Advertisement

ये कहां आ गए हम!

आज कई विद्रूपताएं हमारे सामने हैं। एक ओर ‘राष्ट्रवाद’ का नया दौर है, जो आजादी की लड़ाई के दौरान बने भारत के विचार को खारिज करता दिखता है तो दूसरी ओर हर मामले में यह धारणा मजबूत होती गई है कि इसमें मेरे लिए क्या है। यह धारणा परिवार, समाज, सत्ता और कारोबार सभी जगह हावी हो गई।
आदर्शवाद

आजादी के सत्तर साल देश और समाज को बहुत आगे ले आए हैं। हम तेजी से तरक्की कर रहे हैं, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हो रहे हैं। लेकिन गरीबी, मानव विकास सूचकांक, भ्रष्टाचार उन्मूलन और स्वस्थ समाज के मोर्चे पर वह तेजी नहीं दिखती है। कुछ तो है, जो बेचैनी बढ़ा रहा है। बात व्यक्तिगत आचरण की हो, शिक्षा की हो, कारोबारी जगत की हो, राजनीति की हो या समाज निर्माण की, सभी क्षेत्रों में मूल्यों का तेजी से ह्रास हुआ है। जहां सुधार होना चाहिए था, वहां पिछड़ जाने का डर बढ़ रहा है।

कितनी कुर्बानियों के बाद 1947 में आजादी  मिली थी। सब कुछ बहुत सामान्य नहीं था क्योंकि ब्रिटिश हुकूमत ने जितनी आसानी से कागजों पर हर चीज का बंटवारा किया था, वह वास्तविकता में उतना सहज नहीं था या यूं कहें कि जीवन और संपत्ति की बरबादी का वह ऐसा भयावह मंजर था जिसमें करीब 15 लाख लोगों ने जान गंवाई और डेढ़ करोड़ के लगभग घर-परिवार के साथ बेदखल हुए। लेकिन, इसके बावजूद हम आगे बढ़े। जीवन और लोकतंत्र को बेहतर बनाते हुए दुनिया के सामने एक नया उदाहरण खड़ा किया। सब कुछ अच्छा ही हुआ, यह कहना पूरी तरह सही नहीं है क्योंकि जो होना चाहिए था उसमें कुछ कमी रह गई है। या यूं कहें कि जो नहीं होना चाहिए था, वह भी हुआ।

आज कई विद्रूपताएं हमारे सामने हैं। एक ओर ‘राष्ट्रवाद’ का नया दौर है, जो आजादी की लड़ाई के दौरान बने भारत के विचार को खारिज करता दिखता है तो दूसरी ओर हर मामले में यह धारणा मजबूत होती गई है कि इसमें मेरे लिए क्या है। यह धारणा परिवार, समाज, सत्ता और कारोबार सभी जगह हावी हो गई। ‘मेरे लिए क्या’ के नाम पर आदर्शों की तिलांजलि दे दी गई। हाल के दिनों में सरकारें बनाने और बिगाड़ने के खेल में जो घटनाक्रम सामने आए उससे साबित होता है कि सत्ता के लिए विचारधारा या मूल्यों के कोई मायने नहीं हैं। कभी भी पाले बदले जा सकते हैं क्योंकि उसमें ‘मेरे अपने लिए’ कुछ है। हाल ही में गुजरात से राज्यसभा की एक सीट को जीतने के लिए जिस तरह के दांव-पेंच चले गए वह सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी सीमा तक जाने की सियासत का नमूना ही है। आज सभी दलों की नीतियां लगभग एक जैसी हैं। देश को कैसे आगे ले जाना है इसके लिए सबके पास मिलता-जुलता आर्थिक मॉडल है।

कुछ यही हाल शिक्षा का भी है। इसके मूल में अब छात्रों का व्यक्तित्व निर्माण नहीं रहा। परिवार भी व्यक्ति-केंद्रित हो गए हैं। ऐसे में, समाज में कुछ नया और बेहतर करने का विचार भला किसी के मन में क्योंकर आएगा? लिहाजा, संकीर्णता लगातार बढ़ती जा रही है। इससे सामाजिक खेमेबंदी तेज हुई है। ऐसे में एक दूसरे के प्रति सहिष्णुता कैसे बढ़ेगी? अगर सहिष्णुता कम होगी तो टकराव बढ़ेगा और उसका नतीजा कई रूपों में हम देख रहे हैं। मूल्यों का ह्रास ही भीड़ तंत्र को बढ़ाने में सहायक होता है।

आजादी के 70 साल बाद एक राष्ट्र के रूप में हम कहां खड़े हैं? आदर्शवाद कहां लापता है? यही समझने की कोशिश हमने इस स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में की है। विभिन्न क्षेत्रों के स्थापित विशेषज्ञों के जरिए राष्ट्र और समाज के सामने खड़े सवालों के जवाब ढ़ूंढ़ने की कोशिश की है। अपने आलेख में आशीष नंदी आदर्शवाद, विचारधारा और सर्वसत्तावादी राजनीति की व्याख्या कर रहे हैं तो मशहूर इतिहासकार इरफान हबीब भविष्य में भारत की परिकल्पना पर गांधी और नेहरू के मतभेदों के बावजूद एकरूपता के बरक्स आज के दौर की हकीकतों का बयान करते हैं। वहीं देश के सबसे सम्मानजनक कारपोरेट लीडर्स में शुमार इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन एन.आर. नारायणमूर्ति कारपोरेट जगत के लिए मूल्यों की अहमियत और देश व समाज के प्रति जवाबदेही की जरूरत बताते हैं। दिलीप सिमीओन उस वाम विचारधारा के विरोधाभासों पर टिप्पणी कर रहे हैं जो समाज में बराबरी की बात करती है।

कथाकार संजीव ने बताया है कि अब हम सच के लिए संघर्ष का साहस ही खोते जा रहे हैं। शिक्षाविद अभय मोर्य ने शिक्षा और खासतौर से व्यक्तित्व व चारित्रिक निर्माण के लिए अहम उच्च शिक्षा के मौजूदा हालात पर टिप्पणी की है। प्रदीप मैगजीन का कहना है कि खेल भावना की बजाय अब जीतना और पैसा कमाना ही मूलमंत्र बन गया है। सामाजिक विषयों पर पैनी टिप्पणी करने वाली नताशा बधवार कहती हैं कि निराशा के इस दौर में भी आशा के दीये जल रहे हैं तो प्रतिष्ठित फिल्म समीक्षक वेंकटेश्वरन ने सत्यजीत राय और अडूर गोपालकृष्‍णन की फिल्मों के जरिए बताया है कि हम कैसे और कहां पहुंच रहे हैं।

कुल म‌िलाकर हमें ‘मेरे लिए क्या’ की धारणा से बाहर निकलना होगा। भारतीय लोकतंत्र और मूल्यों को मजबूत करते हुए नए बदलावों को भी स्वीकार करना होगा। ये बदलाव सामाजिक और आर्थिक दोनों मोर्चों पर हो रहे हैं और इनको आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते रहना है।

Advertisement
Advertisement
Advertisement