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भारत विभाजन के आयाम

पुस्तक भारत विभाजन को अनेक कोणों से देखने और अनेक आयामों को उद्घा टित करने वाली है
लुकिंग बैक: द 1947 पार्टीशन ऑफ इंडिया 70 ईयर्स ऑन पर विमर्श

देश ने अभी-अभी स्वाधीनता की सत्तरवीं सालगिरह मनाई है। स्वाभाविक है कि इस अवसर पर स्वाधीनता के साथ-साथ हुआ विभाजन भी चर्चा के केंद्र में है। 18 अगस्त को विभाजन के अनेक आयामों का विश्लेषण करने वाली पुस्तक लुकिंग बैक: द 1947 पार्टीशन ऑफ इंडिया 70 ईयर्स ऑन के लोकार्पण में जाने का मौका मिला। इसे रख्शंदा जलील, तुषार सेंट और देवयानी सेनगुप्ता ने संपादित और ओरियंट ब्लैकस्वान ने प्रकाशित किया है। पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें भारत विभाजन को अनेक कोणों से देखने वाली और उसके अनेक आयामों को उद्घाटित करने वाली विविध प्रकार की सामग्री को संपादकीय विवेक के साथ संकलित और प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक में विभाजन की प्रक्रिया का ऐतिहासिक और राजनीतिक अध्ययन एवं विश्लेषण प्रस्तुत करने वाले गंभीर लेखों के अलावा फिल्म, कला, साहित्य और संगीत पर पड़े प्रभावों के बारे में भी अच्छी संख्या में लेख और साथ ही संस्मरण हैं। अक्सर विभाजन के बारे में चर्चा के केंद्र में पंजाब ही रहता है लेकिन इस पुस्तक में बंगाल के विभाजन और उसके परिणामों-मसलन शरणार्थियों के पुनर्वास पर भी पठनीय सामग्री दी गई है।

पाकिस्तानी इतिहासकार आयशा जलाल ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना पर 1985 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि विभाजन के लिए जिन्ना नहीं, कांग्रेस और खासकर जवाहरलाल नेहरू जिम्मेदार थे क्योंकि जिन्ना एक ढीले-ढाले संघीय ढांचे के भीतर मुस्लिम बहुसंख्या वाले प्रान्तों के लिए अधिक अधिकार चाहते थे और पाकिस्तान की मांग तो केवल भाव-ताव करने का औजार भर थी। भारत के संविधानवेत्ता एच. एम. सीरवाई भी इसी विचार के थे और भारतीय जनता पार्टी के नेता एवं पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने भी अपनी किताब में इसी को रेखांकित किया है। नेहरू की छवि को बिगाड़ने में हमेशा दिलचस्पी लेने वाली भाजपा और उसके समर्थकों के लिए अब यह आप्त वचन हो गया है कि विभाजन के लिए जिन्ना नहीं, नेहरू जिम्मेदार थे। इस बात को इतना अधिक दुहराया जा रहा है कि बहुत जल्दी यह हमारे सामान्य बोध का हिस्सा बन जाएगी।

पुस्तक में संग्रहीत पहला लेख ही ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इस मिथक को ध्वस्त करता है क्योंकि इसमें अनिल नौरिया ने मुस्लिम लीग के उन प्रस्तावों को उद्धृत किया है जिनमें 1946 तक यह कहा जाता रहा कि पाकिस्तान की मांग “अपरिवर्तनीय” है। केबिनेट मिशन पर केंद्रित इस लेख में पाकिस्तान बनने के बाद जिन्ना के आचरण को भी रेखांकित करके यह दर्शाया गया है कि उनका संघीय प्रणाली में कोई यकीन ही नहीं था, इसलिए उनका प्रस्ताव पाकिस्तान के निर्माण की ओर बढ़ाया गया एक और कदम भर था। जिन्ना का अंतिम लक्ष्य पाकिस्तान था और इसीलिए पहले संवैधानिक तरीकों के हिमायती जिन्ना ने “सीधी कार्रवाई” का आह्वान करके कलकत्ता में सांप्रदायिक हिंसा भड़कवाई थी।

