मीडिया के लिए हास्य-व्यंग्य सिर्फ वैसी विधा नहीं है जैसी साहित्य के एक खांचे में रखकर लेखन से लेकर अध्ययन तक की सुविधा बनी हुई है। भारतेन्दु युग में शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता में हास्य-व्यंग्य का प्रयोग, ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता के प्रति गहरी असहमति और प्रतिरोध के प्रयोग के रूप में हुआ था। मौजूदा दौर की पत्रकारिता में उसके रेशे व्यावसायिक पैटर्न के तौर पर विकसित कर दिए गए। ऐसे में बड़ी लेकिन खतरनाक सुविधा है कि मीडिया के संदर्भ में हास्य-व्यंग्य पर बात करते हुए उसी दौर की पत्रकारिता की छवि से गुजरने का भ्रम पैदा हो सकता है जिसे धारदार पत्रकारिता के पर्याय के रूप में देखा जाता है।
दरअसल कारोबारी मीडिया को अपनी विरासत में हास्य-व्यंग्य का प्रयोग करने की जो ताकत मिली उसे आहिस्ते-आहिस्ते बिजनेस पैटर्न में विकसित कर दिया गया। ग्राहक पाठक/दर्शक/श्रोता और अब प्रोज्यूमर (न्यू मीडिया के आने के बाद से पाठक या दर्शक-श्रोता महज मीडिया सामग्री के उपभोक्ता भर नहीं रह गए हैं, वे बड़े पैमाने पर सामग्री का उत्पादन भी करते हैं) को लगातार यह एहसास कराने की कोशिश की जाती है कि हम हास्य-व्यंग्य का प्रयोग कर पहले से अधिक लोकतांत्रिक और अपने हक के प्रति सजग हो रहे हैं। गौर से देखा जाए तो प्रिंट, रेडियो, टेलीविजन और अब सोशल मीडिया में हास्य-व्यंग्य सामग्री का स्तर अलग-अलग दिखते हुए भी बिजनेस पैटर्न के लिहाज से एक-दूसरे के बेहद करीब हैं। ऐसे में मीडिया के संदर्भ में हास्य-व्यंग्य पर बात करने का मतलब कारोबारी मीडिया के उस बिजनेस पैटर्न पर बात करना भी है जो सीजन, सरकार और सुविधा के अनुसार बदलते चले जाते हैं।
क्योंकि मामला शून्य लागत का है
साल 2010-11 तक के न्यूज चैनलों की सामग्री पर गौर किया जाए तो यह समझने में मुश्किल नहीं होती कि दरअसल हमारे ये चैनल ‘स्टैंड-अप कॉमेडी / लाफ्टर शो’ की कतरनें हैं। रियलिटी रिपोर्ट या मनोरंजन चैनलों की अपडेट के नाम पर ऐसे दर्जनों शो रहे हैं जिनसे न्यूज चैनलों की स्लॉट का बड़ा हिस्सा (तकरीबन तीन से चार घंटे) इनसे ही भरा जाता है। ऐसे कुछ कार्यक्रम अब भी जारी हैं। टीवी पर कुछ इस तरह का माहौल बना हुआ है कि आप चाहे न्यूज चैनल देख रहे हों या मनोरंजन चैनल, कॉमेडी रेगुलर-कॉमन डाइट की तरह पेश की जाती है। इसका यह मतलब नहीं है कि भारतीय दर्शकों को कॉमेडी के अलावा किसी दूसरी तरह की सामग्री की जरूरत नहीं रही या उन्हें कुछ और पसंद नहीं। ऐसे अंधाधुंध कार्यक्रमों के पीछे की रणनीति यही है कि इसमें चैनलों को ‘न्यूज गेदरिंग’ यानी सूचनाएं इकट्ठी करने के लिए अलग से कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता। न्यूज चैनलों की जिस सामग्री के लिए लाखों रुपये और उनके