ओलंपिक में पदक जीतने का क्या असर होता है, इसका अंदाजा रियो ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने वाले खिलाड़ियों की सूची देखकर लगाया जा सकता है। इस बार 120 खिलाड़ियों ने क्वालीफाई किया है। हालांकि डोप टेस्ट में कुछ एथलीटों के फेल होने की वजह से यह संख्या घट सकती है, लेकिन फिर भी चार साल पहले लंदन ओलंपिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों से यह संख्या लगभग ड्योढ़ी है। लंदन ओलंपिक में भारतीय खिलाड़ियों ने पहली बार आधा दर्जन पदक जीते थे। हालांकि उस समय इतने पदकों की उम्मीद किसी ने नहीं की थी, लेकिन इस बार उम्मीदों का आकाश ज्यादा बड़ा है। आम आदमी से लेकर खेल विशेषज्ञ तक सभी मानकर चल रहे हैं कि इस बार पदकों की संख्या दो अंकों में पहुंच सकती है। ज्यादा खिलाड़ियों का क्वालीफाई करना इस उम्मीद की बड़ी वजह है और साथ ही, इन चार बरसों में अलग-अलग अंतरराष्ट्रिय प्रतियोगिताओं में भारतीय खिलाड़ियों का बेहतर प्रदर्शन भी है। पूर्व अंतरराष्ट्रिय बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद का यह कहना बिल्कुल दुरुस्त है,‘अब हमारे खिलाड़ी ओलंपिक में अनुभव हासिल करने या स्मृति चिह्न एकत्रित करने नहीं बल्कि प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देकर पदक जीतने का लक्ष्य लेकर जाते हैं।’
वे दिन अब पीछे छूट गए जब हमें मजबूरन कार्ल लुइस, एडविन मोजेज, माइकल जॉनसन, मौरिस ग्रीन, इयान थोर्प, डेली थांप्सन सरीखे एथलीटों की यशोगाथा या उनके किस्सों से ही अपना मन बहलाना पड़ता था। अभिनव बिंद्रा, साइना नेहवाल, मैरीकॉम, विजेंदर, सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त और गगन नारंग सरीखे हमारे अपने नायक हैं। नायक तलाशने के लिए अब हमें बाहर देखने की जरूरत नहीं है। दरअसल, ओलंपिक में अर्से तक हमारी आकांक्षाएं हॉकी के इर्द-गिर्द रहीं। बेशक, खाशाबा जाधव (1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में कांस्य पदक) अपवाद रहे। बाद में हॉकी में भी निराशाजनक दिन देखने पड़े। हॉकी में पदक जीते भी 36 वर्ष हो गए हैं। हॉकी में पिछली बार पदक हमने 1980 के ओलंपिक में कई देशों की गैर मौजूदगी में जीता था। लॉस एंजिल्स (1984), सियोल (1988) और बार्सिलोना (1992) ओलंपिक में पदक तालिका में हमारा कहीं नाम ही नहीं था। अटलांटा ओलंपिक (1996) में लिएंडर पेस के कांस्य पदक के साथ एक नई शुरुआत हुई। सिडनी (2000) में कर्णम मल्लेश्वरी भी कांस्य पदक जीतने में कामयाब रही। चार साल बाद एथेंस (2004) में निशानेबाजी में मेजर राज्यवर्धन सिंह राठौर के रजत पदक ने अभिनव बिंद्रा सरीखे युवाओं को इस कदर प्रेरित किया कि उन्होंने बीजिंग (2008) में स्वर्ण पदक पर निशाना साध दिया। विजेंदर और सुशील कुमार भी मुक्केबाजी और कुश्ती में तमगा जीत लाए। बीजिंग ओलंपिक के तीन पदकों ने नया रास्ता खोला जो लंदन में छह पदकों तक पहुंच गया और अब दस पदकों से ज्यादा का सपना आंखों में पलने लगा है।
इस सपने को साकार करने के लिए हमारे निशानेबाजों को रियो में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना होगा। पिछले तीन ओलंपिक में हर बार हमारे निशानेबाजों ने कोई न कोई पदक जीता है। अच्छी बात यह है कि निशानेबाजी टीम में सभी विश्वस्तरीय खिलाड़ी हैं। ओलंपिक में देश को इकलौता व्यक्तिगत स्वर्ण पदक दिलाने वाले अभिनव बिंद्रा लंदन ओलंपिक की नाकामी को भूला रियो में नई इबारत लिखने के लिए बेकरार हैं। दस मीटर एयर राइफल में हालांकि चुनौती कम नहीं है लेकिन अभिनव ने दिन-रात एक कर दिया है। अभ्यास सत्र में हासिल स्कोर को अगर वह दोहराते हैं तो स्वर्ण पदक उनकी पहुंच में होगा।
