Advertisement

अभी तो पार्टी शुरू हुई है...

सामाजिक बंधन तोड़ कोलकाता की उम्रदराज म‌हि लाओं ने शुरू किया नया चलन, एकाकीपन खत्म करने के लिए जमती हैं महफिलें
जीवन के रंगः मस्ती करती महिलाएं

“हमारी पार्टियों में वह सब कुछ होता है जो दूसरी हंगामेदार पार्टियों में होता है। हम शराब पीते हैं, लाउड म्यूजिक सुनते हैं और खूब नाचते हैं जैसे कल आएगा ही नहीं।’’ यह कहना है कोलकाता की एक ब्यूटी सैलून की मैनेजर प्रोणिता मुखर्जी का। प्रोणिता 60 साल की हैं और उन्होंने अपनी मित्रों, जिनमें ज्यादातर उनकी हमउम्र या थोड़ी बड़ी हैं, के साथ मिलकर पार्टी करने का नया अंदाज खोज लिया है। वह कहती हैं, ‘‘कभी-कभी जब हम जल्दी करते हैं तो हमारे घुटने टकराने लगते हैं, हड्ड‌ियां खड़खड़ाने लगती हैं, मगर कदम नहीं रुकते। इसके बजाय हम अपने जोड़ों से निकल रही आवाज को पार्टी में बज रहे पुराने गानों की रीमिक्स से मिला कर आनंद लेते हैं। ये वही गाने हैं जिन्हें सुन कर हम बड़े हुए हैं।’’

मुखर्जी के साथ की महिलाओं में अधिकांश विधवा, तलाकशुदा या अविवाहित यानी अकेली हैं। ये रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुकी हैं। ये उसी तरह से मस्ती कर रही हैं जैसे युवा पीढ़ी करती है। इसे कोलकाता में एक नए चलन की शुरुआत कह सकते हैं। यह उम्रदराज बंगाली महिलाओं की वह पीढ़ी है जो उम्र को लेकर समाज की परंपरागत सोच को बदलना चाहती है और उस दुनिया में कदम रखना चाहती हैं जहां जाने की हिम्मत उनकी माताओं ने कभी नहीं की थी। इन महिलाओं पर बंदिशों की एक लंबी सूची रही है। इन्हें रंगीन कपड़े पहनने की मनाही है, ये मांसाहारी भोजन नहीं कर सकतीं और मनोरंजन से जुड़ी गतिविधियों में शामिल नहीं हो सकतीं।

70 साल की एक रिटायर स्कूल टीचर के अनुसार, ‘‘जब मेरी मां और दादी मेरी उम्र की थीं तब उन्हें घर के भीतर रहना पड़ता था, पूजा करनी होती थी, मोटे कपड़े पहनने होते थे, खाने में संयम बरतना पड़ता था।’’ वह कहती हैं, ‘‘मैं बूढ़ी औरतों के गहरे अवसाद का कारण महसूस कर सकती हूं क्योंकि उनके सामने ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती थी जिससे लगता था कि उनका समय खत्म हो गया है। मुझे भी डर लगता था कि जब मेरा समय आएगा तो मेरी भी यही स्थिति होगी।’’ लेकिन जब वह 70 साल की हुईं तो उन्हें पता चला कि उनकी कुछ रिटायर महिला सहकर्मियों ने उनके जन्मदिन पर ‘रीयून‌ियन’ का कार्यक्रम बनाया है। वह कहती हैं, ‘‘जब हम साथ काम करते थे तो काफी नजदीक थे, पर बाद में अलग हो गए। अब हम पार्टियों में हरदम मिलते हैं। गॉसिप करते हैं, गाना गाते हैं, फिल्म देखते हैं। इतना ही नहीं साथ में खाते-पीते हैं और मस्ती करते हैं।’’ वह कहती हैं कि वह और उनकी सहेलियां उम्रदराज लोगों से जुड़ी एकाकीपन की भावना से बाहर आ गई हैं।

कोलकाता के उपनगर बेहला में भी उम्रदराज महिलाओं का एक ग्रुप इस तरह की पार्टियों में रमा हुआ है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 65 साल से अध‌िक उम्र की महिला, जिसका गिरने की वजह से एक पैर टूट गया है, पार्टी स्थल पर व्हीलचेयर पर ही जाने पर जोर देती है। कोलकाता के फिल्म निर्माता और इन पार्टियों में जाने वाली एक महिला के पुत्र रत्नदीप घोष कहते हैं, ‘‘एक दिन जब मैं घर लौटा अपनी मां को अपनी मित्रों के साथ झूम-झूम कर नाचते देख कर दंग रह गया। इनमें से एक तो अपनी व्हीलचेयर पर ही नाच रही थीं।’’ रत्नदीप इन महिलाओं को ‘पार्टी एनिमल’ कहते हैं। वह कहते हैं, ‘‘बाद में मैंने अपनी सोच में बदलाव किया क्योंकि मुझे लगा कि ये अपनी जिंदगी का मजा ले रही हैं। इससे पहले जब मैं काम से घर लौटता था तो पाता था कि मां टीवी पर उदासी भरा सीरियल देख रही हैं। उन्हें मेरे लौटने और खाना देने के बाद सोने का इंतजार रहता था।’’

