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‘पॉलिटिकल इकोनॉमी है भ्रष्टाचार की असली जड़’

इंटरव्यू
एन. राम

एन. राम पहले द हिंदू अखबार के प्रधान संपादक के तौर पर और अब हिंदू प्रकाशन समूह के चेयरमैन के रूप में,  चर्चित चेहरा रहे हैं। बतौर डिप्टी एडिटर उनके नेतृत्व में बोफोर्स घोटाले की पड़ताल जैसी साहसिकता और बारीक खोजबीन का परिचय दिया गया,  जो देश में खोजी पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम मोड़ साबित हुआ। इस दो-टूक रवैये से उन्हें देश में राजनैतिक भ्रष्टाचार को परत-दर-परत खोलने का खास नजरिया हासिल हुआ। उनकी किताब व्हाइ स्कैम्स आर हियर टू स्टे-अंडरस्टैंडिंग पॉलिटिकल करप्शन इन इंडिया हमारे सामने है। जिस दशक में एक से बढ़कर एक घोटालों से देश सन्न रह गया हो,  यह किताब ‘भारत में भ्रष्टाचार रूपी दानव’ को समझने की एक कोशिश है। एन. राम ने जी.सी. शेखर से अपनी किताब और भ्रष्टाचार के खात्मे के विभिन्न उपायों पर विस्तार से बातचीत की। कुछ अंश:

 

भारत में राजनैतिक भ्रष्टाचार से हम सभी वाकिफ हैं। क्या इससे पूरी तरह छुटकारा पाया जा सकता है?

मौजूदा राजनैतिक अर्थव्यवस्था के स्वरूप में आमूलचूल बदलाव और उसे पूरी तरह दुरुस्त किए बिना भ्रष्टाचार का इलाज संभव नहीं है। आप इससे पीछा नहीं छुड़ा सकते। लेकिन इसके खात्मे के लिए आप किसी क्रांति के होने का इंतजार भी नहीं कर सकते। यह ऐसी चुनौती है जिससे फौरन निबटना होगा। हम ऐसे हालात में हैं जहां पूरी व्यवस्था भ्रष्ट हो चुकी है। नीतियां हाइजैक कर ली जाती हैं। नौकरशाह,  नेता भी इसमें लिप्त हैं। 2 जी घोटाला इसका जीता-जागता उदाहरण है। मेरी राय में बोफोर्स घोटाले से देश में बड़े घोटालों की तासीर का पता चलता है, ऐसा इसलिए नहीं कि इसमें दलाली के रूप में कथित तौर पर 64 करोड़ रुपये दिए गए थे, बल्कि इसलिए कि नीतियों में फेरबदल किया गया था। शुरू में फ्रांस की तोप का चयन किया गया था,  लेकिन उसे दरकिनार कर दिया गया। सरकार की लीपापोती,  संकट प्रबंधन वगैरह के चलते रक्षा खरीद पूरी तरह ठप हो गई। हमें उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्होंने इसके लिए हमको (द हिंदू) दोषी ठहराने की कोशिश की, लेकिन इसके लिए व्यवस्था ही दोषी है। 

क्या राजीव गांधी की सरकार की ओर से पड़ताल धीमी करने या खबरें न छापने का दबाव था?  क्या मानहानि विरोधी कानून बोफोर्स घोटाले के पर्दाफाश के जवाब में ही लाया गया था?

बहुत बाद में एक मौके पर दबाव आया था। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी क्योंकि बहुत सारे तथ्यों का खुलासा हो चुका था। मीडिया ने 1988 के मानहानि विरोधी विधेयक के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी थी। लेकिन अब उस तरह की एकजुटता,  साहस और लामबंदी नजर नहीं आती।

बोफोर्स पर आपको आंतरिक दबाव का भी सामना करना पड़ा। आप और आपके संपादक कस्तूरी के बीच इस पर मतभेद उभरे। आपने दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की और आरोप लगाया कि आप पर दबाव डाला जा रहा है। अखबार के कर्मचारियों ने एक दिन काम रोक कर आप दोनों से मतभेदों को सुलझाने का अनुरोध किया था। आपने किस तरह उसे सुलझाया?