संवाददाताओं के कई-कई घंटे लगते, चैनल ने वह सब एडिटिंग मशीन के जरिए न्यूजरूम में बैठकर तैयार कर लिया। मीडियाकर्मी का काम महज कॉमेडी शो की क्लिपिंग काटने, सुपर और स्लग लगाने की रह गई है। व्यावसायिक रूप से देखा जाए तो इन कार्यक्रमों को औसत टीआरपी मिलती रही क्योंकि ये दर्शकों के लिहाज से ‘हार्मलेस’ कंटेंट हैं। हार्मलेस मतलब यह अपनी तरफ से कोई वैचारिक पक्ष खड़ा नहीं करता, दूसरा ये वो कार्यक्रम हैं जिनमें घर की ऑडियंस की अलग-अलग बंटकर देखने की संभावना कम से कम रहती है। भारतीय टेलीविजन और उनके कार्यक्रम अंत में ‘विद फैमिली’ की शर्त पर जाकर ही टिकते हैं।
राजनीति के नए रंग यानी टीवी पर
हास्य-व्यंग्य का नया संस्करण
साल 2011 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और जन लोकपाल की मांग से आगे की राजनीति और लोकतंत्र की शक्ल किस हद तक और कैसे बदली, ये विश्लेषण का दूसरा छोर है। लेकिन इसका एक जरूरी पक्ष रहा कि न्यूज चैनलों पर राजनीतिक खबरों की वापसी हुई। वरना इससे पहले तो लगभग दस सालों तक न्यूज चैनल खबरें दिखाने का लाइसेंस लेकर भी “क्या एलियन गाय का दूध पीते हैं”, “पांच हजार साल पुराना महामानव”, ‘‘स्वर्ग की सीढ़ी” जैसी ‘स्पेशल स्टोरी’ में ही फंसा हुआ था। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का न्यूज चैनलों पर सीधा-सीधा असर हुआ कि जो स्लॉट स्टैंड-अप कॉमेडी की कतरनों से भरे जाते थे, वो अब राजनीतिक खबरों से भरे जाने लगे। बदलाव यह हुआ कि इन खबरों में व्यंग्य के पुट शामिल किए जाने लगे। उस वक्त सत्ताधारी दल को लेकर इस अंदाज में व्यंग्य किए गए कि जो लोग हिंदी पत्रकारिता के इतिहास से वाकिफ रहे हैं, उन्हें टेलीविजन पर भारतेन्दु युग की वापसी होती नजर आने लगी थी। न्यूज चैनलों ने दर्शकों के बीच यह भरोसा पैदा करने का काम किया जिसमें काफी हद तक वे कामयाब भी रहे कि हास्य-व्यंग्य का मतलब महज मनोरंजन या हंसगुल्ले का सेवन नहीं बल्कि जो है, जैसा है से मुक्त होकर बेहतर की तरफ बढ़ना भी है। ऐसे में खबरों के जो पैकेज तैयार हुए उसमें हास्य-व्यंग्य और मीडिया ठीक उसी तरह से एक-दूसरे के पर्याय हो गए जैसा औपनिवेशिक भारत में भारतेन्दु युग की पत्रकारिता थी।
हास्य-व्यंग्य के प्रायोजक हैं
फिक्की-केपीएमजी की मीडिया एवं मनोरंजन संबंधी वार्षिक रिपोर्ट स्पष्ट तौर से बताती है कि साल 2009 से कारोबारी मीडिया के घाटे की भरपाई और आगे मुनाफा होता रहा, उनमें राजनीतिक विज्ञापनों की बड़ी भूमिका रही है। इससे पहले राजनीतिक विज्ञापन के जरिए राजस्व का आकलन प्रमुखता से नहीं किया गया था। इस रिपोर्ट के आलोक में देखें तो माध्यमों में खासकर एफएम चैनलों पर राजनीतिज्ञों या राजनैतिक घटनाक्रमों पर शरारत की शक्ल में हास्य-व्यंग्य की सामग्री में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। फिलहाल अकेले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर ही दिल्ली से प्रसारित एफएम चैनलों पर आधे दर्जन से ज्यादा इस तरह की सामग्री है। इतना ही नहीं, ‘मिर्ची मितरोंsss’ जैसी सामग्री प्रसारित करने की आपाधापी महज एफएम चैनलों में न होकर, उसका एक्सटेंशन ‘फन की बात’ जैसे न्यूज चैनल के कार्यक्रम में भी हो रहा है।
