पूर्वोत्तर और क्रिकेट! इस सवाल पर चौंकने वाले ढेरों लोग मिल जाएंगे क्योंकि आम धारणा यही है कि वह इलाका तो फुटबॉल का दीवाना है। लेकिन, क्या वाकई वहां लोगों को क्रिकेट नहीं लुभाता, या भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआइ) ने सोची-समझी रणनीति के तहत मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम, मणिपुर, नगालैंड और मिजोरम वगैरह को इससे वंचित कर रखा है। इन प्रदेशों को भारतीय क्रिकेट की मुख्यधारा से दूर रखने की बीसीसीआइ की हरकत जितनी हैरान करने वाली है, उससे ज्यादा कहीं नाजायज है। पूर्वोत्तर के राज्यों को दूसरे राज्यों के बराबर तवज्जो देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मामला जस का तस है। बीसीसीआइ ने इन राज्यों को पूर्ण सदस्य का दर्जा नहीं दिया है, इसलिए रणजी ट्रॉफी समेत किसी भी महिला और पुरुषों की स्पर्धा में ये हिस्सा नहीं ले सकते। इतना ही नहीं, ये बोर्ड के चुनाव में भी शिरकत नहीं कर सकते और राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी तक भी इनकी पहुंच नहीं है। यही वजह है कि इन राज्यों के क्रिकेटरों के पास अपनी प्रतिभा दिखाने का कोई प्लेटफॉर्म नहीं है, जिस इंडियन प्रीमियर लीग (आइपीएल) में हर कोई कमाई कर रहा है, उसमें यहां से एक भी खिलाड़ी नहीं है।
बीसीसीआइ का एसोसिएट या एफिलिएट सदस्य ही रणजी ट्रॉफी, िदलीप ट्रॉफी या सीनियर स्तर पर किसी भी टूर्नामेंट में भाग ले सकता है। इतना ही नहीं, जो राज्य ऐसे नहीं हैं उनके अंडर 16 और अंडर 19 में भी भाग लेने पर रोक है। पिछले सत्र में बोर्ड ने इन राज्यों के साथ-साथ बिहार और उत्तराखंड को मिलाकर एक ‘एसोसिएट टीम’ बनाई थी जिसने पूर्वी जोन में अंडर-19 वीनू मांकड ट्रॉफी में भाग लिया था। वास्तव में अगर बीसीसीआइ ने सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू किया होता तो अपने वोट की बदौलत 13 साल से फुल मेंबर स्टेटस और रणजी ट्रॉफी में शिरकत करने से वंचित पूर्वोत्तर राज्यों के साथ बिहार और उत्तराखंड भी 2017-2018 के घरेलू सीजन में ही खेलने की तैयारी कर रहे होते। इन आठ राज्यों में केवल बिहार ही एकमात्र राज्य है जो रणजी ट्रॉफी खेल चुका है, वह भी 2003-2004 तक, पूर्वोत्तर राज्यों के साथ-साथ उत्तराखंड की भी पूरी तरह अनदेखी ही की गई है।
सर्वोच्च अदालत ने 2013 आइपीएल स्पॉट फिक्सिंग से जुड़े मामले में सुनवाई करते हुए बड़े पैमाने पर सुधार के आदेश दिए हैं। यह इन राज्यों में क्रिकेट के भविष्य के लिए बेहद अहम है, इसके बावजूद राष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट, जो सामान्यत: अक्टूबर में शुरू होते हैं, में शामिल होने के प्रश्न का समाधान इसमें नहीं है, क्योंकि इसकी तैयारी जुलाई से ही करनी पड़ती है। बीसीसीआइ और सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासकों (सीओए) की जो कमेटी बनाई है, उसे जल्दी फैसला लेना चाहिए ताकि ये राज्य घरेलू सीजन में भाग ले सकें। अनिर्णय और अदालती सुनवाई के चलते इन राज्यों को और लटकाना नहीं चाहिए। हालांकि बोर्ड कोर्ट के आदेश के मद्देनजर कई स्तरों पर तैयारी कर सकता है।
बीसीसीआइ के एक बड़े अधिकारी का कहना है, “तीन प्रारूप तैयार किए जा सकते हैं। एक, पिछले साल की तरह, जिसमें पूर्वोत्तर, बिहार और उत्तराखंड को बाहर रखा जा सकता है। दूसरे, बिहार को शामिल करते हुए पूर्वोत्तर और उत्तराखंड को अलग रखा जा सकता है और तीसरे, पूर्वोत्तर और बिहार समेत सभी 29 राज्यों को शामिल करते हुए अवसर दिया जा सकता है।”
पिछले कई साल से विनम्र निवेदन करते-करते परेशान हो चुकी छह राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली नॉर्थ-ईस्ट क्रिकेट डेवलपमेंट कमेटी (एनईसीडीसी), अब मजबूती से इस मसले को उठाने पर विचार कर रही है। मेघालय क्रिकेट एसोसिएशन (एमसीए) के सचिव नबो भट्टाचार्जी कहते हैं, “पूर्वोत्तर के राज्यों को रणजी ट्रॉफी खेलने की अनुमति दी जानी चाहिए। साथ ही आर्थिक सहायता भी मिलनी चाहिए।”
