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'अ' से अनाज वाले कवि

चंद्रकांत देवताले हिंदी कविता में उत्तरदायित्व अंगीकार करने वाले कवियों की परंपरा के कवि रहे हैं।
चंद्रकांत देवताले (1936-2017)

उनका जाना एक कंठ का मौन हो जाना भर नहीं है बल्कि मनुष्यता के पक्षधर एक स्पष्ट स्वर का शांत होना है। पचास के दशक के अंतिम वर्षों से लिखना शुरू करने वाले देवताले जी लगभग पैंसठ वर्षों तक हिंदी कविता में न सिर्फ सक्रिय रहे बल्कि सार्थक चर्चा में भी बने रहे। वह ऐसे कवि रहे जिनके जीवन और कविता में अंतर नहीं रहा। विचलन उतना ही जितना एक खास के साधारण होने की योग्यता के लिए आवश्यक है। यह सरलता ही उनकी श्रेष्ठता बनी। ‘आग हर चीज में बताई गई थी’ पुस्तक में ‘मैं कौन खास’ शीर्षक से एक कविता है, यदि मेरी कविता साधारण है/ तो साधारण लोगों के लिए भी / इसमें बुरा क्या मैं कौन खास... इस कविता में कविता और ‘साधारण’ कहे जा रहे ‘अंतिम जन’ के प्रति उनका लगाव ही है। उनकी ‘साधारण की प्रतिज्ञा’ है जो विशिष्ट है। यह उस कवि की कविता है जिसके लिए कवि हो जाना खास हो जाने जैसी कोई बात नहीं बल्कि मनुष्य होना बड़ी बात है।

चंद्रकांत देवताले की शुरुआती दौर की कविताओं में उनके स्कूल की पत्रिका या फिर नई दुनिया और ज्ञानोदय में छपी तीन कविताओं में से एक कविता मजदूर पर थी और बाकी दोनों प्रेम पर थीं। उस दौर में उन्होंने प्रकृतिपरक गीत भी लिखे थे। उनकी कविताओं में एक बेफिक्री और कस्बाई बातूनीपन तो है लेकिन ऐसा नहीं कि उनमें उत्तरदायित्व की जरा भी स्फीति हो। व्यवस्था में व्याप्‍त असमानता और वंचित वर्ग के साथ किए जा रहे अन्याय के प्रति उनका गुस्सा बहुत स्पष्ट है। वह (‘वध’ कविता में) साफ और तीखे शब्दों में यह कहने की हिम्मत रखते हैं, हजारों रास्तों से निकल कर/एक घिनौना चेहरा/पूरे शहर की बत्तियां बुझा देता है। उनकी कविता में मालवा के हरे-भरे खेत या दूध की नदियों की जगह वहां की क्रूर सच्चाई दर्ज है जिन्हें उनका जन-पक्षधर कवि अनदेखा नहीं करता। ऐसा नहीं कि चंद्रकांत देवताले कोई अराजनीतिक कवि हैं। ऐसा भी नहीं कि वह अराजकतावादी कवि हैं लेकिन शोषणमुक्त वैकल्पिक व्यवस्था के प्रति उनमें एक सतत सदीच्छा मौजूद रही है। यही वह प्रेरणा है जिसके तहत वह बच्चों को नई बारहखड़ी सिखाते हैं जहां ‘अ’ से ‘अनार’ नहीं ‘अनाज’ है और ‘आ’ से ‘आग’।

आज सभी यह स्मृतियां असहाय और नम हैं। उनका स्नेह मुझे ही नहीं नई पीढ़ी के लगभग सभी रचनाकारों के लिए अभिभावक जैसा सुलभ था। इसलिए इस एहसास में एक सामूहिक संवेदना शामिल है। देवताले जी की कविताएं उस स्नेह की छवि को उभारती हैं, जहां मनुष्य होना ही सबसे बड़ा  कर्म है।

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