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आदिवासियों पर भगवा रंग चढ़ाने का चक्कर

छत्तीसगढ़ में अरसे से कांग्रेस के पाले में रहे आदिवासियों पर भाजपा की तीखी निगाह, अजित जोगी के जाति मामले ने भी बढ़ाई सक्रियता
ड्राइविंग सीट परः मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ आदिवासी नेता और वन मंत्री महेश गागड़ा

छत्तीसगढ़ में एक बार फिर आदिवासी नेतृत्व की हुंकार भरी जाने लगी है। अजीत जोगी को गैर आदिवासी करार दिए जाने के बाद आदिवासी लॉबी फिर सक्रिय हो गई है। इसे लेकर भाजपा और कांग्रेस की राजनीति भी गरमा गई है। आदिवासी  नेतृत्व का मुद्दा उस समय और तूल पकड़ लिया, जब नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर आयोजित सरकारी और गैर सरकारी कार्यक्रमों में वक्ताओं ने साफ कह दिया कि जो भी पार्टी राज्य में आदिवासी  नेतृत्व कोआगे करेगी, समाज उसके साथ रहेगा। लेकिन पिछले 17 साल में  कांग्रेस और भाजपा के भीतर ऐसा कोई आदिवासी नेता खड़ा नहीं हो सका, जो नेतृत्व के लिए ताल ठोक सके।

छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज्य है। यहां की करीब 31 फीसदी आबादी आदिवासी है। राज्य की पहचान ट्राइबल स्टेट के रूप में ही है। राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 29 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। इनमे 18 विधायक कांग्रेस के और 11 भाजपा के हैं। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही 2018 के विधानसभा चुनाव में ट्राइबल सीटों पर नजरें गड़ाए हुए हैं। 2003 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को ट्राइबल क्षेत्र सरगुजा और बस्तर में सर्वाधिक सीटें मिली थीं। 2008 और 2013 में भाजपा आदिवासी क्षेत्रों में फिसल गई। भाजपा के एक बड़े नेता का कहना है कि 2018 के चुनाव में जीत के लिए आदिवासी सीटों पर हमें फोकस करना होगा। मैदानी इलाकों में हम सेचुरेशन प्वाइंट पर पहुंच गए हैं। कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जे) में आदिवासी नेतृत्व कैसा होगा साफ नहीं है। पार्टी सुप्रीमो अजीत जोगी स्वयं ही जाति मामले में उलझे हैं लेकिन वे मैदानी इलाकों में निर्णायक भूमिका में रह सकते हैं। 

छत्तीसगढ़ में ट्राइबल की जनसंख्या 4.32 फीसदी  घटने के साथ विधानसभा सीटें 34 से 29  हो गईं। यह आदिवासी समाज को चुभ रहा है। एक समय था, जब छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेताओं की तूती बोलती थी। अरविंद नेताम, बलीराम कश्यप, महेंद्र कर्मा, गंगा पोटाई, मनकूराम सोढ़ी, भवरसिंह पोर्ते, ननकीराम कंवर, प्यारेलाल कंवर, बोधराम कंवर, चनेश राम राठिया, रामपुकार सिंह, झुमुकलाल भेड़िया ऐसे कुछ नाम हैं, जो एक ही क्षेत्र से 6-7 बार विधायक या सांसद रहे और जिनका अपनी-अपनी पार्टी में नाम था लेकिन आज उलट स्थिति दिखाई देती है। भाजपा में अभी आदिवासी नेता विष्णु देव साय केंद्र में राज्य मंत्री, नंदकुमार साय राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और रामविचार नेताम पार्टी के राष्ट्रीय सचिव के साथ अनुसूचित जनजाति मोर्चा के प्रभारी हैं। संयुक्त मध्यप्रदेश में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे नंदकुमार साय 2003 के बाद परिदृश्य से गायब होकर राज्यसभा सदस्य तक सीमित रहे, कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नजरे-इनायत उन पर हुई और उन्हें राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर मुख्यधारा से जोड़ा गया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से शुरू से जुड़े रहे रामविचार नेताम सरगुजा रियासत के खिलाफ आंदोलन से चर्चित हुए। उन्हें सरगुजा इलाके का जमीनी नेता माना जाता है। विष्णुदेव दो बार छत्तीसगढ़ भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। ये आदिवासी नेता अभी तक पहली पंक्ति में नहीं आ पाए हैं। गृह मंत्री रामसेवक पैकरा, वन मंत्री महेश गागड़ा और आदिवासी विकास मंत्री केदार कश्यप भी भाजपा में आदिवासी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। केदार कश्यप राज्य में 14 साल से कैबिनेट मंत्री हैं। केदार कश्यप के पास आदिवासी विकास की जिम्मेदारी है, लेकिन आदिवासी समाज में साख मजबूत करने की जगह वे अपनी पत्नी को नकल कराकर परीक्षा में पास कराने के आरोप में फंस गए है। वन मंत्री महेश गागड़ा अपने क्षेत्र बीजापुर की जगह ज्यादा राजनीति रायपुर से करते हैं। भाजपा अध्यक्ष के बाद गृह मंत्री बने रामसेवक पैकरा अपने रिश्तेदारों को उपकृत करने के आरोप में उलझ गए हैं। भाजपा के भीतर समय-समय पर आदिवासी नेतृत्व की मांग उठती रही, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उसे दबा दिया। भाजपा के पूर्व  सांसद सोहन पोटाई ने आदिवासी नेतृत्व की मुहिम चलाई तो बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग करने वाले ननकीराम कंवर को भी किनारे कर दिया गया है। 

