पंजाब स्कूल के एक अन्य मशहूर संगीतकार रशीद अत्रे का नाम आज पूर्णत: विस्मृत हो गया है, पर पांचवें दशक में उनके कई गीतों ने अच्छी लोकप्रियता हासिल की थी। अमृतसर में 1919 में जन्मे रशीद अत्रे के पिता खुशी मोहम्मद अपने जमाने के अच्छे गायक और संगीतज्ञ थे। रशीद अत्रे ने संगीत की प्रारंभिक शिक्षा खान साहब अशफाक हुसैन से पाई और कई वाद्यों, विशेषकर तबले में पारंगत हो गए। पांचवें दशक के आरंभ में फिल्म पगली (1943) के दो गीतों, ममता (1942) के गीतों के संगीतकार और पन्ना (1944) में अमीर अली के सहायक के रूप में अत्रे का फिल्मी जीवन प्रारंभ हुआ। पगली (1943) में उनका कंपोज किया गीत, ‘ओ आइयो मैं आया’ पंजाब की रिद्म की पूरी उत्फुल्लता लिए था। पंडित अमरनाथ के साथ संगीतबद्ध पंचोली की शीरीं फरहाद (1945) के गीत, ‘अरमानों की बस्ती में’ (शमशाद) की सुंदर धीमी लय के पीछे पाश्चात्य ऑर्गन का असर बहुत खूबसूरत लगता है। शमशाद के ही स्वर में ‘तू नहीं तो आसरा मुझको है तेरी याद का’ भी दर्द के भावों का उल्लेखनीय सृजन करती है। हिंदुस्तान फिल्म कॉरपोरेशन की 1942 में बनी फिल्म पर्दानशीं के संगीतकार के रूप में आर.ए. अत्रे का नाम आता है। पता नहीं ये रशीद ही थे या कोई और पर इस फिल्म की ‘चली हवा ऐसी या इलाही’ एक बड़ी अनूठी सशक्त रचना थी। इसी फिल्म में ‘फूल महके मोरी फुलवारी’ में राग बहार के पुट और बांसुरी से भावाभिव्यक्ति ने गीत में जान डाल दी थी। रशीद अत्रे नवयुग चित्रपट में भी स्थाई संगीतकार की हैसियत से कुछ अरसे तक कार्यरत थे। नवयुग चित्रपट, बंबई की रूम नं. 9 (1946) में पंजाब की उछलती-मचलती शैली में संगीतबद्ध ‘जिया मोरा बल बल जाए रे’ (अमीरबाई) लोकप्रिय रहा था। इसी फिल्म में अत्रे ने रफी से नख्शब जारचवी की गजल ‘रहे तो कैसे रहे, दिल पे इख्तियार मुझे’ बड़ी खूबसूरती से गवाई थी।
मूलत: पंजाब स्कूल के संगीतकार रशीद अत्रे ने आरंभ से ही गजलों की कंपोजीशन को अपनी विशिष्टता बनाने की कोशिश की। यही कारण है कि जब बॉम्बे टॉकीज ने भी मुस्लिम सामाजिक फिल्म नतीजा (1947) बनाई तो अपने स्थाई संगीतकारों को छोड़कर फिल्म के परिवेश के अनुरूप संगीत देने के लिए रशीद को अनुबंधित किया। रशीद अत्रे की सबसे चर्चित फिल्म याकूब, शमीम और रेहाना अभिनीत नतीजा (1947) ही मानी जाएगी, जिससे उन्होंने नख्शब जारचवी की एक बेहतरीन गजल ‘उन्हें भी राजे-उल्फत की न होने दी खबर मैंने’ को जोहराबाई से गजल की पारंपरिक शैली में बड़ी खुसूसियत से गवाया था। पारुल घोष के स्वर में ‘दुआ दे रहे हैं सजा पाने वाले’ और ‘ऐ खुदा ऐ मालिक’ तथा ‘बिगड़ी मेरी बना दो या शाहे मदीना’ जैसे परिवेश के अनुकूल गीत भी प्रशंसित रहे थे।