रख्शंदा जलील का लेख बहुत दिलचस्प है क्योंकि उससे पता चलता है कि विभाजन के प्रति हिंदी और उर्दू लेखकों की प्रतिक्रिया लगभग एक जैसी थी। हिंदी में कथाकारों ने विभाजन पर जितनी कहानियां और उपन्यास लिखे, उसकी तुलना में कवियों ने बहुत कम लिखा। जलील बताती हैं कि उर्दू में भी कमोबेश यही स्थिति है। जहां विभाजन ने नए उर्दू कहानीकार को जन्म दिया और उस पर अनेक उच्च-स्तरीय उपन्यास लिखे गए, वहीं उर्दू कवियों की कलम मानो गूंगी-सी हो गई। हिंदी के मुकाबले तो फिर भी उर्दू में विभाजन से प्रेरित होकर अधिक कविता लिखी गई, लेकिन उर्दू के कथा साहित्य की तुलना में उसका आकार नगण्य ही है।

लेकिन इस पुस्तक में जहां उर्दू, पंजाबी और बांग्ला के साहित्य को प्रस्तुत करने पर खासा ध्यान दिया गया है, वहीं हिंदी कथा साहित्य को लगभग उपेक्षित कर दिया गया है। कहा यह गया है कि कम प्रसिद्ध रचनाओं को स्थान दिया गया है पर जितना दिया गया है, वह भी प्रतीकात्मक ही अधिक है। हां, असगर वजाहत के प्रसिद्ध नाटक, ‘जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ’ के दो अंकों का अंग्रेजी अनुवाद जरूर सम्मिलित किया गया है।

हालांकि पुस्तक अंग्रेजी में है, लेकिन अब अधिकांश हिंदी पाठक अंग्रेजी भी आसानी से पढ़ और समझ लेते हैं। ऐसे पाठकों को इस पुस्तक से बंगाल के विभाजन की बहु-आयामी प्रक्रिया को समझने में काफी मदद मिलेगी। साथ ही यह भी पता चलेगा कि चाहे आज की हों या पचास साल पहले की, सरकारें अक्सर ऐसे निर्णय लेती हैं जिनका जमीनी वास्तविकताओं से कोई संबंध नहीं होता। पुस्तक में 1963-1964 के दौरान दंडकारण्य विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे सैबाल कुमार गुप्‍ता के संस्मरण से पता चलता है कि पूर्वी बंगाल से आए चावल खाने वाले शरणार्थियों को एक ऐसे इलाके में बसा दिया गया जहां पानी का अभाव था और चावल की खेती करना असंभव था। स्कूल में भी स्थानीय और शरणार्थी बच्चों को एक साथ भर्ती कर दिया गया और वहां स्थानीय भाषा में पढ़ाई कराई गई। जाहिर है कि यह प्रयोग पूरी तरह से असफल रहा। विभाजन से पहले बंगाल में दलित-मुस्लिम गठबंधन के व्यापक प्रयास हुए थे, इस महत्वपूर्ण तथ्य का पता भी अन्वेषा सेनगुप्ता के लेख से चलता है और इसकी अनुगूंज आज की राजनीति में भी सुनी जा सकती है।

पुस्तक के अंत में पाकिस्तान के जाने-माने उर्दू कवि और आधुनिक गजल के संस्थापक नासिर काजमी और उर्दू के शीर्षस्थ कथाकार इंतजार हुसैन की बातचीत ऐसा दस्तावेज है, जिसे सिर्फ दुर्लभ ही कहा जा सकता है। इंतजार हुसैन बुलंदशहर के डिबाई कस्बे के थे और मेरठ कॉलेज में पढे़ थे। वे विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

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