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झोले और चप्पल की सहकारिता

कुछ अलग ही महिमा रही है चप्पल के साथ झोले की
महिमा चप्पल की

यह उस समय की बात है जब समय बदला नहीं था। कामरेड खांटी कामरेड जैसे थे। उनके कंधे पर शांति निकेतनी झोला और पैरों में प्लास्टिक की चप्पल सजती थी। थैले में सोवियत रूस के दूतावास से चिकने कागज पर छप कर आने वाले क्रांतिकारी बयानों के बुलेटिन धरे रहते थे और प्लास्टिक चप्पल में चटकने की ध्वनि समाहित रहती थी। कुल मिला कर उनकी जो धज बनती थी, उसे लोग बड़ी उम्मीद से निहारते थे और मन ही मन कामरेड की बड़ी इज्जत भी करते थे। कह सकते हैं कि उनके प्रभामंडल के निर्माण में उनके द्वारा धारण की जाने वाली उस चप्पल का महती योगदान था। लगभग पचास प्रतिशत की भागीदारी। झोले और चप्पल का वह बेमिसाल सहकारिता भरा अविस्मरणीय समय था। इतिहासकार बताते हैं कि उन दिनों सरोकार न तो आभासी थे और न पैरों में पहनी जाने वाली चप्पल हवा हवाई।

यह बात भी कन्फर्म है कि कोई उनके माध्यम से उड़ान भरने की सोचता तक नहीं था। मुंगेरी लाल भी उड़ान का सपना देखने के लिए राइट ब्रदर्स की ही ओर टकटकी लगा कर देखते थे। वे दिन आसमान, उड़ान और सपनों की देखा-दाखी के दिन न थे। सब अपना-अपना काम करते थे। परिंदे उड़ते थे, मछलियां तैरती थीं और कीट पतंगे उड़ने के लिए सही किस्म के बरसाती मौसम और कमर पर पंख उगने का इंतजार करते थे। अलबत्ता चप्पल की बात कुछ और थी। उसे पहने बिना शायद ही कोई जिंदगी की राह में आगे या पीछे हो पाया हो।

समय बदल चुका है। चप्पल का अब वर्तमान कम और अतीत ज्यादा है। चप्पल का ‘आज’ मानो वनलाइनर है और अतीत अथाह है। चप्पल के उड़ने के लिए असीम आसमान है और गर्त में गिरने के लिए भरापूरा पाताल। कहने वाले तो कहते हैं कि हर प्रकार के पाताल का भी नयनाभिराम आकाश होता है। जो जितना अधिक गर्त में जाता है उतना ही कद्दावर होता जाता है। चप्पल अब सिर्फ चटकती नहीं, तमाम अन्य कारणों के चलते चहकती भी है। मौका मिलने पर चप्पल आखें भी तरेरती है। यदि यह बाहुबली के पैर वाली चप्पल है तो किसी के सिर पर बरस भी सकती है। उड़ान के दौरान इसका सम्यक इस्तेमाल इसे आकाशीय बना सकता है। समय वाकई बहुत बदल गया है।

कामरेड के पैर वाली मिथकीय चप्पल सिर्फ बीते हुए कल की भावुकता में रह गई है। उसके पैर पर किरमिच के वे फटे हुए जूते भी अब दिखाई नहीं देते, जिनकी वजह से बड़े-बड़े लेखक कालजयी बने। धनपत राय प्रेमचन्द बने। गोर्की बिना मोटी पोथी (उपन्यास) लिखे साहित्यकार बन बैठे। अब तो शोध इस बात पर हो रहा है कि लेखकीय महानता में इन चप्पलों का कितना योगदान रहा है।

कामरेड की चप्पलों को लेकर पहले कोई संशय नहीं था। जब तक पैरों में रहती थीं खूब दमकती थीं। टूटने उधड़ने लगती थीं तब मोची जी के हुनर की आजमाइश के काम आती थीं। चप्पलें जब पहनने लायक न बचती थीं तब कबाड़ वाला टूटी-फूटी चप्पल के बदले गुड़ की पट्टी या संतरे की मीठी गोलियां तो दे ही देता था। चप्पल तब ही असली चप्पल थी।

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