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दिवालिया होने का फार्मूला वन

कामयाबी के शिखर को छूने के बाद कैसे आर्थिक संकट से घिरा जेपी का साम्राज्य
दारोमदारः रियल एस्टेट ले रहा जयप्रकाश गौड़ के अनुभव की परीक्षा

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में गंगा किनारे बसे पुराने कस्बे अनूपशहर के पास चिट्टा नाम का एक गांव है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विशाल मैदानी भू-भाग में फैले तमाम गांवों से चिट्टा कुछ अलग-सा दिखता है। पक्की सड़कों का सुव्यवस्थित तंत्र और लकदक शैक्षणिक संस्थानों को देखकर लगता है कि जैसे धूल-धूसरित गन्ना क्षेत्र में कोई विकसित राज्य का नखलिस्तान उग आया है। चिट्टा से कुछ ही दूरी पर अनूपशहर का विश्वविद्यालय शैक्षणिक सुविधाओं और बुनियादी ढांचे में महानगरों के संस्थानों से होड़ लेता है।

चिट्टा में ऐसे आधुनिक और सामाजिक सुविधाओं के विकास की वजह यह नहीं है कि यह किसी तेजतर्रार नेता का गांव है। न ही इसे किसी बड़े केंद्रीय नेता या मुख्यमंत्री के ‘वीआइपी चुनाव क्षेत्र’ होने का सौभाग्य प्राप्त है। चिट्टा अपने विकास का श्रेय अपने ‘सपूत’ अरबपति, जेपी ग्रुप के मालिक जयप्रकाश गौड़ को देता है।

हालांकि हाल में गौड़ का साम्राज्य ‘जेपी ग्रुप’ किन्हीं और कारणों से सुर्खियों में है। इस ग्रुप की ढांचागत क्षेत्र, पावर, कंस्ट्रक्शन, सीमेंट और शिक्षा से लेकर रियल एस्टेट तक में बड़ी हिस्सेदारी है। मगर इन दिनों यह कंपनी करीब 40,000 करोड़ रुपये के कर्ज में डूबी हुई है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) ने जिन डूबते खाते (एनपीए) के 20 बड़े कर्जदारों की फेहरिस्त घोषित की है, उनमें जेपी ग्रुप की कंपनियों के नाम ऊपर हैं। यह तब है जब भारी आर्थिक संकट झेल रहे ग्रुप ने अपनी पावर और सीमेंट इकाइयों सहित कई संपत्तियों की बिक्री जैसी मशक्कत करके कर्ज में कमी की है जो एक समय 85,000 करोड़ रुपये के करीब तक पहुंच गया था।

ताजा विवाद की जड़ में ग्रुप की कंपनी जेपी इंफ्राटेक है, जिसने नोएडा में 32,000 निवेशकों और खरीदारों को फ्लैट और विला जैसे आलीशान घर देने का वादा किया था। अभी तक यह वादा पूरा नहीं हुआ है, कब्जा देने में देरी हो रही है। कुछ मामलों में तो इसमें निर्धारित समयसीमा से पांच  साल तक की देरी हो गई है। लिहाजा, अपने सपनों के घर की तलाश में नोएडा की जेपी ग्रीन्स विश टाउन परियोजना, अमन प्रोजेक्ट के सैकड़ों टावरों में करोड़ों रुपये लगाने वाले लोग हताश होकर कई बार विरोध प्रदर्शन कर चुके हैं। जेपी ग्रुप को लंबे समय से करीब से जानने वालों के लिए ये घटनाएं काफी विडंबनापूर्ण लगती हैं क्योंकि उसकी ब्रांड वैल्यू और विश्वसनीयता समय पर काम पूरा करने के कारण बनी थी। संकट में फंसी जेपी इंफ्राटेक कंपनी पर करीब 8,000 करोड़ का कर्ज है। कंपनी के एक कर्जदाता आइडीबीआइ बैंक ने नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पास जेपी इंफ्राटेक को दीवालिया घोषित करने के लिए याचिका दायर की, जिसे स्वीकार कर लिया गया है। इसके चलते स्थिति और ज्यादा खराब हो गई है।

