चचा गालिब लिख गए हैं, ‘‘कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नजर नहीं आती, आगे आती थी हाले दिल पे हंसी, अब किसी बात पे नहीं आती।’’
चचा के जाने के करीब डेढ़ सौ साल बाद तो हंसी की बहुत-सी वजहें गायब हो गई हैं। चचा को ही हंसने में आफतें थीं, तो अब वालों का क्या कहना। हंसना मुश्किल काम है, हंसाना और भी मुश्किल। जिसे इस काम में महारत हासिल है, उसका बाजार है। बाजार हंसी का पहले भी था, पर जितने बहुविध स्वरूप में हंसी का बाजार आज है, वैसा शायद ही कभी रहा हो। यूं हम तक अकबर-बीरबल की कहानियां और तेनालीराम के किस्से हास्य के पहियों पर चलकर पहुंचते रहे हैं। अकबर के दरबार में ज्ञानी बीरबल से ज्यादा थे, पर बुद्धिमत्तापूर्वक हंसाने की काबिलियत बीरबल में थी, वह समय के इस पार हम तक पहुंचते हैं।
हंसी के साथ व्यंग्य भी हम तक पहुंचता है। व्यंग्य और हास्य के रिश्तों पर बड़ी बहस है। व्यंग्य विसंगतियों का रचनात्मक चित्रण है। हास्य हंसाने का उपक्रम है। हर व्यंग्य नहीं हंसाता। हर हास्य व्यंग्य नहीं होता। बदलते वक्त ने हंसी के स्वरूप बदल दिए हैं।
स्टैंड-अप कॉमेडी
यह भारत में अपेक्षाकृत नया है, पर अमेरिका में बहुत पुराना है। स्टैंड-अप यानी हास्य कलाकार खड़ा होता है और अपनी राम कहानी या वनलाइनर कहना शुरू करता है। ज्यादातर स्टैंड-अप कलाकारों के पास एक या दो स्थाई आइटम होते हैं और वह ताजा परिस्थितियों पर वनलाइनर विकसित करते हैं। स्टैंड-अप कॉमेडी नई पीढ़ी में बहुत लोकप्रिय है। पचास साल से ऊपर वालों को शायद पता न हो कि जाकिर खान नई पीढ़ी के लिए स्टार का दर्जा रखते हैं, जाकिर खान देश के शीर्ष स्टैंड-अप कलाकारों में से एक हैं। लड़कियां-महिलाएं भी पीछे नहीं हैं-अदिति मित्तल शीर्ष स्टैंड-अप आर्टिस्ट हैं। राहुल सुब्रह्मण्यम, अतुल खत्री, विश्व कल्याण रथ, जीवशू अहलूवालिया, कनन गिल, करुणेश तलवार, कैनी सेबस्टियन, डेनियल फर्नांडीज, नीति पाल्टा, पापा सीजे, सौरभ पंत, विपुल गोयल, अमित टंडन ऐसे नाम हैं जो भारतीय स्टैंड-अप कॉमेडी में प्रमुख हैं। वीर दास इन सबके सीनियर हैं। इन स्टैंड-अप कलाकारों का काम इंग्लिश-हिंदी मिला-जुला है। स्टैंड-अप कॉमेडी का अपना अर्थशास्त्र है।
स्टैंड-अप कलाकार की मांग के हिसाब से रेट तय होता है। रेट शब्द हिंदी हास्य बाजार के लिए नया नहीं है। हिंदी कवि सम्मेलनों में रेट का गणित इसी हिसाब से तय होता रहा है कि किसकी मांग सबसे ज्यादा है और लोग किस कवि को ज्यादा सुनना चाहते हैं। बाजार के गणित के हिसाब से चलता कवि सम्मेलन बाजार भी बताता है कि जूनियर हास्य कवि के रेट ज्यादा हो सकते हैं, किसी