फिल्म कबाली को लेकर बड़े पैमाने पर उन्माद उतना स्वत:स्फूर्त नहीं है, जितना दिख रहा है। स्पष्ट रूप से एक योजना के तहत फिल्म के निर्माताओं और वितरकों ने इसे रचा है और इसमें तमिलनाडु और भारत के अन्य हिस्सों में फैले अनगिनत रजनीकांत फैन क्लब्स का अवदान है। फिल्म पर जितने दांव लगे हैं, उसके मद्देनजर ऐसा होना ही था। रजनीकांत की इससे पहले आईं दो फिल्में- 2014 में रिलीज कोचडियान और लिंगा व्यावसायिक उम्मीदों पर खरी नहीं उतरीं।
रजनीकांत के प्रभामंडल के लिए कबाली परियोजना जीवन-मरण का सवाल थी। फिल्म के प्रमोशनल चकाचौंध से स्टार दूर रहे। प्रचार मशीनरी ने जबर्दस्त अभियान चलाया और इंटरनेट एवं 2437 टीवी समाचार चैनलों पर मीडिया ईको-सिस्टम बना दिया। इससे हर प्लेटफार्म पर फिल्म की चर्चा होने लगी।
जिस तरह सघन प्रचार अभियान चलाया गया उससे भारत के हर हिस्से का दर्शक कबाली के धमाकेदार अवतरण के बारे में जान गया और हर कोई अपने शहर में आए नए सर्कस का हिस्सा होने की चाहत रखने लगा। यह समझना जरूरी है कि रजनीकांत सिर्फ तमिल मेगास्टार ही क्यों नहीं हैं? उनकी लोकप्रियता उत्तर में विंध्य तक फैल गई है। उनकी फिल्में दक्षिण भारत के बाहर भी लोकप्रिय होने लगी हैं।
तमिल और तेलुगु सुपरस्टार्स ने अरसे से हिंदी सिनेमा में ब्रेक लेने की कोशिश की है। रजनीकांत के समकालीन कमल हासन समेत कई बॉलीवुड में बेहद सफल हुए। फिर भी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कोई हमेशा के लिए अपने पांव नहीं जमा सका।
रजनीकांत के प्रभामंडल को चकाचौंध और ग्लैमर के लिए प्यासे इंटरनेट और ढेरों समाचार चैनलों ने आकार और विस्तार दिया है। यह बात अब स्थापित हो गई है कि दक्षिण के किसी मेगास्टार को अखिल भारतीय छवि बनाने के लिए हिंदी सिनेमा के रास्ते की जरूरत नहीं।
सत्तर से लेकर 90 के दशक तक रजनीकांत और कमल हासन के कॅरिअर एक जैसे रहे। कमल के चाहने वाले शहरी और शिक्षित दर्शक हुआ करते थे, जबकि रजनी की प्रशंसक वह भीड़ रही जो कम परिष्कृत थी। लेकिन जैसे-जैसे सोशल मीडिया हमारे जीवन में आता गया, रजनी का परदे पर का व्यक्तित्व बड़ा आकार लेता गया। उनकी अडिग अपराजेयता को लेकर हजारों चुटकुले चल निकले। जो लोग कभी रजनीकांत की फिल्मों की ओर ध्यान नहीं देते थे, वे उनकी ओर खिंचने लगे। क्योंकि कमल ने सफलता पाने के साथ-साथ अपने रोल्स और थीम के साथ प्रयोग करना जारी रखा।
शिवाजी द बॉस (वर्ष 2007 में आई) तक रजनीकांत की पहुंच आज की तरह बड़ी नहीं थी। इस फिल्म के लिए इस स्टार ने अभूतपूर्व 25 करोड़ रुपये की फीस ली थी। उनकी तब की फिल्में- थालापथी (1991), बाशा (1995), मुथु (1995), पादैयप्पा (1999), बाबा (2002) और चंद्रमुखी (2005) की नेशनल मीडिया में चर्चा तो खूब हुई, लेकिन उतनी नहीं कि अपने सरहद के पार जाकर बॉलीवुड के ब्लॉक बस्टर्स की चमक-दमक को ढंक सकें।
उसके बाद से सब कुछ बदल गया। रजनी साल में दो फिल्में करते हैं। हर वह फिल्म जिसमें रजनी होते, वह सिनेमाई सैर-सपाटा से आगे निकल जाती है। फिल्मों का रिलीज का अवसर एक आयोजन, एक रस्म, एक त्योहार बन जाता है, जिसमें करोड़ों फैन आनंद लेते हैं।
सवाल यह उठता है कि क्या रजनीकांत को उस तरह के हाईप की जरूरत है, जो उनकी फिल्मों को लेकर होता है? या यह हाईप स्वचालित रूप से फैलता है, जब फ्रेम में अदम्य रजनी दिखते हैं? 65 साल की उम्र में भी ‘थलाइवा’ इतना सशक्त कैसे हैं- इसके जवाब में कोई एक वजह बताना मुश्किल है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह पागलपन की हद तक असंभव रूप से भीड़ के साथ खुद को कनेक्ट करते हैं।
वे कुछ बातें हैं जिन्हें यहां-वहां थोड़े-बहुत बदलाव के साथ रजनी दशकों से बड़े पर्दे पर करते रहे हैं और तमिल फिल्मों के दर्शकों के प्रिय बनते रहे हैं। जब वह सिगरेट उछालकर अपने होंठों से पकड़ते हैं, उनके प्रशंसक सुध-बुध खो बैठते हैं। या जब रजनी अपने बालों को आंखों के ऊपर से हटाने के लिए अपना सिर झटकते हैं, प्रशंसकों की खुशी का ओर-छोर नहीं रहता। और जब वह पिस्तौल से अपनी सिगरेट जलाते हैं तब उनके इस एक्ट का क्या कोई मुकाबला होता है?
