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दिवास्वप्न नहीं आदर्शवादी पूंजीवाद

समाज में गरीब आदमी परेशान होता है तो किसी न किसी दिन वह यही कहेगा कि बहुत हुआ, अब और नहीं! गरीबों की जिंदगी बेहतर करने के लिए हमने उतना नहीं किया जितना हम कर सकते हैं। हम इस तरह धन समेटने में लगे हैं जैसे कि कल तो आएगा ही नहीं
तलाश

किसी भी बिजनेस में कोई भी निर्णय लेते वक्त एक सरल-सा सवाल बेहद अहम होता है। अगर किसी के पास कोई ताबीज होती तो लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाना और आसानी से देश की आर्थिक प्रगति को बढ़ाना आसान होता। बिजनेस भी बढ़ता और लोगों की नजरों में कद्र भी होती। सवाल यही है कि क्या मेरा काम, मेरा निर्णय, सामाज में मेरी कंपनी का और मेरा सम्मान बढ़ाएगा कि नहीं? मुझे यकीन है, पूंजीवाद के आदर्शवाद के लिए यह सवाल बेहद अहम है। भारत के इतिहास में फिलहाल पूंजीवाद नया है। ऐसे में जब हम अपने आसपास काफी गरीबी देख रहे हैं, 70-80 करोड़ लोग बमुश्किल दो वक्त का खाना जुटा पा रहे हों, तब इससे लड़ने के लिए पूंजीवाद की अगुआई करने वालों को आदर्शवाद दिखाना चाहिए। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि उद्यमशीलता ही हमारे पास एकमात्र रास्ता है, जिससे हम नौकरियां पैदा कर सकते हैं, उनकी आमदनी बढ़ा सकते हैं और उन्हें आर्थिक रूप से सबल बना सकते हैं। हममें से बहुतों को वह वक्त याद है, जब उद्यमशीलता और बिजनेस करने वालों के लिए भारत उतना सकारात्मक नहीं दिखता था, जितना आज है। आज आप कह सकते हैं कि बिजनेसमैन ठीक लोग होते हैं। अतीत की तरह आज भी मुट्ठीभर बिजनेसमैन ही हैं, जिन्होंने अपने कारनामों से बिजनेस को बदनाम किया है। ऐसे लोगों की वजह से ही धनार्जन करने वालों के लिए नकारात्मक माहौल बनता है। लेकिन गरीबी कोई खूबी नहीं है और वामपंथ के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। हमें खासी आमदनी वाली अधिक से अधिक नौकिरियां पैदा करने का हरसंभव रास्ता अपनाना चाहिए। हमें पसंद हो या न हो, लेकिन यह उद्यमशीलता से ही संभव है और उद्यमशीलता करुणामय पूंजीवाद में ही संभव है। दौलत और नौकरियां, साफ-सुथरे, उचित और ईमानदारी के रास्ते से ही हासिल हो सकती हैं। बेशक, आज भी कमजोर प्रशासन और ऐसे बोर्ड वाली फर्म हैं, जिनको आप देखना नहीं चाहते। लेकिन ये अपवाद ही हैं। भारत में 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद बेहतर प्रशासन की दिशा में एक रूपांतरण देखा गया है। एक, आर्थिक सुधारों ने भारतीय बिजनेसमैन के लिए बाधाओं को हटाया है, इसलिए नेताओं और नौकरशाहों के उतने चक्कर नहीं काटने पड़ते। दूसरे, भारत में काफी विदेशी पूंजी आनी शुरू हुई और ये वे लोग हैं, जिन्होंने दुनियाभर में एक से एक बेहतर कंपनियां देखी हैं। अगर आज की तारीख में भारतीय कंपनियां विश्वस्तरीय बनना चाहती हैं, तो उन्हें यह समझना होगा कि बिना गुड गवर्नेंस के न निवेश आएगा, न उनका स्टॉक शेयर बाजार में बेहतर करेगा और न ही मार्केट कैप बढ़ेगा। तीसरे, 1991 तक भारतीय बिजनेसमैन प्राइस टू अर्निंग्स (पीई) को उतना नहीं समझते थे, जितना आज समझते हैं। वास्तविकता यह है कि अगर मैं कीमत नियंत्रण, बेहतर प्रबंधन और वित्त प्रबंधन से आमदनी में एक रुपया जोड़ता हूं तो मेरी संपत्ति में 10 से 20 रुपये की बढ़ोतरी होगी।