सीनियर गीतकार के मुकाबले। ऐसा ही हिसाब-किताब स्टैंड-अप कॉमेडी में है, पचास हजार रुपये से लेकर दस लाख रुपये प्रति शो भी ले सकते हैं स्टैंड-अप कलाकार। अमित टंडन टिकट लगाकर हास्य शो करते हैं। अमेजन प्राइम पर हास्य वीडियो देखे जा सकते हैं। बहुत सीधा-सा मामला है, जो ज्यादा देखा जाएगा, उसका रेट ज्यादा होगा। जिसकी मांग ज्यादा होगी, उसका रेट ज्यादा होगा। तमाम कंपनियां अपने यहां ऐसे हास्य शो कराती हैं।
करीब पच्चीस करोड़ रुपये का ऑफलाइन स्टैंड-अप काॅमेडी बाजार है। ऑफलाइन स्टैंड-अप से आशय ऑडिटोरियम में चलने वाले शो, तमाम कंपनियों द्वारा कराए जाने वाले शो से है। टीवी पर स्टैंड-अप का अलग कारोबार है। यू-ट्यूब वीडियो को व्यूज मिलते हैं, उस हिसाब से उन वीडियो के साथ इश्तिहार चलते हैं। यह बाजार बढ़ना है, क्योंकि हास्य के स्टैंड-अप कॉमेडी बाजार में अगली लड़ाई एक्सक्लूसिव कलाकारों को अपने साथ लाने की है। इसके लिए मुंहमांगी रकम भी देने को मीडिया कंपनियां तैयार होंगी। हास्य पर 100 करोड़ रुपये खर्च कर के 200 करोड़ रुपये की कमाई का जुगाड़ है।
टीवी-रेडियो पर हास्य
टीवी पर हास्य का चेहरा बिलकुल बदल गया है। पुराने दर्शक याद कर सकते हैं, जसपाल भट्टी के फ्लाप शो, अशोक चक्रधर के संचालन में हुए कई कवि सम्मेलनों को। दूरदर्शन के सुनहरे दौर में ये हास्य कार्यक्रम हुआ करते थे। अब सीन दूसरा है। आजतक चैनल पर ‘सो सॉरी’, इंडिया टीवी पर ‘ओ माय गॉड’ और जी न्यूज पर ‘फन की बात’ नियमित तौर पर आ रहे हैं। इनमें मूलतः समाचार आधारित हास्य हैं। दूरदर्शन का पुराना हास्य फीचर वाले तत्व लिए हुए था। समाचार और फीचर का बुनियादी फर्क यह है कि फीचर थोड़ा लंबे समय तक प्रासंगिक रहता है, यह बात ‘ओ मॉय गाड’ और ‘सो सॉरी’ के बारे में नहीं कही जा सकती। पर न्यूज चैनलों की पहली चुनौती प्रासंगिक और सामयिक बने रहने की है। टीवी का गुणा-गणित अलग है। दो लाख रुपये अगर एक शो को बनाने पर खर्च हुए हैं, तो उससे पांच लाख रुपये खींचे जा सकते हैं, इश्तिहार लाकर। हास्य का अपना बाजार है। यह बात लगातार साफ हुई है।
भारतीय समाचार टीवी के हास्य को अभी पाकिस्तान के समाचार हास्य से बहुत कुछ सीखना है। पाकिस्तान का टीवी न्यूज हास्य भारत से बहुत आगे है। पाकिस्तान के टीवी चैनलों के दो समाचार आधारित कार्यक्रम, ‘खबरनाक’ और ‘खबरदार’ अपने स्वरूप और कंटेंट में भारतीय टीवी चैनलों को हास्य की शिक्षा दे सकते हैं। पर यहां भी बाजार का गणित काम करता है। जैसा हास्य अभी टीवी पर चल रहा है, उसी में दर्शक मगन हैं।
टेलीविजन रेटिंग पॉइंट्स आ रहे हैं। इश्तिहार मिल रहे हैं, तो अभी हास्य कार्यक्रमों में सुधार की जरूरत महसूस नहीं की जाती है।
