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क्यों आग उगल रहा है ड्रैगन

भारत-चीन सीमा औपनिवेशिक दौर की संधियों और पुराने राष्ट्रवाद की पृष्ठभूमि में तय हुई, वही डोकलाम पर नए विवाद का कारण, सामरिक-आर्थिक बढ़त चीन की जरूर पर उसे भी जंग से बड़े सपने पर उसी तरह कुठाराघात की आशंका जैसे हमें। भारत अभी शांत मगर हालात कभी भी खतरनाक मोड़ ले सकते हैं
आक्रामक रुखः बीजिंग के थ्यान अन मन चौक पर सैन्यत परेड के दौरान गुजरते टैंक और स्क्रीन पर दिखते चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग

अमूमन अनहोनी की तरह युद्ध रू-ब-रू हो जाता है। कई बार कोई विवाद भड़क उठता है तो एकाधिक बार कोई नेता अचानक युद्ध का वितान रचकर राजनैतिक लाभ हासिल करने की फिराक में रहता है लेकिन कुछ मौके ऐसे भी होते हैं जब हालात बेकाबू हो जाते हैं। युद्ध छेड़ने वाले की सबसे बड़ी दिक्कत यह अंदाजा लगा पाना है कि युद्ध कितने बड़े पैमाने पर होगा और उसे कब और कैसे समाप्‍त किया जा सकेगा, क्योंकि कई अप्रत्याशित घटनाएं उसके तरीके और तेवर बदलती रहती हैं। दो परमाणु हथियार संपन्न देशों के बीच युद्ध तो आत्म-विध्वंसक है ही, सीमित युद्ध जैसी कोई बात होती ही नहीं है। वैसे, डोकलाम विवादयुद्ध में बदलता है तो यह सबसे हैरान करने वाला होगा। यह 180 मीटर क्षेत्र में “घुसपैठ” पर होगा और आमने-सामने होगी एक विशाल परमाणु हथियार से लैस देश की फौज और कथित तौर पर दुनिया की सबसे बड़ी सेना, जो अपने विरोधी की तैयारी में कुछ कमजोर ही होगी।

हां, यही वह फर्क है जिसे 2 अगस्त को चीन के विदेश विभाग की तरफ से जारी एक विस्तृत दस्तावेज में बताया गया है कि 40 से 400 भारतीय सैनिक उस इलाके में “घुस आए”, जिसे चीन अपना कहता है लेकिन भूटान और भारत उसका खंडन करते हैं।

पिछले हफ्ते चीन के दौरे पर गए भारत के कुछ पत्रकारों से चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता सीनियर कर्नल रेन गोकिंग ने यही बात फिर दोहराई। सीनियर कर्नल ने कहा, “भारत की कार्रवाई ने चीन की क्षेत्रीय अखंडता, सिक्किम-तिब्बत सीमा को लेकर 1890 के एंग्लो-चाइनीज कन्वेंशन और यूएन चार्टर का उल्लंघन किया है। इस विवाद के समाधान की पूर्व शर्त यही है कि पहले भारत उस क्षेत्र से हटे।”

दूसरी सैन्य प्रतिक्रियाएं और तीखी तथा एक ही सुर में थीं। 10 अगस्त को ऑल चाइना जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन ने एक सेमिनार वैसे तो बातचीत के लिए बुलाया था लेकिन असल में मकसद भारतीय पत्रकारों को “शिक्षित” करना था। सेमिनार में एकेडमी ऑफ मिलिटरी साइंस में चीन-अमेरिका रक्षा संबंध शोध केंद्र के सीनियर कर्नल झाओ शियाझू ने भारतीय “घुसपैठ” पर नाराजगी जाहिर की। झाओ दक्षिण चीन सागर जैसे विवादों में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीनी नीतियों के तगड़े पैरोकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने कहा कि भारत ने एंग्लो-चाइनीज कन्वेंशन, 1890 में तय की गई अंतरराष्ट्रीय सीमा का उल्लंघन किया है।

