वामपंथ के आदर्शवाद पर चर्चा करने से पहले यह सोच लेना ज्यादा अच्छा रहेगा कि हम इसका क्या मतलब समझते हैं। आखिर ‘वाम’ (पंथ) क्या है? अगर आप इसे राजनैतिक गोलबंदी मानते हैं तो इसका उत्तर है नहीं। अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट एकजुटता का स्वरूप दशकों पहले टूट चुका है। आज मात्र इसकी महकभर शेष है। नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत एक पार्टी बनाने की मंशा से हुई थी, लेकिन इसके प्रस्तावक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के जन्म से पहले ही आपस में लड़ने लगे। अब आदर्शवाद की दार्शनिक व्याख्या देखें। यह या तो मानसिक अवस्था है (जैसे यह दुनिया दिमाग की उपज है) या विचारों के ढांचे में व्याप्त है। एक समय ऐसा था जब दार्शनिक आदर्शवाद को प्रगतिशील और आशावादी सामाजिक विचार के रूप में लोकप्रिय आदर्शवाद से जोड़ा जाता था। आज की समस्या यह है कि अगर हम आदर्शवाद को एक सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्धता के रूप में लें तो सवाल उठता है कि आखिर कौन-सा सिद्धांत?
वाम और वामपंथ
वाम शब्द की उत्पत्ति फ्रांस की क्रांति के साथ हुई। यह पिछली दो शताब्दियों के दौरान राजनैतिक अभिव्यक्ति में 'सामाजिक सवाल', यानी समाज के दबे-कुचले, शोषित-वंचित लोगों, खास तौर पर मजदूर वर्ग की जरूरतों और मांगों से जुड़े सवालों को स्वर देने वाले शब्द के रूप में उभरा। इसे सैद्धांतिक तौर पर लोकतांत्रिक समाजवाद, जिसे समाजवाद भी कहा जाता है, से भी जोड़कर देखते हैं। बीसवीं सदी में ये अवधारणाएं बुरी तरह से उलझ गई हैं। शोषितों-वंचितों की राजनैतिक अवधारणा आर्थिक परिभाषा की सीमा पार करके राष्ट्रीय और सामाजिक आकांक्षा के रूप में उभरी है। ऐसी आकांक्षाएं तानाशाही की शक्ल भी ले सकती हैं (अमूमन ले भी चुकी हैं)। इसकी वजह से राजनैतिक भाषा बेहद पेचीदी हो गई है। इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि जर्मन वर्कर्स पार्टी से ही नाजीवाद का जन्म हुआ। बाद में इसका नाम नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी हो गया। जबकि नाजीवाद मजदूरों और समाजवाद का विरोधी था। इतना कहना ही काफी होगा कि समाजवाद के टेढ़े-मेढ़े इतिहास से काफी भ्रम पैदा हुआ है।
तो फिर ‘वाम’ की अवधारणा को कैसे समझा जा सकता है? ‘वाम’ और ‘समाजवाद’ जैसे पदों को साम्यवादी सिद्धांत या रूस, चीन और क्यूबा के इतिहास तक सामित नहीं कर सकते। इन पदों से गरीब मजदूरों के आंदोलनों और शोषण का प्रतिरोध मतलब लिया जाता है। इसे इस रूप में देखें कि लोकप्रिय आंदोलनों में किसी तरह की कमी आने का कोई संकेत नहीं है। दूसरे देशों की तो बात ही छोड़िए, भारत में पिछले तीन साल में मजदूरों, छात्रों, खेतिहर मजदूरों, किसानों, मछुआरों, खनन कंपनियों के खिलाफ आदिवासियों और परमाणु संयंत्रों के खिलाफ ग्रामीणों के आंदोलन काफी तेज हुए हैं। हाल ही में पंजाब में ट्रक वालों की 134 यूनियनों की अगुआई में करीब 93 हजार ट्रकों की हड़ताल हुई। तमिलनाडु में आइटी प्रोफेशनल्स ने नौकरियों से निकाले जाने और सुविधाओं में सुधार की मांग को लेकर यूनियन बनाई है। व्यापारियों ने नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के खिलाफ हड़ताल की। मध्यवर्गीय लोग और युवा सांप्रदायिक हिंसा के विरोध में सड़कों पर उतरे हैं। फेहरिस्त काफी लंबी है और बहुत-से आंदोलनों की तो रिपोर्ट ही नहीं होती। ऐसे सामाजिक उथल-पुथल लोकतांत्रिक समाजवाद के सूत्रपात की अभिव्यक्ति की तरह हैं। बेशक, आम तौर पर इन आंदोलनों की शुरुआत उत्साही, संवेदनशील और विनम्र कार्यकर्ता करते हैं, लेकिन बाद में आम लोगों के बीच से तमाम ऐसे आदर्शवादी लोग भी इस संघर्ष से जुड़ जाते हैं जिनके मन में अन्याय के खिलाफ गुस्सा उमड़ता है। हालांकि कई आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्याओं और जारी संघर्षों का आकलन करें तो यह कहना बेमानी हो जाता है कि वामधारा में आदर्शवाद का पतन हुआ है। तो, फिर हम किस पर चर्चा कर रहे हैं?