‘फन की बात’ कार्यक्रम टीवी के हास्य का नया चेहरा है। भाषा से लेकर कंटेंट तक रौनक अपनी बात को समसामयिक मसलों पर रखते हैं। पब्लिक इसे बिना इस चक्कर में पड़े देखती है कि यह हास्य है या व्यंग्य। पब्लिक दरअसल यह सवाल नहीं उठाती, यह हास्य है या व्यंग्य। जिसमें मन लग जाए, वह देख लेती है। विद्वान बाद में क्लासिफिकेशन करते रहते हैं कि इसे माना क्या जाए। रौनक रेडियो पर बतौर बऊआ चरित्र उपस्थित होते हैं। बऊआ कतई बेवकूफी के सवाल लोगों से रेडियो पर पूछता है और गालियां खाता है। पब्लिक हंसती है और उससे बड़ा प्रतिरोध भी पैदा हो जाता है। मुंबई के एक रेडियो स्टेशन की आरजे मलिष्का ने मराठी लोकगीत पर आधारित एक पैरोडी बनाई, जिसका आशय था, ‘मुंबई क्या तुम्हें मुंबई नगर निगम पर भरोसा नहीं है क्या, यहां के गढ्ढे गोल हैं, हर साल बारिश में पानी भरता है।’ इस पैरोडी से मुंबई के नगर निगम पर सत्तारूढ़ पार्टी शिवसेना भड़क गई और आरजे मलिष्का के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। रेडियो अब भी असरदार माध्यम है, यह रेडियो हास्य ने साबित किया।
टीवी पर हास्य का चेहरा इसलिए बदला है कि आॅडियंस का चेहरा पूरी तौर पर बदल गया है। इस देश की जनसंख्या का करीब 50 प्रतिशत पच्चीस साल से नीचे वालों का है। अब के करीब पचास साल के लोग तीस साल पहले के टीवी कार्यक्रमों को याद करके रो सकते हैं, पर यह वक्त वह नहीं है। अब तेज, चुस्त कार्यक्रम चाहिए। पहले ही क्षण से हंसाने वाला कार्यक्रम चाहिए। धैर्य नहीं है कि पांचवें मिनट हास्य आएगा, तब हंसेंगे। इस चक्कर में वह हास्य खत्म हो गया, जो थोड़ा धैर्य मांगता था। जो स्टोरी को बिल्ड करता था। अब हास्य टेस्ट मैच नहीं रहा, ट्वेंटी-ट्वेंटी का गेम है, पहली ही बॉल पर छक्का चाहिए। तुरंत, तेज हास्य का यह स्वरूप सबसे ज्यादा मांग में है और इसलिए व्यंग्य-हास्य के वनलाइनर की मांग बहुत तेजी से बढ़ी है। नई पीढ़ी अब पढ़ाई कर रही है, मोबाइल के जरिए। बीस साल की उम्र के आसपास के बच्चे से पूछिए तो वह बताएगा या बताएगी कि वह तमाम खबरें, अखबार मोबाइल पर भी देखते हैं या देखती हैं। जो मोबाइल से बाहर है वह उनके संसार में नहीं है। टीवी भी उनके लिए यू-ट्यूब के जरिए आता है। अपने पसंदीदा कार्यक्रमों को वो टीवी पर देखने के बजाय यू-ट्यूब पर देख रहे हैं, अपनी पसंद के वक्त। इस तरह से यू-ट्यूब एक बड़ा चैनल बन गया है।
एक लाइन में हास्य-व्यंग्य