निवेशकों के विरोध प्रदर्शन और बैंक की कार्रवाई की खबरों से कंपनी के ब्रांड वैल्यू में काफी गिरावट आई। कॉरपोरेट और व्यापारिक दुनिया के लोगों की निगाहें इस ओर चली गईं। लेकिन कंपनी के खराब होते हालात के पीछे कई वजहें रहीं। जेपी ग्रुप के शीर्ष नेतृत्व की अति महत्वाकांक्षा, तेजी से विस्तारीकरण का लालच, गलत व्यापारिक फैसले और कंपनी कार्यशैली इसके प्रमुख कारण रहे हैं। असल में नीतिगत फैसलों की अनुकूलता, सरकारी मशीनरी में पहुंच और राजनीतिक रसूख का फायदा उठाने में माहिर मालिकों ने ऐसे समय में परियोजनाओं में हाथ डाले जब सब कुछ सही दिख रहा था। लेकिन बदलते आर्थिक परिदृश्य और सत्ता में बदलते समीकरण ही ग्रुप के लिए संकट के रूप में सामने आए।

लेकिन जेपी ग्रुप को स्थापित करने वाले 86 वर्षीय जयप्रकाश गौड़ जिस तरह का व्यक्तित्व हैं और उन्होंने जिस क्षमता व दूरदर्शिता के साथ ग्रुप को इस स्तर तक पहुंचाया उसको लेकर अभी लोगों को उम्मीद है कि वह स्थिति को संभाल सकते  हैं। एक समय साइकिल पर चलने वाले गौड़ की मेहनत और लगनशीलता का ही परिणाम है कि ग्रुप का बड़े स्तर पर फैलाव हुआ। गौड़  ने अपने कॅरिअर की शुरुआत उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग में एक ओवरशियर के रूप में की थी। लेकिन जल्द ही उन्हें यह आभास हो गया कि उनके लिए यह नौकरी ही लक्ष्य नहीं है। इसके बाद उन्होंने 1958 में एक छोटे सिविल कांट्रैक्टर के रूप में काम करना शुरू किया। आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौड़ा पायजामा के आम आदमी के पहनावे को बरकरार रखने वाले गौड़ ने नहरों की खुदाई,  बांध का पुश्ता बनाने से लेकर छोटी और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर मिट्टी के किनारे बनाने जैसे ज्यादा काम किए।  

यह 1979 का वक्त था जब उन्होंने जयप्रकाश एसोसिएट्स की स्थापना की। जेपी खुद में एक नाम तब बन गया जब उसे सरदार सरोवर बांध और टिहरी पनबिजली परियोजनाओं (इनका आज भी पर्यावरणविद विरोध करते हैं) जैसे बड़े कामों का ठेका मिला। उनका यह काम लगातार बढ़ता गया और सिंचाई व पनबिजली परियोजनाओं पर काम करने वाले ग्रुप के रूप में जेपी ग्रुप देश भर में सबसे अहम कंपनियों में शुमार होने लगा। इसके साथ ही कंपनी ने कई क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों को विस्तार दिया। लेकिन कारोबारी दुनिया में इतना बड़ा नाम होने के बाद भी गौड़ में परिवर्तन नहीं आया। उन्हें करीब से जानने वाले एक व्यक्ति ने आउटलुक को बताया कि उनके साथ साइकिल पर चलने वाले व्यक्ति को भारी उपकरण विभाग का इंचार्ज बना दिया।