आदर्शवाद और विचारधारा
समस्या तब शुरू होती है, जब आदर्शवाद पर विचारधारा हावी होने लगती है। फिर लोकतांत्रिक राजनीति में लोकप्रियता का मामला भ्रम गहरा कर देता है। सवाल उठता है कि ज्यादा लोकलुभावन विचारधारा कौन-सी है? वामपंथ या दक्षिणपंथ? और फिर जब उग्र राष्ट्रवादी और गोरक्षक समूहों के लोग अपनी विचारधारा से उसी तरह प्रेरणा पा सकते हैं, जैसे जागरूक युवा वाम कार्यकर्ता। ऐसे में हम कैसे समझेंगे कि क्या चल रहा है?
यह ऐसा दौर है, जब साख, तोड़-मरोड़ कर गढ़ी गई छवियों और सहमति के मायने सच और झूठ से अधिक वजन रखते हैं। विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता ने बौद्धिक बहसों को पीछे धकेल दिया है। यही बहस तथा संवाद में गिरावट और उसकी जगह राजनैतिक नारों, जुमलों और दुष्प्रचारों के प्रभावी होने का मर्म है। ऐसे हालात में आदर्शवाद के नाम पर यह विश्वास बचा रहता है कि चाहे जो कहो, हम ही सच्चे हैं और हमसे अलग विचारों में यकीन करने वाला पराया या शैतान है जिसे खत्म कर डालने की दरकार है। आजकल सामान्य राजनैतिक बहसों में सहानुभूति-संवेदना, शिष्टता और करुणा जैसे शब्द गायब हो गए हैं। क्या हम याद कर पा रहे हैं कि पिछली बार कब किसी राजनैतिक प्रवक्ता ने भीड़ की हिंसा के शिकार लोगों के प्रति कोई संवेदना दिखाई?
विराट राजनैतिक परियोजनाओं के रचयिता चाहे जो सोचते हों, मगर मनुष्य में हमेशा ही करुणा और निःस्वार्थ मित्रता के गुण मौजूद रहते हैं। ये गुण ऐंद्रिक आकर्षण और मां-बाप के प्यार की तरह ही नैसर्गिक और शाश्वत हैं। दरअसल मनुष्य के मूल स्वभाव के ये गुण ही समकालीन समाज में व्याप्त विचारधारात्मक नकारवाद के शिकार हो रहे हैं। यह नकारवाद हमें क्रूरता को महिमामंडित करने की ओर ढकेलता है, लोगों के दुख-दर्द के प्रति करुणा की भावना से दूर ले जाता है और संवाद को गाली-गलौज में बदल देता है।
विवेकहीन बातों, अंध आस्था, संवाद की जगह वक्रोक्तियों की आदतों के कारण लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं का आदर्शवाद दब जाता है और उनमें उनसे संवाद करने की क्षमता भी घट जाती है जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दावा करते हैं। आज केवल व्यावहारिक राजनीति और अवसरवाद ही बड़े खतरे नहीं हैं, क्योंकि इन प्रवृत्तियों का तो उनके कार्यकलापों और नतीजों से अंदाजा लगाया जा सकता है। उससे ज्यादा खतरनाक विचारधारा से विवेक पर परदा पड़ जाना है। एक तरफ तो हमारे यहां सांप्रदायिकता के वशीभूत पहरुए (गोरक्षक वगैरह) हैं, जिन्हें कच्ची उम्र से ही राष्ट्र के कुछ खास चिन्हित ‘दुश्मनों’ से नफरत करने का प्रशिक्षण मिला है। उनकी प्रेरणा वैचारिक के बदले दैहिक ज्यादा होती है। दूसरी ओर इस अंधविश्वास के वशीभूत तमाम वामपंथी काडर हैं कि ‘पार्टी हमेशा सही होती है।’ उनमें यह भावना होती है कि इस ब्रह्मांड में ‘इतिहास के नियम’ का ज्ञान सिर्फ उन्हें ही है।