हिंदी में हास्य-व्यंग्य के वनलाइनर की परंपरा यूं बहुत नई नहीं है, पर हाल के दिनों में इस पर तेजी से काम हुआ है। नीरज बधवार, यामिनी चतुर्वेदी, रंजना रावत, श्रीकांत चौहान कुछ नाम हैं, जिन्होंने हास्य-व्यंग्य के वनलाइनर पर काम किया है। ट्विटर ने रचनात्मकता के नए आयाम पेश किए हैं। 140 कैरेक्टर में अपनी बात कहने का हुनर पैदा करना ट्विटर ने सिखाया है। तमाम अखबार, टीवी चैनल किसी भी बड़ी घटना के बाद अपना ट्विटर हैंडल बना देते हैं और उस पर संबंधित घटना से जुड़े ट्वीट आमंत्रित करते हैं। कई ऐसे नाम हैं, जो ट्विटर के जरिए ही हास्य-व्यंग्य में धूम मचा रहे हैं। थोड़े में बहुत कहना इस दौर की सबसे बड़ी जरूरत है, खास तौर पर हास्य में काम करने वालों के लिए। कई वेबसाइट अपने यहां दैनिक वन-लाइनर हास्य-व्यंग्य काॅलम चला रही हैं। अखबार चुनिंदा ट्वीट को अपने यहां जगह दे रहे हैं। मीडिया गड्ड-मड्ड हो गया है। ट्वीट अखबार में आने से पहले ही कई जगह देखा जा चुका होता है। इस पूरे परिदृश्य का एक परिणाम यह है कि उन लोगों की मांग लगातार बढ़ रही है, जो एक लाइन में अपनी बात कहने का हुनर रखते हैं।
कवि सम्मेलन और हास्य
कवि सम्मेलन हिंदी में बहुत पुराने हैं। अब इनका स्वरूप बदलते वक्त के साथ बदल रहा है। हिंदी कवि सम्मेलन मोटे तौर पर करीब सौ करोड़ रुपये का कारोबार है। हिंदी कवि सम्मेलन बड़ी कंपनियां, बड़े संस्थान कराते हैं।
कवियों की फीस अब लाखों में है कुछ की हजारों में है। कुछ मुफ्त में सुनाने को भी बेकरार रहते हैं, अपनी-अपनी मांग, अपना-अपना बाजार है।
कवि सम्मेलन अब मूलतः हास्य कवि सम्मेलन हो गए हैं। हास्य कवि की दिक्कतें बढ़ गई हैं। पहले हास्य कवि चुटकुले सुनाकर भी कवि बना रहता था।
अब आफत यह है कि चुटकुले वाला काम स्टैंड-अप कॉमेडी वाले कर रहे हैं, उन्हें कवि कहलाने का शौक नहीं है। हास्य कवि खुद को हास्य कवि कहता था, पर चुटकुलों से भी हंसा देता था। अब हास्य कवि का संकट यह है कि वह स्टैंड-अप कॉमेडियन की तरह खुद को खालिस हास्य कलाकार कह नहीं सकता। इसलिए दिक्कतें बढ़ गई हैं।
अब तो यह भी हो गया है कि कवि सम्मेलन में हास्य कवियों के साथ स्टैंड-अप कॉमेडियन भी बुलाए जाने लगे हैं। पब्लिक हंसने से पहले यह नहीं सोचती कि कवि हंसा रहा है कि स्टैंड-अप कॉमेडियन। पब्लिक बस हंसना चाहती है।
इस तरह स्टैंड-अप कॉमेडी का कारोबार हिंदी कवि सम्मेलन से गड्ड-मड्ड हो रहा है। आने वाले बीस साल में हिंदी हास्य कवि सम्मेलन के आयोजनों का एक हिस्सा स्टैंड-अप कॉमेडी की तरफ जा सकता है। यह देखने में आ रहा है कि हिंदी कवि सम्मेलन के पुराने स्टारों की वह धमक नौजवानों में नहीं रही, जो अब के स्टैंड-अप कलाकारों की हो रही है। वक्त बदल रहा है और कॉमेडी का चेहरा भी बदल रहा है।