वैसे इस बार निशानेबाजी में भारत के लिए पदक जीतने की शुरुआत जीतू राय कर सकते हैं। ओलंपिक उद्घाटन समारोह के अगले दिन छह अगस्त को जीतू राय की पसंदीदा स्पर्धा 10 मीटर एयर पिस्टल का फाइनल है। इस स्पर्धा में जीतू राय दुनिया के शीर्ष तीन खिलाड़ियों में आते हैं। जीतू राय 50 मीटर पिस्टल स्पर्धा में भी भाग लेंगे और यहां वह दुनिया के दूसरे शीर्ष खिलाड़ी हैं। नेपाली मूल के भारतीय सेना के इस निशानेबाज ने एशियाई और कॉमनवेल्थ गेम्स से लेकर तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीते हैं। हालांकि वर्ष 2015 जीतू राय के लिए ज्यादा अच्छा नहीं रहा, लेकिन इस साल फिर वह लय में आते दिख रहे हैं और उनकी निगाह सिर्फ स्वर्ण पर है। गगन नांरग तीन स्पर्धाओं, 10 मीटर एयर राइफल, 50 मीटर राइफल प्रोन, 50 मीटर राइफल 3 पोजीशन में आजमाइश करेंगे। चार साल पहले लंदन में कांस्य पदक जीतने वाले गगन नारंग ओलंपिक में अपनी प्रतिभा के अनुरूप प्रदर्शन करते हैं तो इस बार भी पदक उनके हिस्से में होगा। गगन नारंग के साथ सेना के चैन सिंह भी 50 मीटर राइफल प्रोन और 50 मीटर राइफल 3 पोजीशन में आजमाइश करेंगे। चैन सिंह के ही साथी गुरप्रीत सिंह 10 मीटर एयर पिस्टल और 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल में पदक के दावेदार रहेंगे। 50 मीटर पिस्टल में प्रकाश नांजप्पा, स्कीट में मेराज अहमद खान, और ट्रैप में किनान चेनाई और मानवजीत संधू अपनी दावेदारी पेश करेंगे। महिला वर्ग में अपूर्वी चंदेला और अयोनिका पॉल 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में तो हिना सिद्धू 10 मीटर एयर पिस्टल और 25 मीटर पिस्टल स्पर्धा में भाग लेंगी। कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण जीत चुकी तेईस साल की अपूर्वी चंदेला ने वर्ष के शुरू में स्वीडिश ग्रां प्री में विश्व रिकॉर्ड बनाकर सबको चौंका दिया था। ओलंपिक में भी अपने प्रदर्शन से वह सबको हैरान कर सकती हैं। पूर्व ओलंपियन जयदीप कर्मकार का आकलन है कि इस बार कम से कम छह निशानेबाज फाइनल में जगह बना सकते हैं।
लंदन ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता साइना नेहवाल इस बार भी पदक की प्रबल दावेदार रहेंगी। लंदन में चीनी खिलाड़ी के बीच मैच में हटने के बाद उन्हें कांस्य पदक मिला था लेकिन इन चार वर्षों में साइना नेहवाल अंतरराष्ट्रीय बैडमिंटन प्रतियोगिताओं में चीनी खिलाड़ियों को परास्त कर दिखा चुकी हैं कि वह किसी दबाव में आने वाली नहीं हैं। पिछले वर्ष तो वह नंबर वन तक भी पहुंची। पूर्व अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी विमल कुमार के मार्गदर्शन में साइना नेहवाल ने हाफ स्मैश पर कड़ी मेहनत की है। आस्ट्रेलियाई ओपन जीतने की राह में दुनिया की शीर्ष खिलाड़ियों को हराने का अनुभव रियो में बेहद मददगार होगा। साइना नेहवाल कहती हैं, ‘आस्ट्रेलियाई ओपन में जीत बिल्कुल सही समय पर आई है। मनोबल बढ़ाने के लिए जीत से बढ़कर कुछ और नहीं होता।’ साइना नेहवाल को भरोसा है कि जिस दिन वह शत-प्रतिशत फिट रहती हैं, उस दिन किसी को भी हरा सकती हैं। ऐसा उन्होंने कई मौकों पर करके दिखाया भी है। राष्ट्रीय कोच औऱ पूर्व अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी पी. गोपीचंद भी साइना को पदक का प्रबल दावेदार मानते हैं। सिर्फ नेहवाल ही नहीं, उन्हें पी.वी. सिंधु और के. श्रीकांत से भी अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है। इस बार ओलंपिक में भारत के सात बैडमिंटन खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। खिलाड़ियों की तैयारियों को देखते हुए गोपीचंद का आकलन है कि इस बार पदक जीतने के ज्यादा अवसर हैं। महिला युगल में ज्वाला गु्ट्टा और अश्विनी पोनप्पा तथा पुरुष युगल में मनु अत्री और सुमित रेड्डी की जोड़ी अपनी चुनौती पेश करेंगी।
