आदर्श और आदर्शवाद का नाम आते ही सबसे पहले याद आते हैं महात्मा गांधी और गांधीवाद, जो अब विद्रूप में ‘गांधीगीरी’ बन चुका है। गांधी ने नंगी-अधनंगी देश की जनता के प्रति उत्पन्न अपने दायित्व और अपराधबोध के तहत सूट का परित्याग कर लंगोटी धारण की, गांधी ने अछूतोद्धार और सांप्रदायिकता के विरोध में अपना जीवन उत्सर्ग किया। कहने पर भी गांधी ने अपने बेटे हरिलाल के लिए सिफारिश नहीं की। गांधी ने कहा, ‘साध्य ही नहीं, साधन भी पवित्र होने चाहिए।’ गांधी ने अपने हाथों मैला साफ किया, दूसरों को भी प्रेरित किया। जिन दिनों वे जातिप्रथा के समर्थक हुआ करते थे, ‘जाति-पांति तोड़क’ आंदोलन के नेता संतलाल बीए के पूछने पर उन्होंने कहा कि सबको अपनी-अपनी जाति के हिसाब से ही कर्म करना चाहिए। संतलाल ने कहा, ‘इसका मतलब है कि दलितों को हमेशा मैला ही ढोना चाहिए।’ वे चुप रहे। संतलाल ने आगे पूछा, ‘तब आप अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन क्यों चला रहे हैं, आप तो बनिया हैं, आपको दुकान खोलकर नून-तेल और आटा-दाल बेचना चाहिए।’ गांधीजी मुस्कराये, प्रश्नकर्ता की स्पष्टवादिता को सराहा और कहा, ‘वही तो कर रहा हूं।’ संतलाल ने आगे और भी दो-टूक सवाल किए, पर गांधीजी धैर्यपूर्वक सुनते रहे। गांधी के नाम पर दुकानदारी चलाने वालों में, काश, गांधी का एक भी गुण होता! यही स्थिति शहीद त्रयी भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के सुखदेव द्वारा लिखे एक पत्र, जिसमें चंद्रसिंह गढ़वाली के प्रति उनके रवैये और खुद समेत अन्य कैदियों की फांसी की सजा माफ कराने के उनके प्रयासों को कठघरे में खड़ा किया गया था, के समय भी उत्पन्न हुई, जिसका जवाब फांसी के पहले वे नहीं दे पाए, बाद में उन्होंने ‘हरिजन’ में दिया (यद्यपि वह भी संतोषप्रद नहीं था)। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस बनाम पट्टाभि सीतारमैया, हिंसा बनाम अहिंसा, चौरी चौरा, सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन, धर्म और जाति, खानपान आदि मुद्दों पर कई बार अपनी पूर्व स्थापनाओं से उन्हें विचलित होना पड़ा। गाय-भैंस के दूध को उन्होंने इसलिए छोड़ा कि मशीन द्वारा दूध निकाले जाते समय खून भी निकल आता था। लोगों के समझाने पर उन्होंने बकरी का विकल्प चुना, पता नहीं, कब तक अपने बदले आदर्श पर टिक पाए।
जाहिर है, आदर्श निरपेक्ष नहीं हो सकता, न ही रूढ़, मनुष्यता के हित में कई बार अपनी स्थापनाओं को, बदलते देश-काल के सापेक्ष बदलना भी पड़ता है। मजेदार बात यह है कि गांधीजी के बाद गांधी के नाम पर सत्ता सुख भोगने वाले किसी भी नेता ने कपड़ों के मायने में खुद को डी-क्लास नहीं किया, उलटे कई ने एक ही दिन में ईमान बदलने की तर्ज पर कई-कई बार वस्त्र बदलने के कीर्तिमान बनाए। किसी भी दावेदार ने दलित मुक्ति और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर वैसा स्टैंड नहीं लिया। गांधी के बाद सिफारिश तो सिफारिश, दलाली और घूस का लेना-देना तक आम बात हो गई, वह