अंतरराष्ट्रीय बैठकों में एक दूसरे जाने-पहचाने शख्स, कथित तौर पर ब्रिटेन में पढ़े-लिखे सीनियर कर्नल झाओ बो ने कहा कि भारत का 30 जून का वक्तव्य अस्पष्ट-सा है। इसमें यह तथ्य छिपाने की कोशिश की गई कि हस्तक्षेप करने के लिए भारत को भूटान की तरफ से कोई निमंत्रण नहीं दिया गया था। यह दावा किया गया कि भारत ने “भूटान की शाही सरकार के सहयोग” से ऐसा किया। दोनों अफसरों ने दावा किया कि वे भारत-चीन सीमा पर तैनात रहे हैं और दक्षिणी एशिया के मसलों से वाकिफ हैं। वास्तव में, सीनियर कर्नल झाओ ने कहा कि वे सिक्किम के इलाके में तैनात रहे हैं। सबसे जरूरी उनकी आखिरी बात रही, “अगर आप समाधान चाहते हैं तो पीछे हट जाइए वरना इसका समाधान सैन्य कार्रवाई से निकलेगा।”

ऐसा ही कुछ संदेश बीजिंग की सुरक्षा करने वाली तीसरी गैरिसन डिवीजन के फील्ड कमांडर, सीनियर कर्नल ली ली की तरफ से आया। बीजिंग के हुआरो इलाके में, जहां चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के शौर्य का प्रदर्शन हो रहा था, डोकलाम से जुड़े एक प्रश्न पर ली ली ने कहा, “मैं सैनिक हूं। मैं अपनी क्षेत्रीय अखंडता को बरकरार रखने के लिए दृढ़ निश्चय और संकल्प से अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दूंगा।”

एक समय था जब युद्ध तीन स्तरों पर लड़ा जाता था। रणनीति, मोर्चे पर कार्रवाई और व्यूह-रचना के स्तर पर। फटाफट मीडिया के दौर में ये तीनों बातें जैसे एकाकार हो गई हैं और भारतीय सेना के पीएलए के सड़क निर्माण को रोकने की व्यूह-रचना अचानक अंतरराष्ट्रीय संकट की सुर्खियां बन गईं।

पहली बार भारत में टीवी चैनलों पर चीत्कार करने वाले योद्धा शांत हैं जबकि बीजिंग की मीडिया आग उगल रही है। मीडिया की प्रतिक्रियाओं और पीएलए विशेषज्ञों और अफसरों की बातों से ऐसा लगता है कि यहां देसी भावनाएं विस्फोटक मुद्दा है। सवाल है कि चीन के तेवर क्यों गरम हैं जबकि भारतीय प्रतिक्रिया ठंडी है? बेशक, जवाब आसान नहीं है।

कुल मिलाकर मामला एक सड़क को लेकर है, जिसे चीन, भारत-चीन की विवादित सीमा पर बनाने की फिराक में है। ऐसा करने में, भूटान कहता है, चीन ने यथास्थिति कायम रखने के 1988 और 1998 के लिखित समझौते का उल्लंघन किया है। भारत का कहना है कि उसकी सेना वहां इसलिए है क्योंकि “ऐसे निर्माण से स्थितियां इस कदर बदल जाएंगी, जिसका भारत की सुरक्षा पर गहरा असर होगा।”

चीन इसका खंडन करता है और कहता है, भूटान और चीन के बीच आम सहमति है कि यह क्षेत्र चीन का है और भारत खलनायक की भूमिका निभा रहा है। चीनी विदेश मंत्रालय में सीमा के मामलात के एक उच्च अधिकारी वांग वेनलिन का दावा है कि भूटानियों ने उनसे कहा है कि उन्होंने भारत को बुलावा नहीं भेजा और जहां वे घुस आए हैं, “वह भूटान का इलाका नहीं है।”

कई साल से, चीन ने थिंपू को यह मनवाने की कोशिश की है कि यह इलाका चीन का है लेकिन भूटान इससे इनकार करता रहा है। और ऐसा सिर्फ इसके पीछे से भारत का हाथ होने की वजह से नहीं है। कई बहसों के बाद नेशनल असेंबली में ‘हा’ प्रांत के प्रतिनिधियों द्वारा तिब्बत की घुसपैठ या जबरन टैक्स थोपने की शिकायतें हैं। किसी भी महत्वपूर्ण इलाके पर चीनियों के कब्जे का विरोध होता रहा है।

चीन दावा करता है कि यह इलाका एंग्लो-चाइनीज कन्वेंशन 1890 की शर्तों के मुताबिक उसका है। लेकिन भूटान ने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे और न ही जब इस पर हस्ताक्षर हो रहे थे तब भूटान से पूछा गया। भूटान का कहना है कि वह चीनियों के दस्तावेज की गलत व्याख्या के भुलावे में नहीं आ सकता। उनका अपना पुख्ता दावा है।