कुश्ती में नरसिंह यादव का डोप टेस्ट में फेल होना बड़ा झटका है। 74 किलोग्राम वर्ग (फ्रीस्टाइल) में वह पदक के प्रबल दावेदार होते। खैर, उनकी गैर मौजूदगी में भी कुश्ती में कुछेक पदकों की आस बरकरार है। योगेश्वर दत्त (65 किलोग्राम फ्रीस्टाइल) एलान कर चुके हैं कि इस बार वह स्वर्ण पदक के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे। योगेश्वर दत्त ने लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीता था लेकिन वह संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने उसी समय रियो ओलंपिक में स्वर्ण पदक का लक्ष्य तय कर लिया था। लक्ष्य हासिल करने के लिए उन्होंने खाने-पीने की पसंदीदा चीजों तक का त्याग कर दिया। कॉमनवेल्थ और एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक विजेता योगेश्वर को इस दौरान चोट ने भी परेशान किया, लेकिन अपनी हिम्मत और जज्बे के बल पर उन्होंने सभी बाधाएं पार कर दिखाईं। फ्रीस्टाइल में ही 57 किलोग्राम वर्ग में संदीप तोमर और ग्रीको-रोमन में रवींद्र खत्री (85 किलो) तथा हरदीप (98 किलो) अपनी चुनौती पेश करेंगे।
महिला वर्ग में पिछली बार सिर्फ एक पहलवान ने ओलंपिक के लिए क्वालीफाई किया था लेकिन रियो में तीन पहलवान विनेश फोगट (48 किलो), बबीता कुमारी (53 किलो) और साक्षी मलिक (58 किलो) भाग ले रही हैं। तीनों ही बेहद प्रतिभाशाली हैं। पूर्व पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘विनेश फोगट जबरर्दस्त फार्म में है। पिछले दो साल में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उनका प्रदर्शन शानदार रहा है। बेशक रियो में वह पदक की प्रबल दावेदार रहेंगी लेकिन बबीता और साक्षी मलिक से भी पदक की उम्मीद की जा सकती है।’
निर्भीक रवैया और खुद पर भरोसा विनेश फोगट को उत्कृष्ट बनाता है। खान-पान में अनुशासन और कठोर अभ्यास ने विनेश को बेहद मजबूत प्रतिद्वंद्वी बना दिया है। एशियाई खेलों की कांस्य और कॉमनवेल्थ गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता विनेश अब सिर्फ स्वर्ण पदक के बारे में सोच रही हैं। विनेश कहती हैं, ‘ओलंपिक सरीखी प्रतियोगिता में हरेक प्रतिद्वंद्वी मजबूत होता है। रियो में भी कोई भी कमतर नहीं होगा। एशियाई पहलवान मजबूत प्रतिद्वंद्वी हैं। मैं भी एशियाई हूं और इसलिए मैं स्वयं को मजबूत मानती हूं।’ जानकारों का मानना है कि 21 वर्षीय विनेश रियो में नई ऊंचाइयां छू सकती हैं।
तीरंदाजी में दीपिका कुमारी पदक की प्रबल दावेदारी रहेंगी। व्यक्तिगत और टीम मुकाबलों, दोनों में वह शिरकत करेंगी। चार साल पहले लंदन में भी उनसे पदक की उम्मीद की गई थी, लेकिन उस समय वह वहां की आबोहवा और माहौल से तालमेल नहीं बिठा पाने के कारण नाकाम हो गई थीं। लेकिन पिछले चार वर्षों में उन्होंने काफी कुछ सीखा है। आज की तारीख में परिस्थितियों को भांपने में वह ज्यादा बेहतर हैं। कुछ ही महीने पहले दीपिका ने रिकर्व स्पर्धा में विश्व रिकॉर्ड की बराबरी कर बता दिया कि रियो के लिए वह पूरी तरह तैयार हैं। शंघाई में संपन्न उस प्रतियोगिता में दीपिका ने 720 में 686 का स्कोर कर विश्व रिकॉर्ड की बराबरी की। दीपिका की फार्म और अनुभव देखते हुए पूर्व तीरंदाज डोला बनर्जी को भी यह विश्वास हो चला है कि इस बार भारतीय तीरंदाज दो पदक जीत सकते हैं। दीपिका अपने और अपनी साथी खिलाड़ियों बोंबायला देवी और लक्ष्मीरानी मांझी के बूते तीरंदाजी में पदक जीतने की शुरुआत कर सकती हैं।