काम के प्रति समर्पण, प्रोजेक्ट को तय सीमा के भीतर पूरा करने और गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करने के कारण जयप्रकाश गौड़ का नाम काफी आदर से लिया जाता है। यही कारण है कि सिंचाई और पनबिजली परियोजनाओं के क्षेत्र में कंपनी की अपनी साख रही है। भारत ही नहीं विदेश में भी इन्हीं कारणों से जेपी को सफलता मिली। 1980 में इराक के बसरा शहर में जल वितरण और सीवेज इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर जेपी ने काफी नाम कमाया। इस इंटरनेशनल प्रोजेक्ट की वजह से ग्रुप को काफी वित्तीय फायदा हुआ और यह कमाई विदेशी मुद्रा में हुई।

असल में जेपी ने राज्यों और दूसरे क्षेत्रों में अपना कारोबार बढ़ाने के लिए राजनेताओं और नौकरशाहों के साथ बेहतर रिश्ते बनाए। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह के दौर में जेपी ग्रुप ने वहां काफी तेजी से विस्तार किया। जेपी ने अपना पहला सीमेंट प्लांट मध्यप्रदेश के रीवा में स्थापित किया, जो उस समय के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के निर्वाचन क्षेत्र के बिलकुल नजदीक था। यह बात चौंकाने वाली थी क्योंकि यहां रेलवे लाइन नहीं थी और सीमेंट जैसे उद्योग के लिए रेलवे का करीब होना बहुत अहम होता है क्योंकि पावर के लिए कोयला की ढुलाई से लेकर वहां बनने वाले सीमेंट को मार्केट तक पहुंचाने के लिए रेल को ही सबसे किफायती और जरूरी परिवहन माना जाता है। खास बात यह है कि जेपी जो कारोबार कर रहे थे उसके लिए सीमेंट एक सबसे जरूरी सामान था और इसीलिए उन्होंने सीमेंट उत्पादन में उतरने का फैसला किया। जेपी का यह पहला सीमेंट प्रोजेक्ट 1986 में लगा था। 

उनके परिवार और कारोबार को बहुत करीब से देखने वाले एक व्यक्ति ने आउटलुक को बताया कि मनोज गौड़ ने एक बार उन्हें बताया कि पिताजी चाहते हैं कि देश के हर राज्य में जेपी ग्रुप का एक सीमेंट प्लांट हो। गौरतलब है कि जयप्रकाश गौड़ के बड़े बेटे मनोज गौड़ इस समय ग्रुप के एग्जीक्यूटिव चेयरमैन हैं। पिता की इच्छा को मनोज ने काफी गंभीरता से लिया। एक समय तो ऐसा भी आया जब जेपी ग्रुप सबसे ज्यादा सीमेंट उत्पादन करने की क्षमता के मामले में भारत में दूसरे स्थान पर आ गया। वैसे अधिकांश प्लांट उत्पादन क्षमता से कम ही उत्पादन कर रहे थे, क्योंकि बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने में ग्रुप को उतनी कामयाबी नहीं मिली। इसके साथ ही जेपी ग्रुप ने हाइड्रो प्रोजेक्ट में तेजी से विस्तार किया। ग्रुप ने हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और पूर्वोत्तर में कई पनबिजली परियोजनाएं स्थापित कीं। गौड़ ने होटल के क्षेत्र में भी हाथ आजमाए और दिल्ली में 1981 में होटल सिद्धार्थ का निर्माण किया। इसके तुरंत बाद प्रतिष्ठित वसंत कांटिनेंटल होटल बनाया। वहीं आगरा में जेपी पैलेस होटल बनाया और मसूरी में एक होटल का अधिग्रहण किया।

1990 में कंपनी ने रोड कंस्ट्रक्शन की ओर रुख किया। गुड़गांव टोल रोड बनाने में वह डीएस कंस्ट्रक्‍शंस की पार्टनर थी लेकिन कंपनी बाद में इस प्रोजेक्ट से बाहर हो गई। पंजाब के जीरकपुर और हिमाचल प्रदेश के परवानू के बीच एक अन्य रोड प्रोजेक्ट का निर्माण किया गया। यह प्रोजेक्ट बनाओ-चलाओ-स्थानांतरित करो (बॉट) के आधार पर था।