इस संकट ने चीन-भारत सीमा विवाद सुलझाने के लिए खास प्रतिनिधियों द्वारा किए गए प्रयासों पर पानी फेर दिया है। पूरी तस्वीर तो हमारे पास नहीं है लेकिन यह साफ है कि शिवशंकर मेनन और उनके चीनी समकक्ष दाई बिंगू के बीच 2012 में बिंगू के रिटायरमेंट से एक दिन पहले 18 सूत्री आम-सहमति का समझौता हुआ था, जिसमें कहा गया था-1) भारत और चीन के बीच स्थित त्रिमुहाने पर कोई भी फैसला तीसरे देश से सलाह-मशविरे के बाद ही लिया जाएगा, 2) सिक्किम-तिब्बत सीमा पर रेखा निर्धारण, मोटे तौर पर जल स्रोतों को लेकर दोनों पक्षों में सहमति बनी थी, 3) दोनों पक्ष सिक्किम सेक्टर की खास सीमा-रेखा को सत्यापित और निर्धारित करेंगे और एक साझा रिकॉर्ड तैयार करेंगे, यानी एंग्लो-चाइनीज कन्वेंशन 1890 को बदलने के लिए एक नया सीमा पैक्ट तैयार होगा।

लेकिन चीन का आक्रामक और धौंस-पट्टी का रवैया उस एकांगी नजरिए को खारिज करता है कि मामला सिर्फ 1890 की एंग्लो-चीन संधि के उल्लंघन का ही है। ऐसी उम्मीदें थीं कि दो खास प्रतिनिधियों (स्पेशल रिप्रेजेंटेटिव) द्वारा बनी महत्वपूर्ण आम सहमति चीन-भारत सीमा विवाद के समाधान के लिए आधार बन सकती है लेकिन अब यह आशा बेरंग नजर आ रही है।

साफ है कि अगर कोई युद्ध होता है तो यह केवल ट्राइजंक्शन के लिए या भूटान के डोकलाम पर दावे को लेकर नहीं होगा। सीमा विवाद इसका कारण नहीं बल्कि संघर्ष का एक मौका होगा जो पिछले लंबे समय से चल रहा है। भारत और चीन के बीच बहुत से अनसुलझे मुद्दे हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण है, उनकी पूरी सीमा, जिसे चीन 2,000 किलोमीटर लंबी बताता है जबकि भारत 4,057 किलोमीटर बताता है। इसी की वजह से 1962 का पहला भारत-चीन युद्ध हुआ। सीमा के सारे हिस्सों में, सिक्किम से ज्यादा संवेदनशील कोई हिस्सा नहीं है क्योंकि यह संकरे सिलीगुड़ी गलियारे के ऊपर है।

 

भारत ने सिक्किम में मजबूत सुरक्षा बना रखी है, लेकिन सेना का मानना है कि जाम्पेरी टीले, जो सड़क निर्माण वाली जगह के पूर्वी-पश्चिमी, दक्षिणी हिस्से में है, पर आवाजाही चीन को घुसने का रास्ता दे सकती है या उनकी सुरक्षा के लिए खतरा बन सकती है। इसलिए, 1890 के समझौते के मुताबिक, भारतीयों ने फैसला किया कि ट्राइजंक्शन असल में कुछ हाथों के अंतर से बाटांग ला के पास है न कि माउंट गिपमोची के पास। सीनियर कर्नल झाओ बो से यह सुनना साजिशपूर्ण लगा कि भारत बाटांग ला को सेना के लिहाज से जरूरत से ज्यादा महत्व दे रहा है।

शायद भारत-चीन युद्ध का बड़ा कारण होगा, विश्व में अपने क्षेत्र को लेकर उनका अलग-अलग नजरिया। 1950 में, ‘साम्यवादी चीन’ के विरुद्ध भारत को “मुक्त विश्व” की महान लोकतांत्रिक उम्मीद के तौर पर देखा गया था। आज, दोनों देशों के तेजी से उभार ने, जिसमें भारत करीब पंद्रह साल पीछे है, इस संघर्ष में नया मोड़ दे दिया है।

