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सभ्यतापरक आख्यान

शूद्र प्रबंध काव्य सामाजिक ताने-बाने और वर्गविशेष की संभावनाओं को कफस में कैद करने की उद्वेलन भरी कहानी है। कृति समाज की उस मान्यता को चुनौती देती है, जो इतिहास को, उसकी मान्यताओं को बिना सोचे-समझे सही मान लेती है। लंबी कविता में सबसे अधिक जो चीज बांधती है, वह है उपशीर्षक।
शूद्र, त्रिभुवन, प्रकाशकः अंतिका, पृष्ठन : 112 | मूल्य : 235 रुपये

स्पेनिश कवि पाब्लो नेरूदा की कविता, ‘यू स्टार्ट डाइंग स्लोली’ के मर्म और संदेश को लेकर चलती हुई कृति शूद्र हाशिए के वर्ग में नई चेतना भरती है। अभिव्यक्ति की यह तासीर निःसंदेह उत्तेजक है। यहां वेदनाओं की बंदनवार है, अत्याचारों के दंश हैं और जाने कितनी कराहे हैं। कवि शोध भी करता है कि इस वर्ण और वर्ग विभाजन का ध्येय क्या है? सामंती व्यवस्था के बरअक्स समाजवाद का हासिल क्या है? कविता पढ़ते हुए कई मर्तबा भावनाएं फट पड़ती हैं और आंखें सजल हो जाती हैं। सैद्धांतिक आलोचनाशास्‍त्र कहता है, ‘सहज होना दुर्लभ है, बनावटी होना आसान।’ यह बात शूद्र के लिए सटीक बैठती है।

दुखद है कि इतिहास शीर्षस्थों के प्रति उत्साह का अतिरेक दिखाता है लेकिन धरती के ललित-ललामों की आहूति के प्रति मौन हो जाता है। त्रिभुवन की कविताएं प्रतिरोध और अस्मिता की साझा पहचान हैं। कविता के माध्यम से समाज के उन कलंकों को रेखांकित किया गया है जो समाज के माथे पर जुर्म की दास्तां के रूप में अंकित हैं। ये कविताएं सौंदर्यशास्‍त्रीय मानकों और भाषिक संरचना के आधार पर ही अपनी मंजिल तय नहीं करतीं वरन अपने समय से सीधा संवाद करती हैं।

त्रिभुवन की कविता में भुलावा नहीं है, यहां सीधी बात वृहद कैनवास पर है। ‘शूद्र के कंधे पर किले’ से लेकर अंतिम अंश ‘यह कहानी है तमस में सूर्य रचने की’ तक लेखकीय प्रतिबद्धता, ऐतिहासिक चिंता और रचनात्मकता साथ-साथ चलती है। ये कविताएं इस तथ्य को समवेत स्वर में उद्घोषित करती हैं कि सभ्यताओं का इतिहास व्यक्तियों के क्रियाकलापों और जनता के संघर्ष से ही निर्मित होता है। बेलौस ढंग से अपनी बात कहते हुए त्रिभुवन विद्रूप सामाजिक स्थितियों पर चोट करते हैं।

कवि वर्णविशेष को मुखर अभिव्यक्ति प्रदान कर कहलवाता है, ‘हम वर्ण का चौथा पायदान नहीं वरन हम अनेक वर्णों के सर्जक हैं। नहरें, नदियां, बांध और लहलहाते खेत हमारे श्रम का ही प्रतिफल हैं। कवि बार-बार रक्तरंजित इतिहास को टटोलता है और बहुत सारे प्रश्नों का हल खोजने की कोशिश करता है। आखिर हैं कौन ये शूद्र और क्यों इस वर्ग ने युगों से दासता ढोई। इस खोज में वेदना निकल कर आती है, ‘हम से सब पोषित हुए, फिर भी हम अस्पृश्य घोषित हुए।’