राष्ट्र-भक्ति दक्षिणपंथियों, तो वामपंथियों में पार्टी-भक्ति भीषण आस्तिकता जैसी है। ऐसे में करोड़ों भारतीय इन दो अतिवादी विचारधाराओं के बीच पिसते रहते हैं। वे किसी एक अतिवाद की शरण में जाने को इस कदर मजबूर हो जाते हैं, मानो वैचारिक विचारधारा से न जुड़ने की इच्छा मात्र ही गद्दारी के समान है। इसका मतलब यह नहीं है कि आदर्शवाद की मौत हो चुकी है। यह विचारधारा में बदल गया है, जिसने मनुष्य के मूल स्वभावों दोस्ती, प्रेम, वफादारी और निष्ठा को विद्रूप बना दिया है।
जायज ठहराने के नुस्खे .....
हमारा फोकस वामपंथ पर है। सो, जरा उस दौरान मानवाधिकार के आंकड़े खंगालिए, जहां सर्वोच्च सत्ता कम्युनिस्टों के हाथ में रही। जो तत्कालीन सोवियत संघ और चीन गणराज्य के इतिहास की जानकारी रखते हैं, वे पास्तरनाक और सोल्जेनित्सिन के निर्वासन, बुखारीन की न्यायिक हत्या, बड़े पैमाने पर लोगों को सजा और 1930 के दशक की सफाई (सभी तत्कालीन सोवियत संघ में) और चीन में 1958 से 62 के बीच सरकारी नीतियों से आए अकाल और ग्रेट लीप फारवर्ड अभियान के दौरान बड़े पैमाने पर हुई मौतों का जिक्र कर सकते हैं। हम 1966-69 की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान रेड गार्ड के उत्पात और 1989 में थ्यान अन मन चौक के नरसंहार को भी याद कर सकते हैं। हमें चीन के नोबेल पुरस्कार विजेता ली जियाबो की हाल ही में न्यायिक मौत पर भी गौर करना चाहिए, जो हमेशा अहिंसा के पक्षधर रहे और जिनका ‘अपराध’ इतना भर था कि वे चीन के संविधान में निहित लोकतांत्रिक प्रावधानों पर अमल की मांग कर रहे थे। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी न केवल मृत्युपर्यंत उनको कोसती रही, बल्कि उनकी विधवा का भी उत्पीड़न किया जा रहा है।
अब लौटते हैं अपने देश की ओर। हम याद करें, 2010 में 22 ईएफआर जवानों को माओवादियों ने उनके टेंट में जिंदा जला दिया। उसी साल ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस ट्रेन के पटरी से उतरने से 148 मौतें हुईं। माकपा काडर द्वारा 2012 में टीपी चंद्रशेखरन की और उससे पहले 2011 में नियामत अंसारी की हत्या की गई। आखिर इन सभी हिंसक घटनाओं के प्रति अलग-अलग धारा के कॉमरेडों की क्या प्रतिक्रिया होगी? कम्युनिस्टों के पास अपनी क्रूरताओं को जायज ठहराने के नुस्खों का कारखाना है, जैसा कि सभी आस्था आधारित परंपराओं के साथ होता है। इनके अंधविश्वास पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ते रहते हैं। यह आज भी उतना ही सच है, जितना 1930 या 60 के दशक में था। वामपंथी या कहें कि सामान्य कार्यकर्ता सच बोलने, करुणा और संवेदना जैसे गुणों से अपने आदर्शवाद को जिलाए रख सकते हैं, वरना वे राजनैतिक जोड़-तोड़ के पचड़े में फंस कर रह जाएंगे, जो आजकल समाज में व्याप्त है।
(लेखक मजदूर आंदोलनों के इतिहासकार, नेहरू मेमोरियल ट्रस्ट के सीनियर रिसर्च फेलो रहे हैं)