चीन क्षेत्रीय श्रेष्ठता पाने की फिराक में है और इसके लिए वह दक्षिण एशिया और ह‌िंद महासागर क्षेत्र में भारत को लगातार चुनौतियां देता है। लेकिन यह सब कुछ अचानक घट‌ित नहीं हुआ है। यह विश्व फलक और दक्षिण एशिया व ह‌िंद महासागर क्षेत्र में चीन की लगातार बढ़ती आर्थिक शक्ति का नतीजा है। चीनियों को अहसास हो गया कि उनकी आर्थिक ताकत उनकी सैन्य ताकत से कहीं ‌अधिक बढ़कर है। लेकिन सचमुच एक वैश्विक शक्ति बनने के लिए उसके आस पड़ोस में शांति होनी भी जरूरी है।

अब तक दक्षिणी एशिया में, चीन ने पाकिस्तान का पक्ष लेकर भारत के लाभों को आसानी से अलग-थलग करने का मॉडल अपनाया है और इस तथ्य के साथ कि उनकी अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुनी है और सेना मजबूत है, वे ऐसी स्थिति की फिराक में हैं, जहां भारत चीन की प्रधानता स्वीकार कर ले या दक्षिण एशिया और भारतीय समुद्री क्षेत्र में चीन की आर्थिक-सैन्य योजना के वशीभूत हो जाए।

भारत को अपना महत्व, विश्व में अपनी स्थिति मालूम है और चीन की प्रधानता स्वीकार कर लेना भारत की नीति का हिस्सा नहीं है। इसलिए वह अमेरिका और जापान से निकटता बढ़ा रहा है। ये दोनों देश (अमेरिका और जापान) चीन पर अपनी वजहों से नजर बनाए रखते हैं। जब से मोदी सत्ता में आए हैं, भारत ने दोनों देशों के करीब जाने के लिए कई कदम उठाए हैं। यह निश्चित रूप से एक खतरनाक खेल है, क्योंकि इससे चीन के विश्वास को मजबूती मिलती है कि ये तीनों चीन के उभार और सपने को दबाने की कोशिश कर रहे हैं।

दुनिया में भारत की स्थिति के बारे में राय में बढ़ोतरी के बावजूद उसे ये तथ्य नहीं भूलने चाहिए कि उसकी सेना का आधुनिकीकरण अब भी रुका हुआ है और अर्थव्यवस्था वादे के हिसाब से अब तक पटरी पर नहीं आई है। मोदी सरकार के पास राजनीतिक समर्थन है, जिसकी मदद से वह चीजें बदल सकती है या अगर वह असफल होती है, तो वह गुट-निरपेक्षता का साथ छोड़ने का बड़ा फैसला करे और अमेरिका के साथ औपचारिक रूप से सैन्य साझेदार बन जाए। इसलिए, जैसा कि जॉन गार्वर ने हाल ही में कहा था, “चीन के लिए यह जरूरी हो सकता है कि वह भारत को सबक सिखाए, इससे पहले कि चीन का फायदा खत्म हो जाए।”

ऐसे में क्या करने की जरूरत है, हमें देखना होगा। इसके लिए 2002 में मंत्री समूह और 2012 में नरेश चंद्रा समिति द्वारा सुझाई गई बातों के हिसाब से रक्षा-व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना चाहिए। भारत को  एक अच्छी पड़ोस नीति की दरकार है, जो इसके लिए अपने स्वाभाविक और सांस्कृतिक महत्व के चलते दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र (एसए-आइओआर) में फायदेमंद साबित हो सके और उसकी सुरक्षा चिंताओं को न्यूनतम बना सके।

डोकलाम की वजह से एक बड़ा संघर्ष हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। लेकिन जिस तरफ चीजें जा रही हैं वे बहुत खुश करने वाली नहीं हैं। एक मजबूत चीन हो सकता है सेना की लड़ाई में बेहतर साबित हो लेकिन दोनों को अपने-अपने सपने भूलने होंगे। दोनों के एक साथ आगे बढ़ने की तमाम संभावनाएं हैं और पुराने उपाय (सीबीएम-क्रॉस बॉर्डर मीट) जो दोनों के संबंधों को स्थिर बनाए हुए थे, वे निष्फल हो गए हैं। अगर यह दोनों के लिए जागने का संकेत नहीं है, तो फिर कुछ भी नहीं है।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो हैं)

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