कवि देखता है चाहे ब्राह्मणों के लिए यज्ञ हो, क्षत्रियों के राज सिंहासन हों या वैश्यों के लिए व्यापार, सभी के पीछे श्रम से चूर शूद्र हैं। वेद, स्मृतियां और ऋचाएं जिस श्रम का गुणगान करती हैं उसके नेपथ्य में इनका श्रम ही है। इसलिए प्रश्न आता है, ‘हम न होते तो?’ और उत्तर मिलता है, ‘हम न होते तो, ऋग, यजु, साम और अथर्व न होते। ईश, केन, कंठ, मुंडक, मांडूय, तैत्तिरीय, ऐतरेय, मैत्रायणी, छांदोग्य और वृहदारण्यक न होते।’ इतिहास की निष्ठुरता पर तो कवि क्षुब्ध होता ही है साथ ही हालात और सभ्यताओं पर भी प्रश्नचिह्न लगाता है।

वह व्यवस्था पर सवाल दागता है और व्यवस्था निरुत्तर हो जाती है। शूद्र आख्यान की तरह है। इसकी अंतिम कविता का शीर्षक है, ‘यह कहानी है तमस में सूर्य रचने की’ जिसमें कवि जिजीविषा, जीवटता और ऊर्जा के साथ लिखता है, ‘हम ज्वालामुखी, हम विस्फोट, हम बाघ की दहाड़, हम क्षितिज से फूटते सूर्य।’ आज साहित्य में वैयक्तिक अभिव्यक्तियों पर जोर है। ऐसे में अनुभव की अभिव्यक्ति ही रचनाओं में अधिक देखने को मिलती है। शूद्र वृहद् सामाजिक उद्देश्य को लेकर चलती हुई समाज की बुनावट के दोष पर प्रहार करती है। मनुस्मृति, वेदों और धर्म के ठेकेदारों ने व्यक्ति-व्यक्ति को बांटकर जाति और वर्ण की दीवारें खींच दीं। शूद्र कृति इन्हीं सींखचों से निकलती हुई अरुण किरणों की साक्षी है। त्रिभुवन की भाषा सौंदर्य के मानकों की मोहताज नहीं है। उनकी कविताएं वैचारिक सरोकारों के कारण सदियों के गह्वरों से कराहती स्मृतियों की खरोचों को उघाड़ती हैं। कविताओं में प्रयुक्त बिंब, मिथक, संकेत और प्रतीक विषय को अधिक स्पष्ट करते हैं।

यह संकलन उस विरासत के उत्खनन का काम करता है जो सदियों से विस्थापित है, ‘जो न प्रवासी हैं, न अनिवासी हैं, न विदेशी, वे शुद्ध देशी हैं।’ ‘आओ अब अदावत कर लें, आओ अब बगावत कर दें, कब तक मजबूर रहेंगे, कब तक मजदूर रहेंगे, आओ अब कयामत कर दें।’

हीरा फेरी, सुरेन्द्र मोहन पाठक, प्रकाशकः हार्पर कॉलिंस, पृष्‍ठ : 150 , मूल्य: 350 रुपये

हिंदी थ्रिलर की दुनिया में कम लेखक हैं जो अंत तक पाठकों का रोमांच बरकरार रखते हैं। सुनील और जीत सिंह जासूसी की दुनिया के जाने-पहचाने पात्र हैं। जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि की तर्ज पर जीत सिंह हर मिस्ट्री को सुलझाने में माहिर हैं। पाठक की ओर से पाठकों के लिए यह नया तोहफा है।

एक घूंट चांदनी, राकेश कुमार सिंह, प्रकाशकः राधाकृष्ण, पृष्‍ठ : 135, मूल्य : 300 रुपये

रूखी-सूखी दुनिया में यदि कोई प्रेम की कोंपल बचाए रखे तो यह अपने आप में सराहनीय है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में रहते हुए भी राकेश कुमार सिंह ने कपास की तरह नरम और रेशम की तरह कोमल एक प्रेमकथा रची है। इस उपन्यास की खूबसूरती ही है कि यह मासूमियत से बांधे रहता है।

नरेन्द्रपुर, संपादन : रंजन कुमार सिंह, प्रकाशकः तक्षशिला, पृष्‍ठ : 150, मूल्य: 250 रुपये

यह पुस्तक अपने आप में अनूठी इस लिहाज से है कि इसमें सिवान के नरेन्द्रपुर में लगे कथा शिविर के कथाकारों की उन कहानियों को संकलित किया गया है जो वहां सुनाई गईं। सभी कहानियों में गुम हो गए गांव और वहां की गंध को आसानी से महसूसा जा सकता है। गांव की कथाएं इसी बहाने सहेजी जा सकेंगी।

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