हालांकि वे इस पूरे मामले पर जो कुछ चल रहा है, उसके सकारात्मक नतीजे की उम्मीद कर रहे हैं। लेकिन साफ तौर पर अब पूर्वोत्तर के प्रतिनिधियों का धैर्य जवाब दे रहा है। यहां तक कि कुछ ने तो बीसीसीआइ पर “भेदभाव करने” के आरोप तक लगा डाले। मणिपुर क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव सिंगम प्रियानंदा सिंह ने आउटलुक को बताया, “मैंने यह महसूस किया और एनईसीडीसी के अपने सहयोगियों को भी इसके बारे में बताया। यह तब देखने को मिला जब एक वरिष्ठ अधिवक्ता (बीसीसीआइ के कार्यवाहक सचिव अमिताभ चौधरी की पैरवी करते हुए) ने सुप्रीम कोर्ट में 14 जुलाई की सुनवाई के दौरान पूर्वोत्तर के राज्यों खासतौर से नगालैंड को नीचा दिखाया।” सिंह के कुछ सहयोगी भले ही इतनी कठोरता से अपनी बात न कह रहे हों, लेकिन वे भी भेदभाव की बात कहते हैं। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा, जिन्होंने बीसीसीआइ में आमूलचूल बदलाव की ऐतिहासिक सिफारिश की थी, भी अब निराश दिखाई देते हैं। जस्टिस लोढ़ा ने आउटलुक को बताया, “ये हर तरह से नकारात्मक लगता है। जिस तरह से अदालत को दबाव डालना चाहिए था और आदेश देना चाहिए था, वह नहीं हुआ। मुझे लगता है वह सीओए सुधारों को लागू कराने के तमाम प्रयासों में फेल हो गई है। उनकी सारी ऊर्जा और वक्त भारतीय क्रिकेट टीम के कोच और सपोर्ट स्टाफ की नियुक्ति के विवाद में नष्ट हो जाती है। यह वास्तव में बेहद निराशाजनक है।”
अरुणाचल क्रिकेट एसोसिएशन के संस्थापक सचिव ताड़ो खोली कहते हैं, “किसी ने मुझे बताया कि सुप्रीम कोर्ट के स्वीकार करने के बावजूद लोढ़ा समिति की, ‘एक राज्य, एक वोट’, वाली सिफारिश पर पुनर्विचार किया जा रहा है। इससे हमारी चिंता और बढ़ गई है कि कहीं हमारे हाथ से मुख्यधारा के क्रिकेट से जुड़ने का ये अवसर भी न निकल जाए। पिछले साल जब फैसला आया था तो हम बड़ी टीमों का हिस्सा बनने को लेकर काफी खुश थे। लेकिन चीजें इसी तरह लटकती रही हैं और अब इस पर मूड भी बदलता दिख रहा है।” हालांकि खोली को अभी भी उम्मीद है कि पूर्वोत्तर की टीमों को 2017-18 सीजन में मौका मिल सकता है।
रणजी ट्रॉफी में पूर्वोत्तर से किसी टीम को शामिल न करने की एक वजह यह भी है कि पूर्वोत्तर की कोई टीम मुंबई जैसी बड़ी टीम का मुकाबला नहीं कर सकती है और जब ये टीमें इनके सामने होंगी तो मुकाबला एकतरफा हो जाएगा। ऐसे में भट्टाचार्जी कहते हैं, रणजी ट्रॉफी में सभी को मौका देने के लिए एक तीसरा ग्रुप भी बनना चाहिए, इसमें पूर्वोत्तर की टीमों को रखा जा सकता है, जो दूसरी टीमों से मुकाबला कर सकती हैं।
प्रियानंदा सिंह का कहना है कि जब भारत ने टेस्ट और एक दिवसीय मैचों में प्रवेश किया था तो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में स्थापित होने में सालों लग गए थे। सिंह कहते हैं कि किसी को मौका दिए बिना कोई यह कैसे तय कर सकता है कि उनका प्रदर्शन अच्छा है या बुरा? पिछले सीजन में दिल्ली और तमिलनाडु जैसी टीमें भी 100 रनों से नीचे सिमटी हैं। आपको पता है कि 1983 का विश्वकप जीतने के पहले भारत का एक दिवसीय मैचों में प्रदर्शन कैसा था। बांग्लादेश का उदाहरण लिया जा सकता है, जिन्होंने काफी सुधार किया है। मौका मिलने पर पूर्वोत्तर के राज्य भी अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।
