसे कई गीत जहन में आते हैं जिनमें अंतिम दोनों तो बड़ी स्तरीय रचनाएं हैं। पर अगर फिल्मांकन और गीत दोनों को कसौटी पर रख कर एक गीत चुनना हो तो मैं 1971 के अनुभव फिल्म का ‘मेरी जां मुझे जां न कहो मेरी जां’ को चुनूंगा। कमरे की खिड़कियों के कांच पर आती बारिश की बूंदों का श्वेत-श्याम खेल, कमरे के अंदर तनुजा और संजीव कुमार की रुमानी किंतु संयत अभिव्यक्ति, गीता दत्त की विशिष्ट आवाज और कनु राय का सूक्ष्म अनुभूमियों को व्यक्त करता संगीत सभी एक ऐसा गीत बनाते हैं जहां बारिश भी मानो एक उच्च मध्यवर्गीय प्रबुद्ध घर में पति-पत्नी के रिश्ते की बारीकियों के परिवेश में बड़े व्यक्तिगत ढंग से दस्तक दे रही हो।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

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