कबाली की रिलीज के समय रजनीकांत के पोस्टरों पर जितना दूध चढ़ाया गया वह आम लोगों की दृष्टि में अतिरेक लगेगा। लेकिन रजनी फैन ब्रिगेड दूसरे भारतीय फिल्मी सितारों के प्रशंसकों के स्टैंडर्ड नियमों में विश्वास नहीं करती। उनके ब्रह्मांड में कोई लॉजिक काम नहीं करता और सिनेमाई गुणवत्ता के सवालों की कोई जगह नहीं है। वे वैसी दुनिया में रहते हैं, जहां रजनीकांत हर तर्क से परे हैं।
यही कारण है कि सुपरस्टार की हर रिलीज के मौके पर तमिलनाडु के मूवी थिएटरों में मास हिस्टीरिया दिखता है। कबाली ने रजनीकांत के प्रभामंडल को नई ऊचाइयां दी हैं। इस फिल्म के 10 हजार से ज्यादा प्रिंट तमिलनाडु, भारत और पूरी दुनिया में रिलीज किए गए। तमिल सिनेमा के इस नायक के प्रशंसक टिकट खिडक़ी पर झपट पड़े। बड़े पैमाने पर की गई तैयारियों का नतीजा रही बंपर ओपनिंग। कबाली की देश भर में ओपनिंग डे कलेक्शन ने आमीर खान की पीके और सलमान खान की सुल्तान को भी पीछे छोड़ दिया। यह फिल्म बूढ़े हो रहे एक मलेशियाई तमिल गैंगस्टर की अपराध कथा है जो जेल से लौटकर कुआलालंपुर में अंडरवर्ल्ड के अपने दुश्मनों का सफाया करता है।
वह साधारण से दिखते हैं और उन्हें लोगों के बीच बगैर मेक-अप और विग के जाने में कोई हिचक नहीं होती और बतौर अभिनेता उनकी प्रतिभा औसत से कुछ बेहतर ही है। तो ऐसा क्या है, जो रजनीकांत को बॉक्स ऑफिस पर सबसे ज्यादा भीड़ खींचने वाला बनाता है? उनकी जबर्दस्त लोकप्रियता कई कारणों का संयोजन है- सिनेमा की वह कभी नहीं बदलने वाली पलायनवादी प्रकृति जिसका वह अनुमोदन करते हैं, हीरो का अपराजेय गुण जिसका वह स्क्रीन पर प्रदर्शन करते हैं और नम्र और नैतिक दृष्टि से ईमानदार व्यक्तित्व जिसे वह रील लाइफ में दिखाते हैं। रजनीकांत के तमिलनाडु में हजारों फैन क्लब हैं। तमिलनाडु ऐसा एक राज्य है, जहां के लोग अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाते। दुनिया में हम ऐसे लोग कहां पाएंगे जो दु:ख या नाराजगी प्रकट करने के लिए खुद को आग लगा लेते हैं?