उन्होंने इसे वैचारिक मतभेद के रूप में लिया। उनका समर्थन करने वाले भी थे। इस घटनाक्रम के बाद उन्होंने संपादक पद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन मेरे उनके साथ मधुर संबंध बने रहे। वे मेरे चाचा थे। हां,  कुछ समय के लिए हम दोनों के बीच कड़वाहट पैदा हो गई थी,  लेकिन जल्द ही सब कुछ सामान्य हो गया। अगर आप किसी की मंशा पर सवाल नहीं उठाते हैं तो हल आसानी से निकल आता है।

बोफोर्स घोटाले के दौर से आज ऐसा नहीं लगता कि अदालतों से बड़ी संख्या में नेता दोषी ठहराए जा रहे हैं और जेल जा रहे हैं? ओमप्रकाश चौटाला,  लालू प्रसाद यादव,  छगन भुजबल,  जयललिता जैसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं।

एक हद तक यह भ्रष्टाचार में बढ़ोतरी की वजह से है। कुछ अदालत में पकड़ लिए जाते हैं। यह लोगों के नजरिए में आए बदलाव का भी असर है। पहले शीर्ष नेताओं को जांच-पड़ताल और मुकदमे से छूट मिली हुई थी,  अब यह छूट ढीली हुई है। लेकिन मैं चुनाव आयोग के इस तर्क से सहमत नहीं हूं कि किसी के खिलाफ आरोपपत्र दायर हो जाता है तो उसे चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए। कोई फर्जी मुकदमे भी दायर करा सकता है।

आय से अधिक संपत्ति के मामले में जयललिता के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो आपने कहा था, ‘‘देश में एक और भारी भ्रष्ट नेता के पैदा होने का खतरा टल गया,  आखिर वी.के. शशिकला तमिलनाडु की मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाली थीं।’’ फिर भी,  जयललिता के निधन के बाद शशिकला से (13 दिसंबर को) मिलने वाले आप पहले वरिष्ठ पत्रकार थे।

मिलने में कोई समस्या नहीं है। पत्रकारों ने शशिकला से मिलने की बहुत कोशिशें की होंगी। मुझे एक संदेश मिला कि वे मुझसे मिलना चाहती हैं। मैं फौरन तैयार हो गया। मैंने उनसे हर वह सवाल पूछा,  जो पूछ सकता था। मसलन,  पार्टी से उनके निकाले जाने की वजह क्या थी और क्या वे पार्टी में कोई पद चाहती थीं। वे चुप रहीं। उन्होंने बताया कि जयललिता घर की चारदिवारी में किसी बच्चे की तरह होती थीं, लेकिन घर के बाहर कदम रखते ही वह भरपूर दमखम वाली मुख्यमंत्री बन जाती थीं। पत्रकारों को किसी से भी मिलने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। हमें प्रभाकरन जैसे हत्यारों से भी मिलना पड़ता है। शशिकला के साथ कोई गुपचुप या सलाह-मशविरा जैसी बात नहीं हुई।

आपकी किताब में राडिया टेप के खुलासे के आधार पर नेताओं, उद्योगपतियों और पत्रकारों के बीच नाजायज मिलीभगत का भी हल्का जिक्र है। आपको लगता है कि व्यवस्था में पत्रकारों की पहुंच जरूरत से ज्यादा हो गई है?

हां,  उन्हें इससे बाहर आना चाहिए। अगर आप व्यवस्था से गहरे तक जुड़े हुए हैं,  तब भी आपको अपने निजी संबंधों को अपनी लेखनी से अलग रखना चाहिए। वाल्टर लिपमैन इसे यारबाजी कहा करते थे। वे सभी राष्ट्रपतियों को जानते थे,  लेकिन कहते थे कि आपको सभी से एक दूरी बनाकर रखनी चाहिए। मेरा भी राजीव गांधी,  जयवर्धने और यहां तक कि लिट्टे वालों के साथ संबंधों का अनुभव रहा है। जब आप किसी से गहरे परिचित हों तो उसके बारे में तल्ख विचार व्यक्त करना आसान नहीं होता है। मैं करुणानिधि को लंबे अरसे से जानता हूं,  लेकिन हम जो लिखते हैं उससे वे हमेशा खुश ही होते हों,  ऐसा नहीं होता।

क्यों ‘हिंदू’ ने अपने यहां उसे रखा था,  जिसका राडिया टेप में जिक्र था?

जब सिद्धार्थ (वरदराजन) ने छोड़ा था,  तब वे (एम.के. वेणु) भी चले गए थे। मैं उनके प्रति कठोर नहीं हो पाया। मैंने वह टिप्पणी बरखा दत्त के खिलाफ की थी,  जिसके चलते उसने मुझसे कुछ समय तक बात नहीं की। वेणु के मामले में किसी तरह का भ्रष्टाचार नजर नहीं आता। लेकिन हम हालात के बारे में नहीं जानते। राडिया टेप में वे या तो ऐसा कर रहे हैं या महज करने का नाटक कर रहे हैं। जैसे,  ‘हम आपको फलां विभाग दिलवा देंगे...वगैरह,  वगैरह।’ लगभग 10 वर्ष पहले चो रामास्वामी ने मुझसे कहा कि हम रजनीकांत से मिलते हैं। रजनीकांत को राजनीति के लिए बेहतर व्यक्ति बताते हुए उन्होंने उन्हें राजनीति में आने के लिए मनाने में मेरी मदद भी मांगी थी। तब भी रजनीकांत का वही जवाब था,  जो उन्होंने अब दिया है कि जब उनकी अंतर-आत्मा कहेगी,  वे राजनीति में आ जाएंगे। मैंने उन्हें राजी करने की कोशिश नहीं की। व्यक्ति के विचारों का आपको सम्मान करना चाहिए,  उससे आपको सीखना चाहिए। राडिया टेप में बात इससे बहुत आगे की थी। वे लोग गलत नजर आए थे। सिद्धार्थ ही वेणु को लेकर आए थे और जब वह गए तब वेणु भी चले गए। पहले सिद्धार्थ के साथ मेरा मतभेद था, अब बहुत बेहतर संबंध हैं। ‘द वायर’ में वह बहुत बढ़िया काम कर रहा है। यहां ऐसा नहीं हो पाता।