यह देखना खास है कि इन पार्टियों में ऐसा क्या है जो उम्रदराज महिलाओं को आकर्षित कर रहा है। 60 साल से ज्यादा उम्र वाली झरना मित्रा कहती हैं, ‘‘इसका बस एक ही कारण है और वह है मस्ती।’’  वह महिलाओं के उस ग्रुप का हिस्सा हैं जो लगातार मिलती हैं। झरना कहती हैं, ‘‘सामाजिक दबाव में उम्रदराज महिलाओं को मनोरंजन करने से रोका जाता है। मनोरंजन के बारे में मान्यता है कि इस पर युवाओं का एकाधिकार है। अगर हम अपनी सोच में बदलाव करें तो मेरा मानना है कि इससे वृद्धावस्था और उससे जुड़ी बीमारियों की समस्या का निदान पाया जा सकता है।’’ कोलकाता के उपनगर गारिया की गृहणी शिप्रा चटर्जी का उदाहरण लें। वह झरना के ग्रुप में शामिल हैं। चार साल पहले पति की हार्ट-अटैक से हुई मौत के बाद वह गहरे अवसाद में चली गई थीं। उन्हें लगने लगा था कि अब उनकी राह भी समाप्त होने वाली है। लेकिन भावनात्मक नुकसान से ज्यादा उनके लिए कपड़े पहनने पर लगी रोक और उदास दिखने जैसे सामाजिक दबाव ज्यादा परेशान करने वाले थे। यह अच्छे कपड़े पहनने की शौकीन महिला की आत्मा को कुचलने की तरह था। उनके बेटे और बहू ने उन्हें समझाने का प्रयास किया। मगर यह तब संभव हुआ जब उनके अपार्टमेंट में रहने वाली महिलाओं ने यह तय किया कि वे पार्टी में अपनी पसंद का ड्रेस पहनेंगी। ऐसा होने के बाद ही वह अपनी रुकावटों को खत्म कर पाईं।

मित्रा हंसते हुए कहती हैं, ‘‘यह रिटायर स्कूल टीचर बासबी अधिकार का आइडिया था। उन्होंने यह नियम बनाया कि जो भी ‘अंडर ड्रेस्ड’ आएगी उसे पार्टी में आने की अनुमति नहीं होगी। मुझे भी कई बार बाहर निकाला गया और घर जा कर कपड़े बदलने को कहा गया।’’ शिप्रा चटर्जी ड्रेस कोड को लेकर सबसे ज्यादा फिक्रमंद रहने वालों में से एक हैं। वह सबसे बढ़िया गहनों और साड़ी का चयन करती हैं। वह कहती हैं, ‘‘मुझे ये पार्टियां काफी पसंद हैं, मैं इसके अलावा और कहीं नहीं जाना चाहती।’’ हाल ही में उन्होंने बच्चों के साथ यूरोप जाने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि वह इन पार्टियों को छोड़ना नहीं चाहती थीं। 

अर्चना बनर्जी 70 साल के करीब की हैं। 2013 में अचानक उनके पति की मौत हो गई। इसके बाद उन्हें भी सूने और एकाकी जीवन का सामना करना पड़ता। लेकिन जब वह अपनी बेटी के पास गारिया के अपार्टमेंट में रहने के लिए आईं तो उनके जीवन में खासा बदलाव आया। इस बदलाव का कारण है उनका महिलाओं की पार्टी करने वाले ग्रुप में शामिल होना। पहले ये पार्टियां योजना बना कर हर हफ्ते आयोजित की जाती थीं पर अब ये बिना किसी तैयारी के अलग-अलग घरों में किसी भी समय आयोजित होने लगी हैं। इन पार्टियों की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बिल्डिंग में रहने वाले युवा खास कर उम्रदराज महिलाओं के वयस्क बच्चे किसी भी तरह यहां घुसने की कोशिश में लगे रहते हैं।

गौर करने वाली बात तो यह है कि इन बुजुर्ग महिलाओं की पार्टी किट्टी पार्टी से बिलकुल अलग होती है। इन पार्टियों में पैसा नहीं लगता है और यहां महिलाएं कार्ड खेलने के लिए नहीं बल्कि धमाकेदार डांस करने के लिए जुटती हैं। समाजशास्‍त्री बेला भद्रा इन बदलावों पर नजर रखती हैं। वह इसे आधुनिक समय में पारिवारिक संरचना में हो रही टूट से जोड़ कर देखती हैं। एक समय था जब मां और दादी-नानी अपने बच्चों या नाती-पोतों से घिरी रहती थीं। इसकी वजह से उन्हें बाहर के लोगों से संबंध रखने की बहुत कम गुंजाइश रहती थी। हालांकि समाज ने उन पर कई बंधन थोप रखे थे लेकिन फिर भी वे अकेला महसूस नहीं करती थीं। लेकिन कोलकाता जैसे शहर में 80 के दशक में इनमें बदलाव आने लगा। यह वही समय था जब युवा पढ़ाई करने और नौकरी के लिए श्‍ाहर से  बाहर जाने लगे। कुछ दशकों से बुजुर्गों का अकेलापन एक बड़ी सामाजिक समस्या के रूप में उभरकर सामने आई। हाल में जिस तरह से पार्टियों का चलन शुरू हुआ है वह सामाजिक रूढ़‌ियों और बंध्‍ानों को तोड़ने वाला है। ऐसे में पढ़ी-लिखी और स्वतंत्र सोच रखने वाली संतानें अपनी माताओं और महिला रिश्तेदारों को बाहर जाने और पार्टी करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं। देर से ही सही बुजुर्ग महिलाओं को जीने का सहारा तो मिला।  

Advertisement
Advertisement
Advertisement