भी करोड़ों का। साध्य को प्राप्त करने के लिए हर तरह का साधन जायज है। ‘स्वच्छता’ अभियान स्वागतयोग्य कदम था पर मात्र झाड़ू लगाना या कचरे चुनना या खुले में शौच जाने के विरुद्ध प्रचार मात्र या सतही कामों से लक्ष्य प्राप्ति कैसे संभव है? मल निष्पादन को ही लें, गांधीजी की तरह हाथ से मैला साफ करना तो बड़ी दूर की बात है, पश्चिम की तरह टेक्नोलॉजी तक का उपयोग नहीं किया जाता, आज भी सेफ्टी टैंक में कुछ दलित जातियों के लोग ही उतरते हैं, बिना सुरक्षा उपकरणों के, और मरते हैं।
भाषा के प्रश्न पर गांधीजी ‘हिन्दुस्तानी’ के पक्षधर थे और हम...? हम तो हम, खुद उनकी प्रपौत्री इला गांधी को हमने दक्षिण अफ्रीका में विश्व हिंदी सम्मेलन में हमारी ‘टोका-टाकी’ और ‘कूं-कां’ को अनसुना करते हुए अंग्रेजी में बोलते सुना। इसी प्रकार यदि गांधीजी द्वारा कोई भी पद न स्वीकारने को आदर्श मानें तो गांधीजी के ही पोते राजमोहन गांधी के कई राजनयिक पदों पर रहने के बाद, हाल में चचेरे पोते गोपालकृष्ण गांधी उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बने। वंशवाद को सिर्फ नेहरू, मुलायम, लालू, तिलक का ही परिवार नहीं, गांधी का परिवार भी बढ़ा रहा है! गांधीवाद का विरोध सिर्फ आज नहीं, गांधी के काल में शुरू हो गया था जब उन्होंने स्वाधीनता के बाद कांग्रेस को भंग करने और राष्ट्रपति भवन समेत कई सुविधाओं को हटा देने की बात कही थी, एक भी काम नहीं किया गया।
सत्ताधारी पार्टियों ने कुछ वर्ष पहले तक वोट न देने को ‘राष्ट्रद्रोह’ या ‘देशद्रोह’ तक की संज्ञा दे डाली थी, उन्हीं वोटों पर चुनकर आए प्रतिनिधि जब बिक जाते हैं तो उसे क्या कहेंगे-‘देशभक्ति?’ सारे आदर्श दूसरों के लिए हैं, टोकने पर डांट देते हैं, ‘फलां को नहीं देखते? उनसे तो अच्छे हैं, हम!’ क्या सत्ताधारी, क्या प्रतिपक्ष सब अपने-अपने शासनकाल को ‘अच्छे दिन’ और प्रतिपक्ष के काल को ‘नरक’ बताते हैं। कभी-कभी तो एक ही व्यक्ति को स्वार्थ के लिए पार्टी-दर-पार्टी बदलते हम देखते हैं। जब जहां होता है, वहां उसे ‘अच्छे दिन’ दिखाई देते हैं।
भगवतीचरण वर्मा के मशहूर उपन्यास ‘चित्रलेखा’ में योगी कुमारगिरि राज दरबार में सबको ईश्वर का दर्शन कराते हैं। सभी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाते हैं, ‘हां हमने देखा।’ अकेली चित्रलेखा अड़ जाती है, ‘कहां, हमने तो नहीं देखा।’ सच कहने का साहस और सच के लिए संघर्ष करने का सत्साहस खोते जा रहे हैं हम। जितने-जितने लोग, उतने-उतने सच! पिछड़ा वर्ग के नाम पर अपनी-अपनी जाति को रेवड़ी, फिर उससे आगे परिवारवाद हम देख ही रहे हैं, एक दूसरे की खोट निकालते नेताओं के बेशर्म तर्क-वितर्क देख ही रहे हैं। इरोम शर्मीला को मिले वोटों की संख्या हमारे सामने है। कुल मिलाकर सत्ता के शिखर से जन-जन की जमीन और जमीर का यह हाल है। आजादी के 70 साल बाद तक हमने कैसा हिन्दुस्तान बनाया है कि हर आदमी पहले अपनी जाति, अपना परिवार, अपना स्वार्थ देखता है, किस आदर्श की बात करते हैं हम?