कांग्रेस में फिलहाल कोई बड़ा नाम या सक्रिय नेता नहीं दिखाई दे रहा है। कांग्रेस का न तो प्रदेश अध्यक्ष आदिवासी है और न ही विधायक दल का नेता या उपनेता। जबकि भाजपा के मुकाबले कांग्रेस के आदिवासी विधायक ज्यादा हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पिछले महीने बस्तर आकर वहां के नेताओं व लोगों के बीच आदिवासी अस्मिता की बात तो की, पर आदिवासी नेतृत्व पर मुंह नहीं खोला। मध्यप्रदेश में एक दशक तक मंत्री रही अर्जुन सिंह की करीबी कांग्रेस कार्यसमिति की सदस्य गंगा पोटाई भी आदिवासी नेतृत्व की मांग करते हुए कहती हैं कि बस्तर की सीटों को कांग्रेस के पक्ष में रखने के लिए बस्तर के आदिवासी को कांग्रेस का नेतृत्व दिया जाए। राज्य बनने के बाद कांग्रेस ने आदिवासी मुख्यमंत्री के तौर पर अजीत जोगी को कमान सौंपी थी, फिर 2003 में नेता प्रतिपक्ष के रूप में महेंद्र कर्मा को आगे किया। इसके बाद  पार्टी ने  आदिवासी  नेतृत्व पर भरोसा नहीं जताया। न ही नेता प्रतिपक्ष बनाया और न ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया। अजीत जोगी की जाति को लेकर शुरू से सवाल उठते रहे हैं, इसके बावजूद वे कांग्रेस में रहते अपने आपको आदिवासी नेता के रूप में स्थापित करने में लगे रहे। छत्तीसगढ़ में इंदिरा गांधी और फिर अर्जुन सिंह ने आदिवासी नेताओं को आगे किया। अर्जुन सिंह ने मनकूराम सोढ़ी को तब के सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय पृथक आगम की जिम्मेदारी दी थी। 90 के दशक में गंगा पोटाई को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनवाया था। राज्य गठन के वक्त भाजपा ने भी आदिवासी कार्ड खेला था। नंदकुमार साय को नेता प्रतिपक्ष बनाकर असली और नकली आदिवासी का दांव चला। नंदकुमार साय ने अजीत जोगी से सीधी लड़ाई भी लड़ी। जोगी ने साय को पटखनी देने के लिए उनकी बेटी को कांग्रेस में शामिल कर लिया। वैसे छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेतृत्व रियासतों के प्रभाव में रहा और जब रियासतें खत्म या कमजोर पड़ गईं, तब आदिवासी नेतृत्व उभरा। बस्तर में राजा प्रवीरचंद भंजदेव के निधन के बाद 1967-68 में आदिवासी नेतृत्व सामने आया। दक्षिण बस्तर में बलीराम कश्यप और उत्तर बस्तर में नेताम परिवार का प्रभाव बढ़ा। जशपुर में दिलीप सिंह जूदेव के कमजोर होने के बाद विष्णुदेव साय और नंदकुमार साय की राजनीति कुछ चमकी।

सरगुजा इलाका आदिवासी बहुल होने के बाद भी वहां कांग्रेस का मजबूत आदिवासी नेतृत्व उभर नहीं पाया। सरगुजा इलाके की राजनीति में शुरू से ही सिंहदेव परिवार का प्रभाव रहा। अभी भी है। भाजपा में सरगुजा इलाके से रामविचार नेताम उभरे, पर उनका दायरा फिलहाल  सरगुजा तक ही सीमित है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह जून महीने में रायपुर आए तब छत्तीसगढ़ के आदिवासी नेताओं ने राज्य में आदिवासी नेतृत्व की बात की थी और राज्य में घटती आदिवासी आबादी की जांच की मांग की थी। पूर्व आइएएस अधिकारी और सर्व आदिवासी समाज के प्रमुख बी. एल. ठाकुर का कहना है कि आदिवासी समाज के लिए जैसा काम होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है, यहां तक कि संविधान में उल्लेखित पांचवीं और छठी अनुसूची के भी अधिकार आदिवासियों को नहीं मिल रहे हैं। छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के महासचिव जी.एस. धनंजय का कहना है कि आदिवासी मुख्यमंत्री होने पर ही आदिवासी समाज की बातें सुनी जाएंगी। अनुसूचित जनजाति सलाहकार परिषद का अध्यक्ष कानूनन किसी आदिवासी को होना चाहिए, लेकिन मुख्यमंत्री के नाते गैर आदिवासी इसके अध्यक्ष हैं। हमारी मांग आदिवासी नेतृत्व की है, राजनीतिक दल तय करें, वे किसे नेतृत्व सौपते हैं।   

बस्तर के अरविंद नेताम वर्षों कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में मंत्री रहे हैं। लेकिन उन्होंने कांग्रेस छोड़कर बसपा और भाजपा का चक्कर काट लिया। अब सोहन पोटाई के साथ मिलकर क्षेत्रीय पार्टी बनाई है। नेताम का कहना है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेतृत्व  के लिए सबको एकजुट किया जाएगा। नेताम कहते हैं कि आदिवासी नेतृत्व के लिए सबको एकजुट कर अगले महीने आंदोलन चलाएंगे। अभी तक तो राज्य में आदिवासी नेतृत्व ताकत नहीं दिखा पाया है। लेकिन विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर गूंजा स्वर तूफान बन पाता है या फिर बुलबुला बनकर फुस्स हो जाता है, यह समय बताएगा।

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