लंबे समय से मैं इंफोसिस के अलावा भारत में किसी दूसरी कंपनी के बोर्ड में नहीं रहा। इसलिए मैं इसी कंपनी के बोर्ड के अनुभव के आधार पर बात कर सकता हूं। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि 2014 में जब संस्थापक सदस्यों ने इंफोसिस को छोड़ा, बोर्ड ने एक-एक चीज को बारीकी से देखा। तब भी हमने यह सवाल पूछा कि क्या हमारे इस फैसले से, समाज में इंफोसिस, हमारा और बोर्ड के सदस्यों का और कंपनी के कर्मचारियों का सम्मान बढ़ेगा या नहीं। हमने ऐसा माहौल तैयार किया, जिसमें हर व्यक्ति को सवाल पूछने,चर्चा करने और सलाह देने को प्रोत्साहित किया जाता था। कोई भी अपनी असहमति दर्ज करा सकता है।

1981 में हम जब शुरुआत कर रहे थे तब हम सबके सामने जेआरडी टाटा बड़े आदर्श थे। एक कंपनी की शुरुआत कर रहे मध्यवर्ग से ताल्लुक रखने वाले कुछ युवाओं के सामने बहुत ज्यादा रोल मॉडल नहीं थे। लेकिन हां, कुछ और कंपनियां भी खड़ी हो रही थीं। मैं किसी का खासतौर से नाम नहीं लूंगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कुछ लोग यह सोचें कि मैं उन्हें भूल गया हूं।

लेकिन निश्चित रूप से कहना चाहूंगा कि कुछ ऐसी कंपनियां जरूर सामने आ रही हैं, जो इंफोसिस के सिद्धांतों को अपना रही हैं। मेरा मानना है कि इस पीढ़ी के लोग पहली पीढ़ी से ज्यादा स्मार्ट हैं। वे बेहतर मूल्यों के साथ ही ज्यादा साहसी भी हैं। दुनियाभर में जो तरक्की दिख रही है, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती है। मौजूदा उद्यमी बाजार में संतुलन कायम रखने वाली कुछ निश्चित शक्तियों की ही देन हैं। अभी तक उन्होंने जो प्रदर्शन किया है, कम से कम उसके लिए मैं उनकी आलोचना नहीं करना चाहूंगा। एक पीढ़ी के रूप में उनके मूल्य, हम से बेहतर हैं। मैं आश्वस्त हूं कि 100-200 साल बाद बिजनेस करने का भारतीय तरीका विकसित हो चुका होगा। आखिरकार अभी तो आजादी मिले 70 साल ही हुए हैं। लंबे समय तक हम भाग्य के भरोसे नहीं रह सकते। यह कहना ठीक नहीं होगा कि भारतीयों ने उतनी तरक्की नहीं कि जितनी कि जर्मन, अमेरिकी और जापानियों ने की है। वे सभी लंबे समय से बिजनेस करते रहे हैं। इन देशों की तरह आत्मविश्वास हासिल करने के लिए हमारी संस्कृति को समय लगेगा। मैं शायद अपने जीवन में उस वक्त को न देख सकूं, लेकिन मैं और आप जिस तरह का भारत चाहते हैं, हमारी अगली पीढ़ियां जरूर देखेंगी।

यहां फिर करुणामय और आदर्शवादी पूंजीवाद की बात आती है। मैं हमेशा यकीन करता हूं कि एक स्थायी, प्रगतिशील, सदाशय और शांतिपूर्ण समाज में अमीर, ताकतवर और संभ्रांतों को आत्मनियंत्रण रखना चाहिए। जापान इसका बढ़िया उदाहरण है। अधिकतर यूरोप भी इसकी मिसाल है। केवल अमेरिका और कुछ मामलों में भारत में बिजनेस में अधिकतम और न्यूनतम वेतन के बीच आश्चर्यजनक रूप से अंतर देखने को मिलता है। लेकिन जापान और अधिकतर यूरोप में आत्मनियंत्रण कारगर रहा है। अगर लोगों को लगता है कि उनके लीडर कंपनी का निजी हित में दोहन कर रहे हैं तो इससे उनमें आक्रोश और असंतोष पनप सकता है।