रजनी का स्टार पावर ऐसा है कि उन्हें फिल्म की रिलीज के पहले प्रमोशनल टूअर्स करने की जरूरत नहीं होती-जब कबाली कीर्तिमान पर कीर्तिमान स्थापित कर रही है तब वह अमेरिका में छुट्टियां मना रहे हैं। उनके प्रशंसक ही सारा काम संभाल ले रहे हैं। भारत या दुनिया का कोई भी मूवी स्टार इस तरह की अंधभक्ति और निर्विवाद फैन फॉलोविंग का दावा नहीं कर सकता।
कबाली की रणनीति का जबर्दस्त लाभ मिला है। 2010 में आई रजनीकांत की पिछली सफल कॉमर्शियल फिल्म एनथीरन (रोबोट) की सफलता भी पीछे छूट गई, जिसने बॉक्स ऑफिस पर चार सौ करोड़ रुपये की कमाई की थी। रजनीकांत के बतौर अखिल भारतीय मूवी स्टार के क्रमविकास में एनथीरन महत्वपूर्ण रही। फिल्म के हिंदी वितरण अधिकार 36 करोड़ रुपये में बिके थे। इसने दोगुनी से ज्यादा की कमाई की।
एनथीरन की सफलता को समझना आसान था- फिल्म में तकनीकी ताजगी के साथ रजनीकांत का चुंबकत्व का मिश्रण था जिसने इसे क्षितिज तक पहुंचा दिया। लेकिन ईमानदारी से कहा जाए तो कबाली एक फार्मूला-ग्रसित औसत मनोरंजक फिल्म है। इसमें नया कुछ नहीं है- सिवाय जाति समीकरण के अचेतन से एंगल के अलावा। स्पष्ट तौर पर इस प्रोजेक्ट में निर्देशक पा. रंजीत का योगदान है यह। रंजीत की यह दूसरी फिल्म है। फिल्म में उत्तरी चेन्नई के सामाजिक रूप से पिछड़े एक इलाके के लोगों का संवेदनशील और व्यावहारिक चित्रण करने के लिए उनकी खूब चर्चा हो रही है।
रजनी ने निजी तौर पर रंजीत को निर्देशक के तौर पर चुना क्योंकि वह एक ऐसे नए और गैरपारंपरिक फिल्म निर्माता के साथ काम करना चाहते थे जो उनकी स्क्रीन की छवि को पुनर्भाषित करने में मदद कर सके। इसका नतीजा बेहतर रहा।
कबाली के अधिकांश हिस्से में रजनी अपनी उम्र के साथ नजर आते हैं और प्रथागत अभिमान के साथ भूमिका निभाते हैं। लेकिन फिल्म में उनका कम उम्र का अवतार विश्वासप्रद नहीं लगता। रजनीकांत का यह रूप कर्मचारियों के अधिकारों के लिए अभियान चलाता है और उन्हें बेहतर वेतन-भत्ते दिलाने के लिए संघर्ष करता है। साथ ही, एक सुंदरी से प्रेम करता है, जिसकी भूमिका राधिका आप्टे ने निभाई है। दरअसल, यह सर्वथा हास्यासपद है। लेकिन रजनी के प्रशंसकों में कबाली को लेकर उत्साह का ओर-छोर नहीं है क्योंकि यह पूरी तरह रजनी की फिल्म है जिसमें वह अपने हिंसक और शैतान विरोधियों को पसीने की एक बूंद बहाए बिना मिटा देने समेत हर वह काम करते दिखते हैं, जिसके लिए वह जाने जाते हैं।
बड़े बजट की एक फिल्म को अपने कंधे पर ढोने का दबाव रजनी को उनके पात्र, थीम और कहानी के साथ प्रयोग नहीं करने देता। उनकी बेटी सौंदर्या द्वारा निर्देशित फिल्म कोचडियान पहली भारतीय फिल्म थी, जिसने मोशन कैप्चर तकनीक अपनाई। लेकिन रजनी के एनीमेटेड वर्जन को उनके प्रशंसकों ने पसंद नहीं किया।
लिंगा में मेगास्टार ने छोटे-मोटे एक चोर की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म में तब मोड़ आता है जब उसे पता चलता है कि गांव में उसके दादा ने जो बांध बनवाया था, उसपर एक लालची राजनीतिज्ञ की निगाह है। यह फिल्म वास्तविकता के इतने करीब थी कि प्रशंसकों में उत्साह नहीं भर पाई। लिंगा ने औसत कमाई की और इससे रजनीकांत के प्रभामंडल को लेकर फिल्म उद्योग के विश्वास को धक्का पहुंचा।
यही कारण है कि कबाली को लेकर ढेरों उम्मीदें थीं। जो उन्माद इस फिल्म ने पैदा किया है, वह आक्रामक प्रचार मशीनरी का कमाल है। इससे कमाल हुआ है- भारतीय सिनेमा ने इससे पहले ऐसा नहीं देखा था। हम जानते हैं कि रजनी के प्रशंसक अतिरेक में आ जाते हैं लेकिन इस बार वे पागलपन में कहीं आगे बढ़ गए हैं। वे लोग कम उत्साही नहीं दिखेंगे, जब अगले साल रजनीकांत की नई फिल्म 2.0 आएगी। एनथीरन की अगली कड़ी वाली इस फिल्म में बॉलीवुड स्टार अक्षय कुमार विलेन की भूमिका में हैं। कबाली ने बड़े शो का मंच बना दिया है। एनथीरन की फिल्म का बजट 350 करोड़ रुपये के आसपास माना जा रहा है।
जब रजनी की बात होती है, कुछ भी असंभव नहीं होता। आम अभिनेताओं के पास फैन होते हैं। रजनी के पास ‘सुपर-फैन’ होते हैं। वह खुद को एक तमाशे में बदल डालते हैं, और वह उन अजेय किरदारों से कम चमकप्रद कारनामे नहीं करते जिन्हें ‘थलाइवा’ स्क्रीन पर जीवंत करते हैं।