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परंपरा का बोझ ढोते प्रेमचंद

साहित्य जगत ने परंपरा का बोझ अकेले प्रेमचंद पर लाद कर उनके समकालीनों के साथ किया अन्याय
मुंशी प्रेमचंद ( 31 जुलाई 1880 - 8 अक्टूबर 1936)

हर साल 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती मनाई जाती है और प्रेमचंद की परंपरा का जिक्र किया जाता है। नि:संदेह प्रेमचंद राष्ट्रीय आंदोलन के लेखकों में उतने ही बड़े प्रतीक हैं जैसे आजादी की लड़ाई में गांधी। लेकिन गांधी के साथ जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह आदि को भी याद किया जाता है। लेकिन हिंदी साहित्य अलग है। यहां प्रेमचंद की परंपरा की चर्चा तो होती है लेकिन उनके समकालीनों का जिक्र अमूमन नहीं होता। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि प्रेमचंद के साहित्य का जितना प्रचार-प्रसार हुआ उतना उनके समकालीनों का नहीं हुआ। प्रेमचंद के समकालीनों का साहित्य भी सहज उपलब्ध नहीं रहा। साहित्यिक संस्थानों, प्रतिष्ठानों ने अन्य लेखकों पर ध्यान नहीं दिया।

प्रेमचंद के समकालीन लेखकों जयशंकर प्रसाद, राजा राधिकारमण प्रसाद, सुदर्शन, कौशिक जी, शिवपूजन सहाय, राहुल सांकृत्यायन, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का नाम तो हुआ लेकिन प्रेमचंद जैसी ख्याति नहीं मिली। हिंदी आलोचना ने राजा राधिकारमण की कहानी ‘कानों में कंगना’, शिवपूजन सहाय की ‘कहानी का प्लॉट’, प्रसाद की ‘गुंडा’ या ‘आकाशदीप’ को खारिज कर दिया। उग्र का तो मूल्यांकन ही नहीं हुआ और कौशिक जी और सुदर्शन की कई रचनाएं सहज रूप से उपलब्ध ही नहीं हो सकीं। इन लेखकों पर ज्यादा शोध कार्य भी नहीं हुए।

इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि प्रेमचंद के साहित्य ने भारतीय जनता के मर्म को जिस तरह छुआ, उस तरह से शायद अन्य लेखक न छू पाए हों। जब भी प्रेमचंद की परंपरा की बात उठती है तो सबसे बड़ा सवाल होना चाहिए, क्या प्रेमचंद की परंपरा को केवल प्रेमचंद ने ही बनाया था?

क्या उस परंपरा को बनाने में उनके समकालीनों का कोई योगदान नहीं था? प्रेमचंद के यथार्थवाद को विकसित करने में उनके समकालीनों ने कोई भूमिका निभाई थी या नहीं? अगर ऐसा नहीं था तो हिंदी साहित्य में प्रेमचंद की तुलना में उनके समकालीन लेखकों के योगदान की चर्चा न के बराबर क्यों सुनाई पड़ती है। उनमें से अधिकांश या तो विस्मृत हैं या उपेक्षित या अलक्षित। उनमें से कई लेखकों की रचनाएं तो आज मिलती ही नहीं।

प्रेमचंद के समकालीनों में से कुछ की जन्मशतियां जब मनाई गईं तब हिंदी समाज का थोड़ा बहुत ध्यान उनकी ओर गया। कम लोग जानते हैं कि प्रेमचंद की परंपरा को बनाने में उनके समकालीनों के अलावा उनके पूर्ववर्ती लेखकों का भी योगदान है। दरअसल, हम परंपरा निर्माण का श्रेय व्यक्ति-विशेष को दे देते हैं और निर्माण की उस प्रक्रिया में अन्य लोगों के योगदान को भूल जाते हैं।

राष्ट्रीय आंदोलन में भी कई लोगों का योगदान रहा, पर चर्चा कुछ लोगों की ही होती है। उसी तरह उस दौर के लेखन में भी अन्य लेखकों का योगदान रहा लेकिन हिंदी के अकादमिक जगत और लेखक संगठनों ने अपनी संकीर्णता का परिचय देते हुए उन पर पर्याप्त चर्चा तक नहीं की।