जंगल में जब नया शेर पुराने शेर को पराजित कर खदेड़ देता है तो उसके बच्चों को भी खा जाता है और शेरनी से अपने बच्चे पैदा करता है। इस जंगलराज से कितनी दूर जा पाए हैं हम? विरोध करने पर विरोधी की हत्या—गांधी और दीनदयाल उपाध्याय की हत्या से लेकर दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और केरल में इधर की हत्या-प्रतिहत्या की एक-सी दास्तान है।
विरोध के लिए विरोध! देश के सभी लोग जाति उन्मूलन, तीन तलाक, कश्मीर समस्या, स्वच्छता अभियान, किसानों की आत्महत्या, अपराधिकी, जनसंख्या विस्फोट, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे राष्ट्रहित के मुद्दों पर एक क्यों नहीं होते? जब तक हम सर्वजनहिताय में अपने ‘स्व’ को विसर्जित नहीं करते, किसी भी आदर्श की बात करना बेमानी है। आदर्श तो बड़े-बड़े गढ़े गए। गांधीजी ने ‘त्याग’ का पाठ पढ़ाया, नेहरूजी ने ‘विज्ञान और टेक्नोलॉजीयुक्त विकास’ के मॉडल दिए और उन्हें नए मंदिरों की संज्ञा दी, इंदिराजी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा। लालबहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान, जय किसान’ को चरितार्थ करते हुए ‘हरित क्रांति’ की नींव रखी तो वाजपेयी ने उस नारे में ‘जय विज्ञान’ को जोड़ते हुए ‘भय भूख और भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ का नारा दिया। डॉ. आंबेडकर और बाद में किंचित लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने ‘जाति उच्छेद और सामाजिक न्याय’ का आह्वान किया। ये सभी मुद्दे जरूरी थे पर तत्काल एक और जरूरी मुद्दा रह गया था ‘जाति उच्छेद के साथ-साथ परिवार नियोजन या जनसंख्या विस्फोट’ का, जिसे संजय गांधी ने उठाया, मगर वह दुष्चक्र में फंस कर रह गया। मौजूदा सरकार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘सब का साथ सब का विकास’ का नारा दिया है जिसकी अग्निपरीक्षा जारी है।
मेरा विनम्र सवाल यह है कि क्या हम अपने देश को जानते हैं। वर्षों पहले आदिवासी अंचलों में घूमते हुए मैं कहीं-कहीं यह देखकर ठगा-सा रह गया कि कितने ऐसे लोग हैं, जिन्होंने मिठाई का स्वाद तक नहीं चखा। कुछ दूध बिलकुल नहीं पीते, कुछ सूअर का दूध भी पीते हैं। सदियों से असुर जनजाति हैमेटाइट लौह अयस्क से लोहा बनाती आई थी, जिसके प्रोत्साहन की कोई कोशिश नहीं हुई। ‘काठ के वन’ में रहते हुए भी कइयों के पास खाट नहीं थी घर में। डॉक्टर नहीं थे, हारी-बीमारी में ओझा ‘जानगुरु’ की झाड़-फूंक ही सहारा थी। बाद में वहां गई लेखिका मधु कांकरिया को सौभाग्य से मिल गए थे डॉ. बाजपेयी, जिन्हें मधु ने अपनी पुस्तक बादलों में बारूद में उद्धृत किया है—
‘‘शायद किसी उदास काली रात में ही रचा गया होगा यह भूखंड कि आज तक इनके साथ न्याय नहीं हो पाया। जरा सोचिए, सारे भारत का आठ करोड़ का यह वनवासी समाज कितना बॉक्साइट, लोहा, कागज, कोयला, अभ्रक, खाद्यान्न, लकड़ी, जड़ी-बूटी, सब्जी सभी कुछ पैदा करता है, पर उपयोग क्या करता है? बिजली, पेट्रोल, धातु, साइंस, टेक्नोलॉजी और गैस सिलेंडर तो दूर की बात है, किसी भी प्रकार के प्रदूषण में इसका हाथ नहीं, यह समाज आज भी ‘वेस्ट ऐट रिपेइंग’ समाज है जबकि हमारी संस्कृति अधिक से अधिक ‘एक्वायर ऐंड एंजॉय’ की संस्कृति है।’’
डॉक्टर साहब ने जितना बताया, चीजें उससे कहीं ज्यादा मारक हैं। क्रिश्चियन मिशनरियां, अशोक भगत, डॉ. बाजपेयी और नक्सलवादी कुछ संगठनों, कुछ ईमानदार अफसरों तथा के.बी. सक्सेना, ब्रह्मदेव शर्मा, ए.के. राय या शिबू सोरेन जैसे जमीनी नेताओं के कुछ सफल-असफल प्रयासों के बावजूद उन्हें अरण्यमुखी व्यामोह से निकालकर विकास की मुख्यधारा में लाने की जरूरत है। कौन लाएगा?