जेपी ग्रुप के लिए साल 2000 के आसपास तक कारोबार विस्तारीकरण और कामयाबी का दौर था। लेकिन इसके साथ-साथ भारी खर्चे और  बिना सोचे-समझे विस्तारीकरण ने कंपनी के ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ा दिया। कंस्ट्रक्शन, सीमेंट, पावर, रियल एस्टेट, एजुकेशन, आइटी, रोड, होटल, स्पोर्ट्स और एविएशन क्षेत्रों में ग्रुप की दो दर्जन से ज्यादा कंपनियां और सब्सिडियरी हैं। बढ़ते कर्ज और जरूरत से कम रेवेन्यू फ्लो इसके लिए संकट लेकर आया। 

ग्रुप ने नौवें दशक के अंतिम दिनों में रियल एस्टेट के क्षेत्र में कदम रखा और ग्रेटर नोएडा में ग्रीन्स इसका पहला प्रोजेक्ट था। लेखक उस क्षण का गवाह है जब जयप्रकाश गौड़ वसंत कांटिनेंटल में इस प्रोजेक्ट की घोषणा कर रहे थे। टावर, गोल्फ कोर्स, रिसॉर्ट वाले इस इंटीग्रेटेड प्रोजेक्ट को जेपी ने एक दूसरे कारपोरेट ग्रुप से अधिग्रहीत किया था। हालांकि इतना समय बीत जाने के बाद आज भी इस प्रोजेक्ट में मकान अधूरे पड़े हैं। यह बात अलग है कि यहां करोड़ों की कीमत पर बेचे गए ऐसे मकान भी हैं जिनके दरवाजे गोल्फ कोर्स में खुलते हैं।

वास्तव में जयप्रकाश गौड़ के लिए यह सबसे बेहतर दौर था। साल 2001 में उत्तर प्रदेश में राजनाथ सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार थी। उन्होंने राज्य में निवेशकों को आकर्षित करने के लिए ताज एक्सप्रेस-वे और एयरपोर्ट प्रोजेक्ट की घोषणा की। इसके तहत नोएडा से आगरा तक एक एक्सप्रेस-वे बनना था और इसके साथ जेवर में एक एयरपोर्ट बनाने का प्रस्ताव था। दिल्ली के एक फाइव स्टार होटल में इस प्रोजेक्ट की घोषणा के लिए एक बड़े शो का आयोजन किया गया। इसमें उत्तर प्रदेश सहित देश के बड़े कारपोरेट्स शरीक हुए। इस मौके पर जयप्रकाश गौड़ भी मौजूद थे और उन्होंने प्रोजेक्ट के प्रति रुचि दिखाई। लेकिन इसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा सरकार की वापसी नहीं हुई।

 

साल 2002 में भाजपा के साथ गठबंधन में मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद यह प्रोजेक्ट दिल्ली के एक अन्य पांच सितारा होटल में फिर से लॉन्च किया गया। असल में यह प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश के सबसे प्रभावशाली नौकरशाहों में शुमार होने वाले एक अधिकारी का ड्रीम प्रोजेक्ट था जो दोनों सरकारों के नेतृत्व का करीबी रहा। इस प्रोजेक्ट की खासियत यह थी कि इसमें राज्य सरकार को कुछ भी निवेश नहीं करना था। इस प्रोजेक्ट को हासिल करने वाली कंपनी को ही एक्सप्रेस-वे का निर्माण करना था और इसके बदले में उसे एक्सप्रेस-वे से सटे नोएडा, ग्रेटर नोएडा, मथुरा और आगरा में जमीन दी जानी थी। इस जमीन को आवासीय और व्यावसायिक प्रोजेक्ट के लिए विकसित करने और बेचने का अधिकार कंपनी को मिलना था। राजस्व जुटाने के लिए एक्सप्रेस-वे पर टोल वसूलने का जिम्मा भी कंपनी का ही था।