पत्रकारिता में हास्य-व्यंग्य के प्रयोग के पीछे जो रणनीति रही उसके लिहाज से देखा जाए तो समझने में मुश्किल नहीं होती कि यह माध्यम न्यूज चैनलों से कहीं ज्यादा क्रिटिकल है। ‘मिर्ची मुर्गा’, ‘बऊआ बोल रहा हूं’, ‘बब्बर शेर’ जैसे दर्जनों शरारत भरे और कार्यक्रम के बीच-बीच में आने वाले फिलर्स हैं जो एफएम रेडियो को न्यूज चैनलों के मुकाबले हास्य-व्यंग्य का प्रयोग करते हुए श्रोताओं को लोकतंत्र के ज्यादा करीब ले जाते हैं। लेकिन इससे उलट वस्तुस्थिति यह भी है कि मुंबई की आरजे मलिष्का ने जब बीएमसी की लापरवाही और शहर की सड़कों पर व्यंग्य करते हुए पैरोडी की तो उन्हें धारा 381 (बी) के तहत नोटिस भेज दिया गया। लेकिन देशभर के अलग-अलग आरजे ने अपने-अपने शहर की स्थिति पर मलिष्का की पैरोडी “सोनू, तुझा माझ्यावर भरोसा नाय के” की तर्ज पर और पैरोडियां बना कर एकजुटता दिखाई। यह एकजुटता जितनी मलिष्का के प्रति थी उतनी ही व्यंग्य के प्रति भी थी। देखते-देखते, ‘सोनू’ असहमति या प्रतिरोध जाहिर करने का माध्यम हो गया। वह ‘कल्ट’ की तरह प्रसिद्ध हो गया। इस बीच यह सवाल कम दिलचस्प नहीं है कि जिन राजनीतिक दलों के जितने विज्ञापन आते हैं, एफएम चैनलों पर श्रोताओं के मनोरंजन के लिए उतने ही प्रैंक्स या शरारत और फिलर्स आते हैं। जबकि जिन दलों के विज्ञापन नहीं आते, वे इस दौड़ से बाहर होते हैं। इसका एक मतलब यह भी है कि ऐसे हास्य-व्यंग्य कार्यक्रम का प्रयोग महज मन बहलाव या लोकतंत्र को मजबूत करने जैसे गहरे उद्देश्य के बजाय श्रोताओं के बीच उस शख्सियत को ज्यादा से ज्यादा स्पेस देने के लिए भी करते हैं। भले ही फिर वो प्रैंक्स या फिलर्स की शक्ल में ही क्यों न हों। यानी हंसी का प्रायोजक भी तय है।
तब आखिरी खिड़की बचती है मेमे / पैरोडी
हिंदी-अंग्रेजी के प्रमुख अखबार और एजेंसी की ओर से देश और दुनिया की बड़ी घटनाओं पर खबरें और तस्वीरें जारी किए घंटा भर भी नहीं होता कि नेटीजन्स अपनी ओर से उनके कई संस्करण तैयार कर देते हैं। फोटोशॉप ब्रिगेड, ट्विटराती, फेसबुकिए, साभार व्हॉट्सऐप जैसे अलग-अलग नामों से संबोधित करके शेयरिंग का काम शुरू होता है। जैसे, देश के प्रधानमंत्री अमेरिका प्रवास पर हैं और वहां के राष्ट्रपति से मुलाकात की असली तस्वीर है। लेकिन उस तस्वीर के साथ बलून बनाकर हिंदी सिनेमा का कोई प्रसिद्ध डायलॉग चस्पा कर दिया जाएगा। इसी तरह कोई गीत, किसी राजनीतिक का ही कोई पुराना नारा, वादा या चुनावी रैली में दिया गया कोई मारक संवाद। यह हास्य-व्यंग्य का बिलकुल नया अखाड़ा है। मजे की बात है इस अखाड़े का प्रयोग बहुत आत्मविश्वास और इस ठसके के साथ होता है, ‘‘बाकी माध्यमों में हास्य-व्यंग्य प्रायोजित है जबकि ‘ऑर्गेनिक ह्यूमर / सटायर’ यहां बचा हुआ है।’’ अमेरिका की तर्ज पर तेजी से परफॉर्मिंग कॉमेडी शो के ग्रुप उभर रहे हैं। इनका एक संस्करण यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर पर बहुत मजबूती से अपना दखल रखता है। आभास होता है कि भारतेन्दु युग का हास्य-व्यंग्य बरास्ते पत्रकारिता बचा हुआ है। इसका असर ये है कि हिंदुस्तान में राहुल राम “डेमोक्रेसी की ऐसी-तैसी” करते हुए, व्यवस्था और सरकार पर व्यंग्य करती पैरोडी पेश करते हैं, ‘‘यहां रात और दिन नेता मारे, वहां फौज का डंडा रहता है’’ तो जवाब में पाकिस्तान के मुहम्मद हसन मिराज पैरोडी करते हैं, ‘‘गाली देना अब छोड़ भी दो, बैठो कुछ काम की बात करें।’’ लेकिन इस आखिरी खिड़की के बाहर जो तल्खी भरे नजारे हैं, उनमें इस बात का संकेत है कि दर्शकों-पाठकों-श्रोताओं की ऐसी बड़ी जमात अभी भी बची हुई है जो हास्य-व्यंग्य का वही मतलब निकालती है जो निकालना चाहती है। ये वही जमात है जो कभी दूरदर्शन के ‘मेड इन इंडिया’ या फिर सब टीवी पर आने वाले ‘मूवर्स एंड शेकर्स’ जैसे शो देखकर विकसित हुई है।
व्यंग्य पर इजारेदारी सिर्फ पुरुषों की तो नहीं
इन सबके बीच हुआ ये है कि हास्य-व्यंग्य चाहे वो साहित्यिक विधा के रूप में ही क्यों न हो, जिसका एक संस्करण कवि सम्मेलनों में भी नजर आता था अब वह मर्दवादी जकड़न से धीरे-धीरे फिसलकर िस्त्रयों के पक्ष से दूसरे सवालों की तरफ मुड़ रहा है। वरना हास्य-व्यंग्य के खाते में, साहित्य करार दिए जाने की हद तक िस्त्रयां (खासकर पत्नी की शक्ल में) उपहास की पात्र, कमतर और पुरुष लंपटता की शिकार अधिक रही हैं। हास्य-व्यंग्य के कारोबारी रुझान के बावजूद उजला पक्ष यह है कि आनुपातिक रूप से संख्या में अभी कम होते हुए भी मौजूदगी के स्तर पर हास्य-व्यंग्य पर जो पुरुष वर्चस्व रहा है जिसके गहरे निशान, ‘सिनेमा प्रमोशन का ट्रॉली शो’ ‘कॉमेडी विद कपिल’ जैसे शो में मौजूद हैं, में एक हद तक ध्वस्त हो रहे हैं।
इस शृंखला में टीवी पर सुगंधा मिश्रा, भारती, एफएम रेडियो पर दर्जनों आरजे और अब नेटफ्लिक्स पर अदिति मित्तल जैसों की मौजूदगी को अलग से देखा जाना चाहिए जिससे अंदाजा लग सके कि जिसे अभी तक हम हास्य-व्यंग्य मानकर देखते-पढ़ते-सुनते आए हैं, उसका बड़ा हिस्सा दरअसल मर्दवादी मानसिकता का अलग-अलग तरीके से दोहराव है।
इस सिरे से देखते ही हास्य-व्यंग्य पर चढ़े कई प्लास्टर अपने आप झड़ने लगते हैं और ऐसा होना मीडिया में हास्य-व्यंग्य के लिए जरूरी कार्रवाई है।