इसी फिल्म का जोहरा का ही गाया ‘मोरी बाली उमरिया सांवरिया’ की मचलती धुन सुपरहिट तो रही ही थी। एच.एम.वी. ने अपने अंखियां मिला के एंेड अदर हिट्स ऑफ जोहराबाई अम्बालावाली कैसेट में इस गीत को जगह भी दी है। यह भी एक रोचक तथ्य है कि रशीद के संगीतबद्ध अधिकांश गीत नख्शब जारचवी के ही लिखे थे। फिल्म पारो (1947) में भी प्रमुख गीतकार नख्शब जारचवी ही थे। इस फिल्म में अत्रे ने ए. असलम (जो कुछ फिल्मों के संगीतकार भी बने), सुलोचना कदम और राजकुमारी के स्वरों में ‘जख्मों को नया जख्म लगाता है जमाना’ जैसे गीतों को सुरों में ढालने के अलावा स्वयं भी ‘ओ मांझी ओ हमें, सहारा तेरा’ (कल्याणी के साथ) और ‘जीवन पंछी बोली बोले’ जैसे गीत गाए थे।
रशीद अत्रे की संगीतबद्ध गजलों के सिलसिले में हमें रूम नं. 9 और नतीजा की गजलों के अलावा शाहिद लतीफ निर्देशित शिकायत (1948) में मोमिन की मशहूर गजल ‘वो जो हम में तुम में करार था’ को भी याद करना चाहिए जिसे उन्होंने कल्याणी और माणिक दादरकर से उत्कृष्ट ढंग से गवाया था। यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रसिद्ध शायर और गीतकार जां निसार अख्तर ने पहली बार इसी फिल्म के लिए गीत लिखे थे।
अत्रे ने असल नाम कमाया विभाजन के बाद पाकिस्तान में। नूरजहां के गाए दो सर्वश्रेष्ठ सदाबहार गीत फैज अहमद फैज की अमर कृति ‘मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ फिल्म कैदी और ‘निगाहें मिलाकर बदल जाने वाले’ फिल्म महबूब की रचना कर अत्रे अमर हो गए हैं। बागेश्वरी की छाया लिए ‘लट उलझी सुलझा दे बालम’ (नूरजहां) फिल्म सवाल का भी अलग मुकाम था। नूरजहां के ही स्वर में ‘जिंदगी है या किसी का’, ‘सितारों मेरी आंखों के’ आदि और ‘आंखों से मिलीं आंखें’ (मेहंदी हसन) फिल्म हजार दास्तान भी उनकी लाजवाब कंपोजीशंस के रूप में यादगार बन चुकी हैं। इनायत हुसैन के द्वारा तीन गीतों की रिकॉर्डिंग के बाद अनारकली (1958) फिल्म को निर्देशक से हुए विवाद के कारण छोड़ने के बाद इस फिल्म का संगीत अत्रे को ही सौंपा गया। नींद (1959) में नूरजहां के स्वर में ‘तेरे दर पर सनम चले आए’ अत्रे की एक और सदाबहार कंपोजीशन है। वर्षों बाद फिर तेरी कहानी याद आई नाम से भारत में एक फिल्म बनी और उस फिल्म में इन पक्तियों को लेकर रचा यह गीत हिट हुआ। रूही, खातून, सरफरोश, वादा, सात लाख, मुखड़ा, शहीद, गुलफाम, फरिश्ता, दुलहन, गहरा दाग, पायल की झंकार, महल जैसी अनेक पाकिस्तानी फिल्मों में रशीद अत्रे के गीत बेहद लोकप्रिय रहे। पाकिस्तान के सम्मानित निगार अवॉर्ड से उन्हें तीन बार नवाजा गया। 18 दिसंबर, 1967 को मात्र 48 वर्ष की उम्र में रशीद अत्रे दुनिया छोड़ गए।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)