आखिर खेल क्या है? क्या यह केवल एक ऐसी गतिविधि भर है जिसका एक साध्य है, या फिर यह साध्य का एक साधन है? क्या हम किसी पेशेवर खिलाड़ी को किसी दिग्गज कारोबारी के बराबर रखकर यह कह सकते हैं कि दोनों को अपने-अपने कामों के हिसाब से ही पैसे मिले हैं। यानी जितना श्रेष्ठ प्रदर्शन, उतनी ही अधिक कमाई। क्या आज के दौर में खेल भी किसी सामान्य नौकरी जैसा काम है या फिर यह अनुशासन में रहते हुए उस उच्च लक्ष्य को प्राप्त करना है, जिसका आरंभ और अंत अद्भुत कौशल के जरिए उच्चकोटि के शारीरिक प्रदर्शन में होता है, जिससे दुनिया वाहवाह कर उठे। ऐसे किसी प्रतिभाशाली खिलाड़ी के लिए क्या अंतिम इनाम एक ओलंपिक पदक या फिर क्रिकेट विश्व कप जीतना होना चाहिए या फिर आइपीएल की नीलामी में सबसे मंहगे क्रिकेटर के रूप में बिक जाना भर होना चाहिए? इससे पहले कि मैं सवालों की बमबारी से आपको और ज्यादा भ्रमित करूं, पहले आपको यह स्पष्ट कर दूं कि आखिर मैं यह क्यों पूछ रहा हूं। दरअसल मैं यह पता लगाना चाहता हूं कि आज की खेल की दुनिया में कोई आदर्शवाद आखिर बचा भी है, या फिर यह भी किसी दूसरी व्यावसायिक गतिविधियों जैसा ही हो गया है जहां पैसा, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। 1896 में जब पियरे द कुबर्तिन नामक कुलीन फ्रांसीसी इतिहासकार ने आधुनिक ओलंपिक की स्थापना की थी तो उन्होंने कहा था कि जीवन में सबसे जरूरी चीज जीतना नहीं, बल्कि अच्छे तरीके से लड़ना है। यानी प्रतिस्पर्धात्मक खेलों में भी आदर्शवाद का प्रभामंडल होना चाहिए। लेकिन आज ये अतीत की बातें होकर रह गई हैं। अब तो जीतना ही एकमात्र लक्ष्य होता है। चाहे कैसे भी विजय हासिल हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप शिखर तक पैसे के बल पर पहुंचे या ड्रग्स के दम पर। मतलब रखता है तो सिर्फ और सिर्फ पदक। जीत ही सब कुछ है। जो केवल खेलभावना से प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हैं, वे पीछे छूट जाते हैं। यह दुनिया है विजेताओं की। राष्ट्रगान भी तो सिर्फ जीतने वाले के लिए होता है। उनके लिए नहीं, जो हार जाने के खतरे के बावजूद खेल-भावना से खेल रहे होते हैं।
आज तो आलम यह है कि ओलंपिक में पदक जीतते ही विजेता पर धन की वर्षा शुरू हो जाती है। खासतौर से अगर आप भारत जैसे पदक के लिए तरसते देश के हों तो रातोरात आप राष्ट्रीय नायक बन जाते हैं। यह बदलाव इतनी तेजी से होता है कि खिलाड़ी भी इस नई सच्चाई से सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं। लेकिन यह शोर उन अच्छे खिलाड़ियों को अच्छी और बेहतर सुविधाओं के साथ अनुकूल वातावरण देने के लिए नहीं है, जो खेल में ही आगे बढ़ सकते हैं, विजेता बन सकते हैं। लेकिन जैसे ही विजेता हुआ कि उसे धन से लाद दिया जाने लगता है। इन इनामों और धन का वजन इतना अधिक होता है कि खिलाड़ी का वजूद ही खतरे में पड़ जाता है।
हालांकि एक वक्त ऐसा भी था जब व्यावसायिकता को ओलंपिक के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता था। ओलंपिक खेलों के संस्थापकों का मानना था कि पैसा खेलों की शुचिता को नष्ट कर सकता है, इसलिए जो खिलाड़ी खेलने के लिए पैसा लेते थे उनके ऊपर प्रतिबंध लगने का खतरा रहता था। जिम थॉर्प अपने समय के बेहतरीन एथलीटों में गिने जाते थे। उन्होंने 1912 ओलंपिक में दो पदक जीते थे, लेकिन उनसे पदक इसलिए छीन लिए गए थे क्योंकि उन्होंने एक पेशेवर बेसबॉल प्रतियोगिता में प्रति गेम दो डॉलर लेकर खेलने की भूल कर दी थी।
लेकिन आज दुनिया तेजी से बदल गई है। अब पैसे लेकर खेलना कोई शर्म की बात नहीं रह गई है। आजकल ओलंपिक आयोजक एक बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं और वह है ड्रग यानी मादक पदार्थ। ड्रग आज खेल की अखंडता और आदर्शवाद के लिए बड़ा खतरा बन गया है।
1988 ओलंपिक में जमैका में जन्मे कनाडा के बेन जॉनसन ने महान धावक कार्ल लुईस को पीछे छोड़कर 9.79 सेकेंड में 100 मीटर की दौड़ पूरी कर खेल की दुनिया में तहलका मचा दिया था। लेकिन यह विस्मय जल्द ही तब नफरत में बदल गया जब लोगों को पता चला कि बेन जॉनसन के इस बेजोड़ प्रदर्शन के पीछे प्रतिबंधित दवाओं का कमाल था। प्रतिबंधित दवाएं समय-समय पर खेलों की दुनिया को झकझोरती रही हैं। इनकी वजह से रातोरात कोई खिलाड़ी हीरो से जीरो बन जाता है।