कुछ ऐसे ही जलते अनुभव किसानों की आत्महत्या पर काम करते हुए मुझे महाराष्ट्र के कुछ जिलों में हुए। समस्या की तह में जाने और इससे मुक्ति पाने की ईमानदार कोशिशें नहीं हुईं। ‘जंतर-मंतर’ पर किसानों के प्रदर्शनों ने भी सरकार और मीडिया के ध्यान को आकर्षित नहीं किया। हमारी समझ से परे है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी जो निरक्षर और असहाय है, वह ‘नोटबंदी’, ‘डिजिटल इंडिया’, एंड्राएड मोबाइल फोन, कारों, करोड़पतियों, अरब-खरब पतियों आदि से कितनी मजबूत और सुखी-संपन्न हुई है। तीन-चौथाई से ज्यादा ग्रामीण और आदिवासी और विपन्न भारत, करोड़ से भी अधिक खर्चीली उच्च शिक्षा से अपनी संततियों को शायद ही कभी जोड़ पाने में समर्थ होगी।
किसानों की जै-जैकार या ‘जय विज्ञान’ कह देने मात्र से न किसानों के आंसू पोंछे जा सकते हैं, न हम विज्ञानव्रती हो सकते हैं। इसी तरह ‘नमामि गंगे’ कह देने भर से न गंगा निर्मल हो जाएगी, न ही ‘गाय हमारी माता है’ कह देने और गो-रक्षा के नाम पर गुंडागर्दी करने भर से ‘गो-रक्षा’ हो जाएगी। इसी का फल है कि अपने ऊपर पड़ने वाली तमाम फजीहतों के बावजूद किसानों ने रेकॉर्ड गेहूं उपजाये, रेकॉर्ड टमाटर, प्याज और सब्जियां, मगर प्रशासन तंत्र उन्हें संरक्षित न कर पाया। कितना टन गेहूं गोदामों या उसके बाहर सड़ गया, तीन रुपये किलो खरीद कर बिचौलियों ने 30 रुपये या उससे अधिक तक बिकवाई और मोटी कमाई की। यही हाल टमाटर का है। आलू का तो लागत मूल्य भी नहीं निकला। सड़कों पर फेंक दी गईं सब्जियां, टमाटर आदि बर्बादी की नहीं, हमारे तंत्र के गैर-जिम्मेदाराना रवैए की दास्तान कहते हैं। प्याज की तो इंतहा ही हो गई।
आस्था और तर्क के परस्पर विरोधी ध्रुवों के बीच घिसटता मेरा अपना देश, जहां दुनिया की एक-तिहाई निर्धन आबादी रहती है, जहां दवा-दारू के अभाव या कुपोषण में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की सर्वाधिक मौतें होती हैं, जहां सरकारी सद्प्रयासों के बाद भी गांवों और शहर की झुग्गियों में ज्यादातर लोग खुले में शौच करते हैं, जहां दुनिया के सर्वाधिक बेघर लोग रहते हैं, जहां की झुग्गियों की कुल आबादी ब्रिटेन की कुल आबादी की तीन गुना है, जहां डर कर भी कोई आदर्शवादी नेता हिंदू-मुस्लिम के पुनरुत्थानवादी कदाचार और कट्टरता, जनसंख्या आदि पर उंगली नहीं रखता और कुर्सी बचाने के लिए कोई जोखिम उठाना नहीं चाहता, जहां आस्था के उठे गड़ांसे ने कितनों के सिर विच्छेद कर दिए हैं, वहां वाजपेयी जी के ‘भय, भूख और भ्रष्टाचार’ तथा मोदी जी के ‘सबका साथ सबका विकास’ कैसे चरितार्थ हो पाएंगे? याद आती हैं चंबल के एक लोक कवि की पंक्तियां -
का पानी में घुलि गयो, वा माटी की भूल
गुठली रोपी आम की फिर-फिर फरत बबूल!
(लेखक प्रख्यात साहित्यकार, किसानों की आत्महत्या पर फांस उनका चर्चित उपन्यास है)