वास्तव में नगालैंड फुटबॉल, हॉकी और बॉक्सिंग जैसे खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी ताकत है। लेकिन अब वह क्रिकेट में भी एक ताकत के तौर पर उभर रहा है। 2012 में बीसीसीआइ से एसोसिएट और एफिलिएट टीमों के अंडर-22 का खिताब यहां की टीम ने जीता जबकि अंडर-16 और अंडर-19 में यहां की टीम 2014 में उपविजेता रही। 2010 में महिलाओं की सीनियर टीम उपविजेता रही। अगर और अवसर दिए जाएं तो मणिपुर राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। लेकिन बीसीसीआइ के अधिकारी कहते हैं कि यहां मैच कराने के लिए उनके पास बुनियादी ढांचा नहीं है और पहाड़ी क्षेत्र होने की वजह से यहां स्टेडियम भी नहीं बनाए जा सकते। लेकिन वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने कभी इन राज्यों को बुनियादी ढांचा खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं किया और न बोर्ड ने पूर्ण सदस्यों की तरह 60 करोड़ रुपये की सहायता दी। लोढ़ा कहते हैं, “जब पूर्वोत्तर में कई फुटबाल स्टेडियम हो सकते हैं तो क्रिकेट स्टेडियम क्यों नहीं बनाए जा सकते? ऐसी बातों में कोई दम नहीं है।”
वर्तमान में मणिपुर, सिक्किम और बिहार बीसीसीआइ के एसोसिएट सदस्य हैं, जबकि मेघालय, नगालैंड और अरुणाचल एफिलिएटेड मेंबर हैं। वहीं, मिजोरम, उत्तराखंड और पुडुचेरी इससे भी नीचे हैं। हालांकि इन तीनों राज्यों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सिफारिश की जा चुकी है, इसके बावजूद यह स्थिति है।
मिजोरम बतौर राज्य 1987 में अस्तित्व में आया और क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ मिजोरम (सीएएम) का गठन 1992 में किया गया। तभी से सीएएम के अधिकारी, जिनमें मौजूदा सचिव मैमन मजूमदार भी शामिल हैं, खेल के लिए आर्थिक सहायता और अवसरों की मांग करते रहे हैं। लेकिन बीसीसीआइ ने इसे अनसुना कर दिया।
नगालैंड क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव अबु मेहता ने आउटलुक को बताया, “हम लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने को लेकर ज्यादा चिंतित हैं, क्योंकि बीसीसीआइ ने अभी तक, ‘एक राज्य एक वोट’ को लेकर फैसला नहीं किया है। भारत के हर राज्य को बीसीसीआइ को स्वीकार क्यों नहीं करना चाहिए? इसको लागू करने के बाद ही हम उच्च स्तर पर क्रिकेट खेल सकते हैं।”
अभी तक, 29 में से सिर्फ 21 राज्य ही बीसीसीआइ के पूर्ण सदस्य हैं। इनके अलावा रेलवे, सर्विसेज, ऑल इंडिया यूनिवर्सिटीज, मुंबई के क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया और कोलकाता के नेशनल किक्रेट क्लब को पूर्ण सदस्यता के साथ वोटिंग का अधिकार भी मिला हुआ है। ऐसा ही दर्जा मुंबई, सौराष्ट्र, बड़ौदा और विदर्भ को भी मिला हुआ है।
आबादी के अनुसार देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य बिहार बीसीसीआइ की भेदभावपूर्ण नीतियों का सर्वाधिक शिकार हुआ है। जब नवंबर, 2000 में झारखंड बिहार से अलग हुआ तो बीसीसीआइ ने बिहार की पूर्ण सदस्यता छीनकर, झारखंड को दे दी। 2004-05 से बिहार को रणजी में भी नहीं खेलने दिया गया। बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव रविशंकर प्रसाद सिंह कहते हैं कि अगर मौका दिया जाता है तो उनका राज्य रणजी खेलने के लिए तैयार है। बीसीसीआइ को उन्हें रणजी ट्रॉफी खेलने के लिए अवसर देना चाहिए। बिहार को 2016 में एसोसिएट सदस्यता दी गई है।
दरअसल, कुछ लोगों का कहना है कि उच्चस्तर पर कई नेता हैं जो सुधार प्रक्रिया में अड़ंगा डालते हैं। अब सुप्रीम कोर्ट पर दायित्व है, कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बीसीसीआइ में कोई उसके आदेशों की अवहेलना न करे। अन्यथा इससे एक गलत परंपरा कायम होगी। बीसीसीआइ के मामले की सुनवाई कर रही तीन सदस्यीय पीठ के प्रमुख जस्टिस दीपक मिश्रा, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस जेएस खेहर का स्थान लेंगे। इसके बाद जस्टिस मिश्रा के पास इन मामलों की सुनवाई के लिए और अधिक शक्तियां होंगी। उम्मीद की जानी चाहिए बीसीसीआइ में लंबे समय से रुके हुए सुधार लागू होंगे, पूर्वोत्तर और बिहार को अब दोबारा निराश नहीं होना पड़ेगा, बशर्ते, बीसीसीआइ को एलिट बिरादरी से कुछ बाहर निकाला जा सके।