टेनिस सर्किट में भारतीय खिलाड़ियों-लिएंडर पेस, महेश भूपति, सानिया मिर्जा, रोहन बोपन्ना आदि की युगल और मिश्रित युगल में धूम रही है। अलग-अलग जोड़ीदारों के साथ इन खिलाड़ियों ने कई ग्रैंड स्लैम खिताब जीते हैं लेकिन अफसोस की बात है कि ओलंपिक में हमारे खिलाड़ी वही प्रदर्शन नहीं दोहरा पाए। हां, लिएंडर पेस ने एकल स्पर्धा में जरूर अटलांटा ओलंपिक (1996) में कांस्य पदक जीता था। वैसे पदक की होड़ में कभी तालमेल की कमी तो कभी खिलाड़ियों का अहम आड़े आ गया। हां, अगर रोहन बोपन्ना और लिएंडर अच्छे तालमेल के साथ कोर्ट में उतरते हैं तो पदक की उम्मीद की जा सकती है। मिश्रित युगल में सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना ने अगर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया तो पदक झोली में आ सकता है।
बीजिंग ओलंपिक में विजेंदर के कांस्य पदक के बाद मुक्केबाजी के प्रति देश में जबर्दस्त माहौल बना था। लंदन ओलंपिक में तो हमारे आठ मुक्केबाज खेले थे लेकिन इस बार सिर्फ तीन मुक्केबाज मनोज कुमार (64 किलो), शिव थापा (56 किलो) और विकास कृष्ण यादव (75 किलो) ही ओलंपिक का टिकट हासिल कर पाए। दरअसल, वर्ष 2012 से ही देश में मुक्केबाजी का कोई संघ या ढांचा नहीं है। घरेलू स्पर्धाओं के अभाव में नई प्रतिभाएं सामने नहीं आ पा रही हैं। ऐसी स्थितियों में तीन मुक्केबाजों का क्वालीफाई करना भी कम बड़ी बात नहीं है। तीनों मुक्केबाज अनुभवी हैं। रियो के लिए सबसे पहले क्वालीफाई करने वाले शिव थापा ने लंदन ओलंपिक में भी शिरकत की थी लेकिन वहां वह पहले राउंड में ही बाहर हो गए थे। लेकिन इस बार वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे। तैयारियों और उनके प्रदर्शन को देखते हुए माना जा रहा है कि इस बार यह मुक्केबाज पदक का प्रबल दावेदार रहेगा। विकास कृष्ण यादव पिछले ओलंपिक में गलत फैसले का शिकार बन गए थे। मनोज के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था लेकिन इस बार दोनों हिसाब बराबर करने को बेताब हैं।
भारतीय हॉकी अपने स्वर्णिम अतीत के लिए जानी जाती रही है। ओलंपिक में आठ स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य पदक जीतने वाला भारत पिछले 36 साल से ओलंपिक में पदक के लिए तरस रहा है। पर, पिछले एक-डेढ़ साल में भारतीय हॉकी टीम के प्रदर्शन ने पदक की आस जगा दी है। अजलान शाह कप में शानदार प्रदर्शन के बाद गत जून में चैंपियंस ट्राफी में भारत ने रजत पदक जीतकर दुनिया की शीर्ष टीमों को बता दिया है कि वह ओलंपिक में पदक की प्रबल दावेदार होगी। डच कोच रोलैंट ओल्टमंस के मार्गदर्शन और पीआर श्रीजेश के नेतृत्व में भारतीय टीम अगर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती है तो मास्को ओलंपिक के बाद एक बार फिर भारतीय टीम के हिस्से में पदक आ सकता है। हालांकि महिला हॉकी टीम से किसी चमत्कार की अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा।
त्रिपुरा की दीपा कर्मकार ने जिमनास्टिक सरीखे खेल में ओलंपिक टिकट हासिल करके जिस तरह देश को चौंकाया है, वैसा ही कुछ वह रियो में पदक जीतकर भी कर सकती हैं। दरअसल, दीपा जिमनास्टिक की प्रोदुनोवा वॉल्ट में भाग लेती हैं। बहुत कम खिलाड़ी इस स्पर्धा में भाग लेने की हिम्मत जुटा पाते हैं। इस स्पर्धा का सबसे बढ़िया स्कोर भी दीपा के ही नाम है। दीपा भी मानती हैं कि आर्टिस्टिक जिमनास्टिक का यह एक खतरनाक रूप है। लेकिन साथ ही वह कहती हैं, ‘यदि आपने जोखिम नहीं लिया तो समझो, आपका जीवन व्यर्थ गया।’ उम्मीद की जानी चाहिए कि दीपा पदक जीतकर इस जोखिम को साकार रूप देंगी।
