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पुस्तक समीक्षाएं

तीन महत्वपूर्ण पुस्तकों हुजुर ए आला, महर्षि सांदीपनि-श्रीकृष्ण विद्यांजलि, कविता के तीन दरवाजे की समीक्षा
राजशाही पर राजसी व्यंग्य

हुजूर ए आला

शिव शर्मा, रोमेश जोशी

भारतीय ज्ञानपीठ

200 रुपये

 

यह पुस्तक लेखक द्वय की मेहनत का नतीजा है। यदि पाठक इसे मेहनत माने तो। क्योंकि आजकल अजीब चलन है, हंसने-हंसाने की बातों को बड़े हल्के ढंग से लिया जाता है। लेखक द्वय जहां से हैं वह प्रदेश मालवा की बोली में कहें तो, 'कौन सा बड़ा काम कर दिया जो जरा सा हंसा दिया तो।’ मालवा ऐसा ही है मीठी झिड़की देने वाला। यह पुस्तक है गजब की। एक ने सामग्री जुटाई तो दूसरे ने रातें काली कर कर के 135 पन्ने लिख दिए! राजसी कहानियां वैसे भी मजेदार होती हैं। बचपन से 'एक था राजा’ की टेर के साथ जो कहानियां शुरू हुईं वह सब हमें याद हैं। तो ये कहानी भले ही एक था राजा की टेर के साथ शुरू नहीं होती पर है सच्ची वाले राजा की कहानी। इस कहानी में मालवा की मिठास और वहां का विशुद्ध भदेसपन है। जो बिना लाग-लपेट के पाठकों के सामने आता रहता है।

यह शिव शर्मा और रोमेश जोशी की सफलता ही है जो एक राजा की दयनीय कहानी को भी हंसी के घोल में डुबो-डुबो कर बाहर निकालते हैं। जिस जीप में सफर तय हुआ है वही वर्णन इतना गुदगुदाता है कि समझ में आ जाता है अब हर घटना पर पेट में ऐसे ही हंसी की लहरें उठती रहेंगी। फिर भी इस उपन्यास को व्यंग्य उपन्यास नहीं कहा जा सकता। कहानी, उसके पात्र, स्थितियों पर जब लेखक द्वय नजर डालते हैं तो उनकी नजर सामान्य न हो कर खुद ब खुद मजाकिया हो जाती है। दोनों ही लेखक व्यंग्य की दुनिया के जाने माने नाम हैं। इसलिए स्वाभाविक था कि यदि वह गंभीर भी लिखेंगे तो उसके अगंभीर होने की पूरी संभावना होगी। इसलिए संभवत: लेखक ने इस संभावना को खत्म कर खुद ही इस उपन्यास में हास्य का दामन थाम लिया है जिसके लिए वे दोनों जाने जाते हैं।

अपनी लंबी-चौड़ी भूमिका में भी उन्होंने बताया है कि कैसे इस उपन्यास का खाका तैयार हुआ और कैसे यह एक ऐसी कृति में ढल गया जिसमें एक राजा अपनी पूरी गरीबी के साथ पाठकों से सामने मौजूद है। किस्से-कहानियों में जो राजा होते हैं, असल जिंदगी में वैसे राजा नहीं होते यह इस उपन्यास से आसानी से जाना जा सकता है। डायरी से निकल कर यह कहानियां अपने इर्द-गिर्द कई कहानियों को जन्म दे कर पाठकों को हंसने पर मजबूर कर देती हैं। अगर किसी को असली रियासत की कहानी जाननी हो तो हुजूर ए आला से बेहतर कुछ नहीं।

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महर्षि सांदीपनि-श्रीकृष्ण विद्यांजलि

संपादक पं. आनंदशंकर व्यास

पंचाग प्रकाशन विभाग

751 रुपये

 