जेपी ग्रुप को यह प्रोजेक्ट मिल गया। जेपी ग्रुप मायावती सरकार से काफी करीबी और बेहतर संबंध बना कर काम कर रहा था। लेकिन गठबंधन की यह सरकार चल नहीं पाई और मायावती को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। उसके बाद 2003 में मुलायम सिंह यादव ने गठबंधन की सरकार बनाई। इस सरकार में इस परियोजना को खास तवज्जो नहीं दी गई। लेकिन 2007 में जब मायावती फिर से सत्ता में आईं तब इस प्रोजेक्ट का नाम बदलकर यमुना एक्सप्रेस-वे कर दिया गया और काम बड़े पैमाने पर शुरू हुआ। इस दौरान भूमि अधिग्रहण को लेकर भी काफी विवाद और हिंसक आंदोलन हुए लेकिन स्थिति जेपी ग्रुप के पक्ष में ही रही। दिलचस्प बात यह है कि ग्रेटर नोएडा में जिस जेवर एयरपोर्ट को लेकर अब चर्चा चल रही है। मायावती के 2007 से 2012 के कार्यकाल में ही इस एयरपोर्ट की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार हो गई थी और इसकी मंजूरी के लिए प्रस्ताव ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स तक को चला गया था। यह वही एयरपोर्ट प्रोजेक्ट है जो एक बार फिर चर्चा में है और उसे जल्दी ही अमली जामा पहनाने की बात केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार कर रही है।

इसके बाद आया 2008 का दौर जिसमें वैश्विक आर्थिक संकट के साथ रियल एस्टेट क्षेत्र में गिरावट आई। लागत कई गुणा बढ़ने के कारण प्रोजेक्ट को पूरा करने में देरी आई। लेकिन आरंभिक सुस्ती के बाद जेपी के प्रोजेक्ट हिट रहे। नोएडा के सेक्टर 128 में विश टाउन में बने 30 लाख रुपये से लेकर कुछ करोड़ तक के सैकड़ों टावर हॉट केक की तरह बिक गए। कंपनी से जुड़े एक व्यक्ति के अनुसार जेपी ग्रीन्स, विश टाउन और अमन प्रोजेक्ट में कस्टमर्स से कैश फ्लो बहुत तेज रहा।

लेकिन इस दौरान कंपनी पर कर्ज का बोझ बढ़ने के साथ ही एक्सप्रेस-वे पूरा करने का दबाव भी था। इसी मोड़ पर, कंपनी ने ग्रेटर नोएडा में फॉर्मूला वन (एफ1) ट्रैक बनाने की घोषणा की। असल में ग्राहकों को लुभाने के लिए ग्रेटर नोएडा में एक्सप्रेस-वे के पास मिली जमीन में बनाए जा रहे हाउसिंग प्रोजेक्ट्स को आकर्षक बनाने के लिए इसे स्पोर्ट्स सिटी का नाम दिया गया, जिसमें फार्मूला वन (एफ-वन) रेसिंग ट्रैक, फाइव स्टार होटल, क्रिकेट स्टेडियम और गोल्फ कोर्स प्रस्तावित थे। लेकिन एफ-वन और एक्सप्रेस-वे प्रोजेक्ट के लिए बड़े पैमाने पर पैसे की जरूरत थी। प्रोजेक्ट पूरा करने में हो रही देरी का भी भारी दबाव था।

उस दौरान कंपनी में वरिष्ठ पद पर रहे एक व्यक्ति ने आउटलुक को बताया कि कंपनी ने देशभर में चल रहे प्रोजेक्ट्स से मजदूरों को इस प्रोजेक्ट में बुला लिया था। यहां बनने वाले 27 मंजिला होटल का निर्माण भी टाल दिया था। करीब इसी समय जेपी ग्रुप की विष्णुप्रयाग पनबिजली परियोजना को बाढ़ के चलते काफी नुकसान पहुंचा।