एथलेटिक्स में इस बार सबसे ज्यादा खिलाड़ियों ने क्वालीफाई किया है, लेकिन पदक की संभावना सबसे कम यहीं है। आज तक एथलेटिक्स में भारत को एक भी पदक नहीं मिला है। मिल्खा सिंह और पीटी उषा की बेहद चर्चा रही है लेकिन वे भी चौथा स्थान ही हासिल कर पाए थे। हां, इस बार कुछ स्पर्धाओं में बरसों बाद भारतीय एथलीटों ने क्वालीफाई किया है। ओडिशा के एक गरीब परिवार में जन्मी द्युति चांद ऐसी ही एथलीट हैं जो 36 साल बाद पहली बार 100 मीटर फर्राटा में भाग लेंगी। द्युति चांद पदक के पास भले ही न पहुंच पाएं लेकिन यहां तक पुहंचने के लिए जो जीवट दिखाया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। छोटी उम्र में ही कई बड़ी सफलताएं हासिल करने वाली द्युति चांद को ग्लासगो कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले प्रतिबंधित कर दिया गया। आईएएएफ की नीति के अनुसार उनमें पुरुष हार्मोन का स्तर अधिक पाया गया था। द्युति ने हिम्मत नहीं हारी और हालात का सामना किया। एक वर्ष तक उनकी लड़ाई चली और अंतत: स्विट्जरलैंड में खेल पंचाट ने प्रतिबंध के खिलाफ उनकी अपील को सही ठहराया और प्रतिबंध हटाने का निर्देश दिया। डिस्कस थ्रो में यह देखना दिलचस्प होगा कि विकास गौड़ा अपनी चुनौती कहां तक ले जा पाते हैं। इसके अलावा गोल्फ, तैराकी, जूडो, भारोत्तोलन, टेबल टेनिस और नौकायन में भी भारतीय खिलाड़ी शिरकत करेंगे पर इन खेलों में पदक की संभावना न के बराबर है।
कार्निवल और सांबा संगीत है रियो की पहचान
रियो डि जेनेरो यानी ‘जनवरी की नदी।’ ब्राजील की राजधानी एवं देश का यह दूसरा सबसे बड़ा नगर है। आमतौर पर यह रिओ के नाम से जाना जाता है। शहर की आबादी करीब 63 लाख है। रियो अपनी प्राकृतिक छटा, कार्निवल उत्सव, सांबा और अन्य संगीत के लिए प्रसिद्ध है। कोपाकबाना और इपानेमा जैसे तटों के लिए प्रसिद्ध रियो में समुद्र तटों पर कतार में बने होटल पर्यटकों से भरे रहते हैं। कोरकोवाडो पर्वत पर स्थित ईसा मसीह की विशाल मूर्ति क्राइस्ट द रीडिमर (आधुनिक युग के विश्व के सात आश्चर्यों में से एक) रियो का बड़ा आकर्षण है। यहां सांबोद्रोमो नामक एक विशाल स्थायी कार्निवल परेड मंच और दुनिया के सबसे बड़े फुटबॉल स्टेडियमों में से एक माराकाना स्टेडियम भी है। ओलंपिक खेलों की मेजबानी करने वाला यह दक्षिण अमेरिकी का पहला शहर होगा। अपने आकर्षण और सौंदर्य के बावजूद, रियो की गिनती विश्व के सबसे अधिक हिंसाग्रस्त शहरों में की जाती है। विश्व का दूसरा सबसे बड़ा शहरी वन क्षेत्र लोरेस्ता दा तिजुका, या तिजुका वन भी रियो में ही है।
रियो ओलंपिक: दिलचस्प तथ्य
75 लाख टिकटों की बिक्री
5 लाख पर्यटकों के भाग लेने की उम्मीद
50 हजार वालंटियर
40 हजार होटल रूम
ओलंपिक गांव में 29 हजार गद्दे
32 हजार टेनिस बॉल,
25 हजार पत्रकार आयोजन को कवर करेंगे
रियो ओलंपिक आयोजन पर 46 अरब डॉलर का खर्च आएगा।
लंदन ओलंपिक (2012) में 15 अरब डॉलर खर्च हुए थे।
रियो में 10,500 एथलीट भाग लेंगे।
1896 में एथेंस में 241 एथलीटों ने भाग लिया था।
एथेंस में 43 खेल थे वहीं रियो में 306 खेेल होंगे।
एथेंस में 14 देश थे। रियो में 206 देश होंगे।
अमेरिका के तैराक माइकल फेल्प्स ने सबसे ज्यादा 22 पदक जीते हैं। इसमें 18 स्वर्ण पदक हैं।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार रियो में आयोजन समिति ने 3 लाख 50 हजार मेल कंडोम उपलब्ध कराए हैं। एक लाख फीमेल कंडोम भी उपलब्ध कराए गए हैं। लंदन के मुकाबले यह तीन गुना अधिक हैं।
जीका वायरस की वजह से ऑस्ट्रेलिया के एथलीट एंटी वायरल कंडोम का उपयोग करेंगे।