आर्थिक सुधारों के दशकों बाद भी अगर गरीब इतनी तकलीफ में हैं तो जो पूंजीवाद के अगुआ हैं, उन्हें इस तरफ ध्यान देना चाहिए। भूख किसी कानून को नहीं मानती। इसलिए यदि समाज में गरीब आदमी परेशान होता है तो किसी न किसी दिन वे यही कहेंगे कि बहुत हुआ, अब और नहीं। हमें इस तरफ कदम उठाने चाहिए, क्योंकि हमारे पास ताकत भी है और पैसा भी। पहले ही यूरोप में शरणार्थी पहुंच रहे हैं। एक स्थिति के बाद भारत में भी करोड़ों गरीब हमारे शानदार कॉर्पोरेट हेडक्वार्टर्स, हमारी बड़ी कारों और बंगलों पर धावा बोल सकते हैं। मैं गरीबों को दोष नहीं दूंगा, क्योंकि गरीबों की जिंदगी बेहतर करने के लिए हमने उतना नहीं किया जितना हम कर सकते हैं। हम इस तरह धन समेटने में लगे हैं जैसे कि कल तो आएगा ही नहीं। कई क्षेत्रों में तो आदर्शवाद बेहद जरूरी है। ये मूल्य देश-काल से परे हैं। मूल्य क्या हैं? मूल्य एक समुदाय में लोगों के बीच विश्वास पर आधारित व्यवहार को तय करता है। इसलिए ऐसा कुछ नहीं कि बिजनेस के लिए अलग मूल्य, सामाजिक व्यवहार के लिए अलग, राजनीति के लिए अलग और घर पर व्यवहार के लिए अलग मूल्य होंगे।

ईमानदारी, समर्पण, पारदर्शिता, दूसरों से सीखने की तत्परता, दूसरों के विचारों के प्रति सहनशीलता, परिश्रम जैसे मूल्य सार्वभौमिक हैं। मैं एक उदाहरण देता हूं। 1995 में इंफोसिस में एक फॉर्चून 10 कॉरपोरेशन के साथ हम एक कॉन्ट्रैक्ट जारी नहीं रख सके, क्योंकि उन्होंने काफी कम पैसा देने की मांग की थी। अगर हम इस कॉन्ट्रैक्ट को स्वीकार कर लेते तो फिर हमें दूसरे कस्टमर्स के साथ भी ऐसा ही करना पड़ता। इसका अर्थ होता कि ट्रेनिंग, गुणवत्ता, उत्पादकता, तकनीकी, अच्छे ऑफिस और सैलरी में निवेश करने के लिए हमारे पास पैसा ही न होता। हालांकि हमने उस कस्टमर के साथ काम न करने को लेकर एक कठोर निर्णय लिया था। लेकिन अगले 48 घंटे में ही टीवी मोहनदास पै, नंदन नीलेकणि और मैं एनलिस्ट को संबोधित करने मुंबई गए। हमने उन्हें बताया कि हमारे पास अब वह कस्टमर नहीं है, जिससे हमारे राजस्व का 25 फीसदी आता था। साथ ही हमने अपना प्लान भी उन्हें बताया कि कैसे अगले तीन साल में हम इसकी भरपाई करेंगे। इसके बाद स्टॉक में गिरावट नहीं आई। स्टॉक ऊपर ही गया। इसलिए यदि आप अपने निवेशकों के साथ ईमानदार हैं, तो वे आपकी गलतियों को भी माफ कर देते हैं। निवेशक समझते हैं कि किसी भी बिजनेस में उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन वे चाहते हैं कि आप उनके साथ ईमानदार रहें। यदि आप अपने शेयर होल्डर्स की आंखों में धूल झोंकोगे तो आप गए। बिजनेस में मैंने यह सबसे बड़ा सबक सीखा है।

(लेखक प्रख्यात उद्यमी, इंफोसिस के पूर्व चेयरमैन, संतुलित पूंजीवाद के पैरोकार हैं।

(अजय सुकुमारन से हुई बातचीत पर आधारित)

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