जिस दुनिया में पहले भागीदारी अहमियत रखती थी, वहां तेजी से सफलता पाना ही सब कुछ हो गया। अब इन बदले मूल्यों की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसे किसी भी स्तर की आलोचना या निंदा से छिपाया नहीं जा सकता है कि विभिन्न देशों ने विजेता खिलाड़ियों को पैदा करने के लिए डोपिंग कार्यक्रम तक चलाए। प्रयोगशालाओं में अरबों रुपये खर्च कर ऐसी ड्रग बनाने की कोशिश की जाती रही जो खिलाड़ियों को थोड़ा फायदा पहुंचाकर उसे पराजित से विजेता में बदल दे। वह भी ऐसे समय में जब हार-जीत का फासला सेकेंड के सौवें भाग में होता है, यानी केवल बाल बराबर का अंतर।
जर्मनी, इटली, रूस और यहां तक कि अमेरिका भी इस तरह के गुप्त प्रयोगों से अछूते नहीं हैं, जो अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति की सख्त जांच के बावजूद पकड़ में नहीं आते। यह कोई मायने नहीं रखता कि ओलंपिक के आयोजक कितना संसाधन और व्यक्तियों को ड्रग की रोकथाम के लिए लगाते हैं। दरअसल, ओलंपिक समिति हारी हुई जंग लड़ रही है। अक्सर एक सुझाव आता है कि डोपिंग को अपराध की श्रेणी से हटा देना चाहिए, ताकि सबके लिए बराबर मौका हो। यह ऐसा सुझाव है कि अगर हम चोर को नहीं पकड़ सकते हैं तो चोरी को ही मान्यता दे दें। हालांकि यह घृणित सुझाव एकबारगी ऐसे समय के अनुरूप ही लगता है जहां पदक जीतना राष्ट्र गौरव को बढ़ाना माना जाता है और खेल प्रतियोगिताओं को सीमा पर लड़े जाने वाले युद्ध के बराबर। भारत जैसे देश में, जहां पदकों का घोर अकाल हो, वहां तो खिलाड़ियों को दुश्मन पर जीत हासिल करने वाले योद्धा की तरह देखा जाता है। इन हालात में ड्रग से जीवन के खतरे को तो मामूली ही कहा जाएगा। भारत जैसे देश में जहां खेल क्रिकेट से शुरू होकर क्रिकेट पर ही खत्म हो जाता है, केवल ड्रग ही मुद्दा नहीं है। इन खेलों पर खतरा खिलाड़ियों की लालच से है।
क्रिकेट की जड़ें परंपराओं में हैं और जो हमेशा से औपनिवेशिक नजरिए से देखा जाता रहा है। यह अब टी-20 के रूप में तेज संस्करण बन गया है। पहले यह ब्रिटिश अभिजात वर्ग का शौक था। मजदूर वर्ग को खेलने के लिए पैसा दिया जाता था, जिन्हें पेशेवर कहा जाता और जो अपमानजनक माना जाता था।
आज इस खेल को भारतीय खेल कहना गलत नहीं होगा क्योंकि आज क्रिकेट की अर्थव्यवस्था में 80 फीसदी हिस्सेदारी भारत की है। अगर भारत किसी अंतरराष्ट्रीय मैच से पीछे हटने की धमकी देता है तो क्रिकेट जगत को पसीना आ जाता है। भारत के कुछ खिलाड़ी तो दुनिया के सबसे अमीर खिलाड़ियों में गिने जाते हैं। उनकी तुलना मेसी और फेडरर से होती है, लेकिन सब जानते हैं कि इतनी कमाई के बावजूद खेल नष्ट हो रहा है। क्रिकेट खिलाड़ी मैच फिक्सिंग, स्पॉट फिक्सिंग और दूसरे कई कारनामों में लिप्त हैं।
चकाचौंध से भरपूर इंडियन प्रीमियर लीग दो माह तक चलने वाला इवेंट है। इसमें दुनिया भर के सबसे अच्छे ऐसे खिलाड़ियों को एक साथ लाया जाता है जो छक्के और चौके मारने की क्षमता रखते हैं। खिलाड़ियों पर पैसा बरस रहा है, लेकिन कई आरोप भी लग रहे हैं। कुछ लोग तो इसकी तुलना डब्ल्यूडब्ल्यूएफ से करने लगे हैं जहां कुश्ती तो होती है लेकिन पहले से ही सब कुछ तय होता है।
इसके बावजूद खेल का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि तमाम आशंकाओं, आरोपों और कुटिलताओं के बावजूद यह अब भी पहले जितनी ही रुचि से देखा जाता है। राहुल द्रविड़ का ऑन साइड में फ्लिक, सचिन तेंडुलकर का स्ट्रेट पंच या सौरभ गांगुली का कवर ड्राइव प्रशंसकों को उमंग से भर देता है। इसी तरह रोजर फेडरर जब भागते हैं तो अपना पिछला हाथ खोलते हैं लेकिन उनकी कोई भी मांसपेशी अपनी जगह से हिलती नहीं दिखती है। वह एक बैले डांसर की तरह दौड़ते हैं। ऐसे में जीत-हार से दूर खेल देखना ही अपने आप में शानदार अनुभव होता है। इसलिए खेल में आदर्शवाद तो खत्म हो सकता है, लेकिन खेल हमेशा जिंदा रहेगा।
(लेखक प्रख्यात खेल स्तंभकार, संप्रति न्यू इंडियन एक्सप्रेस में सलाहकार संपादक हैं)