हम हैं पदक के प्रबल दावेदार
पी.आर. श्रीजेश,
कप्तान, भारतीय हॉकी टीम
मैं ओलंपिक के बारे में सोचता हूं तो अपना 2012 याद आता है। वो मेरा पहला ओलंपिक था। हम 12वें नंबर पर आए थे। अब भी वह तकलीफ देता है। ओलंपिक के बाद मैं गली में घूमता था और अगर लोग मुस्कराते थे तो मुझे लगता था कि मेरा मजाक उड़ा रहे हैं। मैं लंदन में घूमने के लिए भी रात में निकलता था कि कोई यह सवाल न पूछे कि इतना खराब क्यों खेले। मुझे लगता है कि मैंने देश को नीचा दिखाया। आखिरी मैच के बाद तो हम टीम के खिलाड़ी एक-दूसरे से बात करने की हालत में नहीं थे। खाना खाने बैठते थे, तो खाया नहीं जाता था।
2012 में लंदन के बाद मेरा यह दूसरा ओलंपिक है। वहां की निराशा को यहां कामयाबी में बदलने के लिए हमारी टीम तैयार है। दोनों ओलंपिक में खासा फर्क है। जिम्मेदारियां अलग हैं। तब मैं एक सीनियर गोलकीपर के साथ था जो टीम के कप्तान भी थे। अब टीम की कप्तानी मेरे हाथ में है। कप्तानी की अपनी जिम्मेदारी होती है। उसके अलावा, ओलंपिक खेलने के भी अपने दबाव और अपनी चुनौतियां होती हैं। जाहिर है, इन दबावों से निपटने के लिए जरूरी है कि खेल का पूरा मजा लिया जाए। वरना कई बार दबाव आप पर हावी हो जाता है। मेरी यही कोशिश रहेगी कि पूरी टीम ओलंपिक्स को एंजॉय करे... और उसके साथ अपना बेस्ट प्रदर्शन करे।
12 जुलाई को टीम घोषित हुई थी। उसके बाद से लगातार लोग मुझसे सरदार सिंह को लेकर सवाल पूछ रहे हैं। मैं साफ कर देना चाहता हूं कि सरदार टीम के सबसे सीनियर खिलाड़ियों में हैं। उन्हें पता है कि हालात कैसे हैं। कई बार मैदान से बाहर हुई बातें आप पर बेवजह दबाव डालती हैं। उन्हें ये सारी बातें समझ आती हैं। उन्हें मैदान पर भी गेम जज करने में महारत हासिल है। मैदान के बाहर की चीजों पर भी उनकी समझ को लेकर कोई सवाल नहीं है। मैं नहीं समझता कि उनके दिमाग में किसी भी तरह का कुछ नेगेटिव विचार होगा। वह कप्तान के तौर पर टीम के फैसलों में जितना शामिल होते थे, अब भी उतने ही होंगे। कप्तानी एक आदमी की जिम्मेदारी नहीं होती। हॉकी में मैदान पर सभी 11 खिलाड़ी कप्तान होते हैं। हमने वही कोशिश की है। यहां हर कोई कप्तान है। चैंपियंस ट्रॉफी में भी आप लोगों ने देखा होगा कि अलग-अलग खिलाड़ी कप्तानी के बैंड के साथ मैदान पर उतरे थे। इस बार भी ऐसा ही होगा। इस टीम में सब कप्तान हैं और सबकी जिम्मेदारी है कि टीम को कामयाब बनाएं।
हम एक सपने के साथ रियो जा रहे हैं। हम पदक के दावेदार हैं। हमारा लक्ष्य है कि पदक के साथ अपने मुल्क वापस आएं। ये एक टीम के तौर पर सारे खिलाड़ियों का खेल तय करेगा कि पदक का रंग क्या हो। पिछले दो साल में हमारा प्रदर्शन अच्छा रहा है, जिससे उम्मीदें बढ़ी हैं। खिलाड़ियों में भरोसा बढ़ा है। लेकिन हमें खेल में निरंतरता रखनी होगी। हम किसी भी टीम को हलका नहीं आंक सकते। हमने जिस तरह की योजना बनाई है, अगर मैदान पर वैसा खेल दिखा पाएं तो हमें कामयाब होने से नहीं रोका जा सकता।
(शैलेश के साथ बातचीत पर आधारित)
डोपिंग के विवाद की छाया
ओलंपिक शुरू होने से पहले ही भारत की उम्मीदों को डोपिंग का तगड़ा झटका लगा है। पदक के प्रबल दावेदार पहलवान नरसिंह यादव (74 किलोग्राम वर्ग) डोपिंग टेस्ट में फेल हो गए। उन पर प्रतिबंधित दवा के इस्तेमाल का आरोप लगा है। उनके ए और बी दोनों नमूनों में स्टेरायड के अंश पाए गए। एथलीट इंद्रजीत सिंह (गोला फेंक) के ए नमूने में भी एंड्रोस्टेरॉन और इटियोकोलैनोलोन के अंश मिले। दोनों ने हालांकि इसे साजिश करार दिया है। नरसिंह ने अपने खाने में कुछ मिलावट होने की बात कही है तो इंद्रजीत ने कहा कि उनके नमूने से छेड़छाड़ की गई