‘हिंदू’ खासकर पी साईंनाथ,  ने महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में पेड न्यूज के संबंध में बहुत कुछ लिखा था। यह भी एक तरह का भ्रष्टाचार है। इससे कैसे मुकाबला करते हैं?

हां,  प्रभाष जोशी ने भी इसके बारे में लिखा था,  लेकिन साईंनाथ ने ज्यादा लिखा। चुनाव के दौरान चुनाव आयोग समेत हर कोई पेड न्यूज को लेकर सचेत रहता है। प्रेस काउंसिल और पत्रकार संगठन भी इसको लेकर सतर्क रहते हैं। सच्चाई यह है कि पेड न्यूज का धंधा साल भर चलता है। जब कोई विवाद सामने आता है तो सभी जमकर उसके खिलाफ लिखते हैं। स्थानीय खबरों को लेकर क्या होता है? सभी अखबार या पत्रकार पैसे लेकर खबरें नहीं छापते,  लेकिन एक वर्ग तो ऐसा करता ही है। उद्योग घराने इसके लिए भुगतान करते हैं। नेता साल भर इस तरह की खबरें छपवाते हैं,  लेकिन चुनाव के समय इसमें तेजी आ जाती है। यह एक पैकेज की तरह होता है। एक जैसी बातें अलग-अलग पत्रों में होती हैं।

ऊमन चांडी सरकार ने अपनी जांच में ‘हिंदू’ के त्रिवेंद्रम संस्करण को पेड न्यूज का दोषी पाया था। पहली बार किसी सरकार ने किसी अखबार पर पेड न्यूज छापने का आरोप लगाया था। आपका इस पर क्या कहना है?

इसमें कुछ भी निकलकर नहीं आया। लेकिन मैं इस बात की गारंटी नहीं दे सकता कि मेरे समूह का एक भी पत्रकार भ्रष्ट नहीं है या इस तरह की चीजों से प्रभावित नहीं है। हो सकता है एहसान के बदले कुछ इनाम मिला हो। लेकिन खासकर इस मामले में कुछ भी गलत नहीं मिला। हमने इसका खंडन किया था।

एक व्हिसिलब्लोअर ने इसके बारे में लिखा था।

मुझे इसकी जानकारी थी। लेकिन सबूत नहीं था। हमने इसका खंडन किया। कई मौकों पर हमने लोगों से कहा कि जो सही नहीं हो,  उसे छोड़ दो। कोई भी संगठन ऐसी बातों से बच नहीं पाता है। हमने ‘हिंदू’ में एक व्हिसिलब्लोइंग नीति बनाई है जो हर एक व्यक्ति के लिए है। एक मामले में तो इसका फायदा भी दिखा। यूनियन ने ही व्हिसिलब्लोअर का काम किया था।

आपको लगता है राजनैतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ क्रांति का इंतजार है?

कोई क्रांति नहीं होगी। सिर्फ ज्वार-भाटा उठता रहता है। ऐसा वक्त आया है जब लोग आंदोलित हुए हैं,  जन आंदोलन हकीकत बना है। 70 के दशक में इमरजेंसी से पहले जयप्रकाश नारायण का आंदोलन हम देख चुके हैं। उसके बाद अन्ना हजारे का आंदोलन भी हमारे सामने है। अरविंद केजरीवाल चतुर निकले और अलग होकर अपनी राजनैतिक पार्टी का गठन कर लिया। भ्रष्टाचार के खिलाफ इस तरह के नैतिक आंदोलन व्यर्थ नहीं हैं। इससे लोगों में जागरूकता आती है,  कुछ बदलाव होते हैं। लेकिन अपने लिए वे ऐसा उच्च मानदंड तय कर देते हैं,  जो कभी हकीकत में उतर ही नहीं सकता।

व्हाइ स्कैम्स आर हियर टू स्टे-अंडरस्टैंडिंग पॉलिटिकल करप्शन इन इंडिया

एन. राम

एलेफ स्पॉटलाइट

पृष्ठ : 202  मूल्य : 399 रुपये

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