परंपरा एक व्यापक शब्द है। इसमें सभ्यता, संस्कृति, इतिहास सब शामिल है। परंपरा कभी भी किसी एक विचारधारा, एक संस्कृति या एक भाषा से नहीं बनती। विशेषकर भारत में जहां इतनी भाषाएं और संस्कृतियां हैं। जाहिर है प्रेमचंद की परंपरा भी अकेली नहीं है। प्रेमचंद की परंपरा को केवल वाम विचारधारा तक महदूद रखने की कोशिश हुई। साथ ही प्रेमचंद का मार्क्सवादी संस्करण तथा प्रसाद का दक्षिणपंथी संस्करण बनाने की भी कोशिश हुई। हिंदी में दूसरी परंपरा का भी इतिहास रहा है। अगर प्रेमचंद इस दूसरी परंपरा के प्रतीकपुरुष हैं तो उस परंपरा में उनके समकालीन और पूर्ववर्ती सभी शामिल हैं, चाहे वे भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ही क्यों न हों। प्रेमचंद की परंपरा पर विचार करते हुए इन सभी पहलुओं पर ध्यान देना होगा। अन्यथा हम प्रेमचंद की संकीर्ण मूर्ति बनाएंगे। जिन सवालों के लिए प्रेमचंद और उनके समकालीन लड़े वह कमजोर हो जाएंगे। राष्ट्रीय आंदोलन में भी उन सभी लेखकों ने मिलकर लड़ाई लड़ी थी, इसलिए प्रेमचंद की परंपरा सामूहिक परंपरा है जिसमें उस दौर का श्रेष्ठ साहित्य शामिल है।

हिंदी में प्रेमचंद की परंपरा और विरासत को हड़पने और छीनने के प्रयास भी हुए। राजेंद्र यादव ने ‘हंस’ पत्रिका का दोबारा प्रकाशन प्रारंभ कर खुद को प्रेमचंद की परंपरा का असली उत्तराधिकारी साबित करने की कोशिश की। गुलशेर खां ‘शानी’ ने भी श्रीपत राय की पत्रिका ‘कहानी’ का संपादक बन कर राजेंद्र यादव से प्रेमचंद को छीनने की कोशिश की पर वह सफल नहीं हुए। इसका कारण ‘कहानी’ पत्रिका का जल्द बंद होना भी था।

प्रेमचंद पर शोध करने वाले कमल किशोर गोयनका भी आजीवन प्रेमचंद की गैर वाम छवि बनाने में लगे रहे और दक्षिणपंथी लेखक प्रेमचंद को अपने खेमे में घसीटने का प्रयास करते रहे। लेकिन प्रेमचंद के लेखन में हिंदू और मुस्लिम सांप्रदायिकता दोनों पर करारा प्रहार है। उनमें गांधीवादी नैतिकता, प्रगतिशील जीवन-मूल्य तथा आदर्शवाद सभी कुछ है। इसके अलावा राष्ट्रीय चेतना भी है। दरअसल, प्रेमचंद जिस परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह व्यापक और उदार है।

प्रगतिशील लेखक संघ दावा करता रहा कि प्रेमचंद की परंपरा का असली उत्तराधिकारी और उनकी परंपरा का वाहक वही है। प्रेमचंद रूसी क्रांति से प्रभावित थे और उन्होंने 1917 की क्रांति पर (जिसके इस साल सौ वर्ष हुए हैं) ‘हंस’ में संपादकीय भी लिखा था।

प्रेमचंद प्रगतिशील होते हुए भी राहुल सांकृत्यायन की तरह कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं थे। यह अलग बात है कि राहुल जी भाषा के सवाल पर पार्टी से निकाल दिए गए थे और बाद में वह दोबारा पार्टी में शामिल भी हुए। प्रेमचंद- राधा मोहन, गोकुल और सत्यभक्त की तरह कम्युनिस्ट नहीं थे लेकिन हिंदी के वामपंथी लेखक प्रेमचंद को वाम लेखक के रूप में ही निरूपित करते रहे और उसी रूप में उनकी परंपरा की चर्चा करते रहे।

(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार है)

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