है। दोनों के ओलंपिक में भाग लेने पर संशय है। भारतीय कुश्ती महासंघ नरसिंह के पक्ष में खड़ा है क्योंकि नरसिंह का साफ सुथरा इतिहास रहा है। इंद्रजीत सिंह ने कहा कि वह मुंहफट हैं और प्रशासन की मुखर रूप से आलोचना करते रहे हैं। इसलिए यह साजिश हो सकती है। वर्ष 2014 के एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीतने वाले हरियाणा के इंद्रजीत सिंह देश के उन एथलीटों में शामिल हैं, जो राष्ट्रीय शिविरों में ट्रेनिंग नहीं लेते हैं। वह आमतौर पर अपने निजी कोच के साथ खुद ही ट्रेनिंग करते हैं। इंद्रजीत सिंह पिछले साल एशियाई चैंपियनशिप, एशियन ग्रां प्री और वर्ल्ड यूनिवर्सिटी गेम्स में स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। उनका बी नमूना भी पॉजीटिव आया तो वह ओलंपिक से तो दूर होंगे ही, साथ ही, नए वाडा कोड के तहत उन पर चार साल का प्रतिबंध भी लगाया जा सकता है। ओलंपिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त ने नरसिंह यादव का समर्थन करते हुए कहा है कि मामले की पूरी जांच होनी चाहिए। नाडा खेल और युवा मामलों के मंत्रालय के तहत स्वायत्त इकाई है जो खेलों में डोपिंग की जांच करती है। सूत्रों के मुताबिक भारतीय कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह ने नरसिंह मामले की जानकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी दी है।
संघर्षों से कामयाबी की राह
साधारण परिवारों से निकले खिलाड़ियों के लिए ओलंपिक है पहचान बनाने का बड़ा अवसर
शैलेश चतुर्वेदी
हमेशा कहा जाता है कि चैंपियन नीचे से आते हैं और भ्रष्टाचार ऊपर से। यूं ही नहीं है। कुछ समय पहले दिल्ली के एक अखाड़े में पहलवानों के रहने की हालत पर काफी बवाल हुआ था। उसके कुछ समय बाद पहलवान सुशील कुमार ने कहा था कि हालात अच्छे होने चाहिए, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन खिलाड़ियों को हमेशा मुश्किलों में भी जीना आना चाहिए। यह भी आपकी ट्रेनिंग काहिस्सा होता है। यह अलग बात है कि अब कम से कम छत्रसाल स्टेडियम अखाड़े में हालात काफी बदले हुए हैं। कई कमरों में एयरकंडीशनर हैं जो पहले अखाड़ों में सोचा भी नहीं जा सकता था।
यह सिर्फ पहलवानों के लिए नहीं है। तमाम खेल ऐसे हैं, जहां खिलाड़ी मध्य और निम्न वर्ग से आते हैं। चाहे वे एथलेटिक्स हो, हॉकी हो, तीरंदाजी हो या तमाम और खेल। इनकी अपनी वजह रही हैं। खेल से जुडऩे के साथ आपको कुछ फायदे मिलते हैं। साई यानी भारतीय खेल प्राधिकरण की स्कीम में अगर कोई बच्चा आता है तो उसे अभ्यास के अलावा स्कॉलरशिप से लेकर रोजाना खुराक के लिए भी पैसे मिलते हैं। ऐसे में गरीब परिवार के बच्चे के लिए खेल से जुड़ना उनकी जिंदगी को बेहतर करने जैसा होता है। ..और वह सपना, जो अपनी दिनचर्या पूरी करने से शुरू होता है, वह सरकारी नौकरी से होते हुए ओलंपिक तक पहुंचता है।
कुछ साल पहले जब विजेंदर बड़ा नाम नहीं थे, तब उनके भिवानी हॉस्टल जाने का मौका मिला था। विजेंदर ने अपना वह कमरा दिखाया था, जिसमें वह एकेडमी में रहा करते थे। तब उन्होंने कहा था कि मेरा टारगेट सरकारी नौकरी था। वह खेलों के जरिए मिल सकती थी। हम सबको पता ही है कि उनके पिता बस ड्राइवर थे बल्कि अब भी हैं। इसीलिए सरकारी नौकरी के सपने के साथ यात्रा शुरू हुई। लेकिन फिर सपने बड़े हुए। आज विजेंदर धनाढ्य वर्ग में आते हैं।
खेलों की यही खूबसूरती है। वह आपको बड़ा होना सिखाते हैं। वह आपको सपने देखना सिखाते हैं। वो आपको सपने पूरे करना भी सिखाते हैं। इस ओलंपिक में भी ऐसे सपने के साथ तमाम एथलीट जाएंगे। तीरंदाज दीपिका कुमारी है। पिता ऑटो चलाया करते थे। झारखंड के रांची से आई थीं। आज वह कामयाब हैं। ये कामयाबी कहां से आई। जाहिर है, खेल से। अगर रियो में उन्होंने पदक जीत लिया तो कामयाबी की दास्तान और बहुत आगे तक जाएगी।