2010 में जयप्रकाश गौड़ ने ग्रुप की कमान बड़े बेटे मनोज गौड़ को सौंप दी जो करीब एक दशक से अधिकांश कामकाज संभाल रहे थे। यह बदलाव ठीक ऐसे वक्त हुआ जब जेपी के बड़े प्रोजेक्ट मूर्त रूप ले रहे थे। जेपी के एक पूर्व कर्मचारी ने बताया कि यह विचार ही गलत था कि क्रिकेट के प्रेमी भारत जैसे देश में कार रेस देखने के लिए कोई व्यक्ति एक लाख रुपये से ज्यादा का खर्च करेगा। हुआ भी यही, अभी तक एफ-वन ट्रैक पर मात्र तीन आयोजन ही हुए हैं। शुरुआती लागत के मुकाबले काफी ज्यादा खर्च कर बनाए गए 165 किलोमीटर लंबे ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस-वे को चालू करने में भी राज्य सरकार ने देरी की। 2012 में अखिलेश यादव सीएम बने, यह बदलाव ग्रुप के लिए बेहतर नहीं रहा क्योंकि इसकी छवि मायावती के करीबी ग्रुप के रूप में बनी हुई थी।

यूपी काडर के रिटायर्ड आइएएस अधिकारी और यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण (2011) में सीईओ रहे कैप्टन ए.के. द्विवेदी के अनुसार ग्रुप अपने कामकाज को संभाल नहीं सका और अपने आधारभूत ढांचे, प्रबंधन की क्षमता और साधनों से आगे जाकर योजना बनाने लगा। कैप्टन द्विवेदी कहते हैं, ‘‘इनके पास व्यापार के लिए सही प्रबंधन नहीं था और ग्रुप ने अपनी व्यावसायिक योजनाओं पर प्रयोग जारी रखा।’’

ग्रुप में वरिष्ठ स्तर पर काम कर चुके एक व्यक्ति ने आउटलुक से कहा कि जयप्रकाश गौड़ कारोबार को पारिवारिक उद्यम की तरह चलाते थे। इसके चलते टॉप मैनेजमेंट में प्रोफेशनल एक्सपर्ट्स को जरूरत के मुताबिक तरजीह नहीं मिली।

जेपी ग्रुप की कहानी में निजी क्षेत्र के सेलिब्रिटी बैंकर की भी दिलचस्प भूमिका रही है। इसी बैंकर की योजना पर ग्रुप ने सीमेंट, ऊर्जा और रियल एस्टेट क्षेत्र में विस्तार किया। जेपी ग्रुप को निजी क्षेत्र के बैंकों ने काफी कर्ज दिया है। जिसका बड़ा हिस्सा एनपीए में तब्दील होता दिख रहा है। हालांकि देश में ज्यादातर एनपीए सरकारी बैंकों का ही है। लेकिन जेपी ग्रुप के मामले में निजी और सरकारी बैंक दोनों का कर्ज एनपीए हुआ है। अब यही बैंक फॉरेंसिक ऑडिट की मांग कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस काम लिए कर्ज लिया गया उसके बजाय उसका इस्तेमाल दूसरी जगह किया गया है। दबे स्वर में यह भी चर्चा है कि पारिवारिक प्रतिद्वंद्विता, कुप्रबंधन के अलावा वरिष्ठ लोगों और व्यापारिक सहयोगियों के गलत फैसले के कारण स्थित बिगड़ी।

ऐसे में एक बात साफ है कि अभी जो साम्राज्य खड़ा है वह जयप्रकाश गौड़ के सपने से बिलकुल अलग है। उन्होंने भाजपा और बसपा के नेताओं के साथ-साथ अफसरों से भी मधुर रिश्ते रखे। अब जेपी ग्रुप की कंपनियां दिवालिया घोषित होने की कगार पर हैं और इसकी वजह से निवेशक मझधार में पड़ गए हैं।

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