महर्षि सांदीपनि महान तपस्वी और 16 कलाओं में पारंगत थे। वह मूल रूप से काशी के थे लेकिन अपने पुत्रों की मुत्यु से द्रवित हो कर वह उज्जैन चले आए थे। उज्जैन में भगवान शिव की आज्ञा से उन्होंने एक गुरुकुल की स्थापना की जिसमें दूर-दूर से छात्र शिक्षा लेने आते थे। श्रीकृष्ण ने भी उज्जैन के सांदीपनि आश्रम में शिक्षा पाई थी। दरअसल यह पुस्तक प्रसिद्ध शिक्षाविद सांदीपनि के अवदान, योगदान और उस वक्त की शिक्षा पर प्रकाश डालती है। यह सांदीपनि ग्रंथ है जिसमें पाठक महर्षि सांदीपनि को शिक्षा, भक्ति और त्याग के आलोक में देख सकेंगे। इस विद्यांजलि में उज्जैन की कथाएं हैं जिन्हें जानना सभी के लिए दिलचस्प होगा। श्रीकृष्ण के गुरुकुल के रूप में आज भी उज्जैन में सांदीपनि आश्रम मौजूद है। इस पुस्तक में श्रीकृष्ण के गुरुकुल के दिनों को सरल भाषा में पढ़ा जा सकता है। वेदों, उपनिषदों, भगवत पुराण के श्लोकों और उनके हिंदी अर्थों के साथ यह किसी भी पाठक के लिए सरल सामग्री उपलब्ध कराती है। यह एक गुलदस्ता है जिसमें नाटक, पौराणिक कथाएं और लेख समाहित हैं।

इस पुस्तक में महाकाल सहस्त्रनामावलि भी है जो अतिरिक्त रूप से उल्लेखनीय है। शिक्षा के बदलते स्वरूप लेख ने इस पुस्तक में बेहतर संतुलन साधा है। चूंकि गुरु सांदीपनि एक महान शिक्षाविद् थे इसलिए शिक्षा पद्धति और स्वरूप पर बात करना बहुत जरूरी है। एक और आलेख वैदिक शिक्षा व्यवस्था और विद्या उपासना, शिक्षा के संदर्भ में सत्यधर्म संदेश, आधुनिक परिप्रेक्ष्य में श्रीकृष्ण आज भी सापेक्ष हैं इस पुस्तक के अन्य उल्लेखनीय लेख हैं। यह पुस्तक एक साझे प्रयास और अनादि नगरी उज्जैन में सांदीपनि आश्रम के बारे में यह भ्रम तोड़ती है कि यह सिर्फ पौराणिक तीर्थ स्थल है। यह इतिहास का साक्षी है जिस पर सभी का ध्यान जाना ही चाहिए। पुस्तक इसी का विनम्र प्रयास है।

 

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कविता के तीन दरवाजे

अशोक वाजपेयी

राजकमल प्रकाशन

795 रुपये

 

 

अशोक वाजपेयी ने तीन बड़े रचनाकार अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध पर पिछले चार दशकों से जो चिंतन-मनन किया उसका सुफल है यह नई आलोचना पुस्तक। मतभेदों को परे रख कर यह आम स्वीकृति तो बनती है कि पंत, प्रसाद और निराला की वृहत त्रयी के बाद जो वृहत त्रयी बनती है वह अज्ञेय, शमशेर और मुक्तिबोध की है। इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि अपने समय के आधुनिक हिंदी कविता के इन तीनों बड़े कवियों से आलोचक-कवि अशोक वाजपेयी का निकट का संबंध बनना। यही कारण है कि तीनों कवि उनके मानस-पटल पर निरंतर आवाजाही करते रहे। तभी वह इस पुस्तक में अज्ञेय पर पहला लेख सन 1965 में, शमशेर पर 1976 में और मुक्तिबोध पर 1964 में लिखा लेख डाल सके। पुस्तक में वह इन तीनों कवियों के बारे में कहते हैं, अज्ञेय में शब्द, बिंब और स्मृतियों का वैभव है। शमशेर में अद्भुत चित्रमयता और अतियथार्थ है। मुक्तिबोध की कविता आधिक्य और अतिरेक की कविता है। अज्ञेय तराशते हैं, शमशेर महीन बुनते हैं, मुक्तिबोध तोड़ते हैं।

सन 1957 से इन तीनों बड़े कवियों के आत्मीय संपर्क में आए अशोक वाजपेयी इस पुस्तक की भूमिका में कहते हैं, 'आलोचना में रसे-बंधे रहने के बावजूद और उसमें संवादरत और सक्रिय होते हुए भी मुझे अपने इस आकलन में फेरबदल करने या उससे पीछे हटने की कोई जरूरत नहीं लगी न अब लगती है। यह त्रयी हमारी वृहत त्रयी है। उनके इस कथन से एक आम पाठक का असहमत होना मुश्किल है।

 

मनोज मोहन

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