इसी तरह हॉकी टीम के कप्तान पीआर श्रीजेश की कहानी है, जिनके पिता किसान थे। केरल से आए हैं, जहां हॉकी का कल्चर नहीं है। एक ट्रंक में चंद कपड़ों के साथ उनका सफर शुरू हुआ था। आज वह हॉकी टीम के सबसे चर्चित नाम हैं। केरल में उनके नाम पर सड़क है। वह अपने राज्य के सबसे चर्चित खिलाड़ी हैं। उनका नाम अचानक ऊपर आया, क्योंकि पिछले दो-तीन साल में उन्होंने खुद को दुनिया का बेहतरीन गोलकीपर साबित किया है। इन दो-तीन साल में भारत एशियाई खेलों से लेकर वर्ल्ड सीरीज हॉकी और चैंपियंस ट्रॉफी में कोई न कोई पदक जीता है। यह बताता है कि आप किस तबके से आ रहे हैं, उससे फर्क नहीं पड़ता। अगर आपको कामयाबी मिलनी शुरू हो गई है तो जिंदगी जरूर बदलेगी।
हम सब जानते हैं कि हरियाणा जैसे राज्य के खिलाड़ियों को जीत के बाद किस तरह सरकार से इनाम मिलता है। इसी का नतीजा है कि हाथगाड़ी चलाने वाले रानी रामपाल के पिता अब भव्य घर में बैठ सकते हैं। उनका नया घर शाहबाद में बन रहा है। घर जितने का है, उसमें कितने जीरो होते हैं, यह रानी के पिता कुछ साल पहले नहीं बता सकते थे। शायद आज भी नहीं बता पाएं। लेकिन हॉकी टीम की खिलाड़ी रानी को अब यह अच्छी तरह पता है। उत्तर प्रदेश में भी ओलंपिक मेडल पर बड़े इनाम हैं।
एथलेटिक्स में ओपी जैशा की कहानी ऐसी है जो आंखों में आंसू ला दे। वह केरल से हैं। उनके पिता की मौत तब हो गई थी, जब वह महज पांच साल की थीं। मां अवसाद का शिकार हो गई थीं। तीन बेटियों की देखभाल करनी थी। घर में तीन गाय थीं, जो कुछ समय बाद मर गईं। कई-कई दिनों तक परिवार भूखा रहता था। जैशा बताती हैं कि कई बार तो कीचड़ से खाना ढूंढना पड़ा, क्योंकि और कुछ था नहीं। दूध बेचने के काम से उन्होंने आज यह मुकाम पाया है। एशियाड में वह कांस्य पदक जीत चुकी हैं। यह सही है कि ओलंपिक में अभी एथलेटिक्स में ज्यादा उम्मीद नहीं बंधती। लेकिन यह सही है कि खेल ने हालात तो बदल ही दिए हैं।
पिछले दिनों सबसे ज्यादा चर्चा में रहीं एथलीट द्युति चांद भी बेहद गरीब परिवार से आई हैं। नौ लोगों का परिवार, जिनमें से छह लड़कियां थीं। हालांकि उनके पिता ने लगातार उनका साथ दिया। वह सिर्फ गरीबी हराकर आगे नहीं आई हैं, जेंडर को लेकर केस भी जीतकर आई हैं। मनप्रीत कौर हों, या खुशबीर... ये सभी ऐसे परिवार से आई हैं, जिन्होंने गुरबत देखी है। जिन्हें पता है कि सफलता का मतलब क्या होता है।
इस पूरे हालात को देखने का एक नजरिया यह भी है कि जिनके पेट भरे होते हैं, उनमें कामयाबी की वह आग नहीं होती। ऐसे में जो गरीब तबके से आते हैं, उनमें ही ललक ज्यादा होती है। उनका कामयाब होना जिंदगी बदलता है। कामयाब होना ही उनके लिए एकमात्र रास्ता है। यह सही है कि इस रास्ते में भी मुश्किलें काफी होती हैं। अभी हमारा खेल सिस्टम ऐसा नहीं है, जहां उन लोगों की मदद की जाए, जो उभर रहे हैं। हमारे यहां मदद तब आती है, जब कामयाबी आती है। उससे पहले मदद का सरकारी तरीका खेल प्राधिकरण ही है। पिछले कुछ समय में ओलंपिक गोल्ड क्वेस्ट या मित्तल ट्रस्ट या लक्ष्य फाउंडेशन ऐसी संस्था के तौर पर आगे आए हैं। लेकिन इनकी तरफ से ज्यादातर मदद तब मिलती है, जब खिलाड़ी एक मुकाम पा लेता है। हालांकि वहां भी मदद की बहुत जरूरत होती है। उस मदद ने खिलाड़ियों को अपना स्तर ऊपर ले जाने में बड़ी मदद की है।
कुल मिलाकर रियो ऐसे तमाम एथलीटों के लिए मौका लेकर आएगा। हर ओलंपिक इस तरह के मौके लेकर आते हैं। पदक लाना ही जरूरी नहीं, अगर एथल