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टीवी पर मशीनगन की तरह चुटकुले चाहिए

रेडियो जॉकी रौनक को श्रोता बऊआ के रूप में बखूबी जानते हैं। रौनक से आउटलुक की सहायक संपादक आकांक्षा पारे काशिव ने किए कुछ सवाल-जवाब
रेडियो जॉकी रौनक

टीवी, रेडियो दोनों माध्यमों पर आप दर्शकों/श्रोताओं को हंसा रहे हैं, गुदगुदा रहे हैं। दोनों माध्यमों में क्या फर्क महसूस करते हैं?

रेडियो में श्रोता आवाज से एक छवि गढ़ते हैं। अपने हिसाब से कल्पना करते हैं। मजेदार बात यह है कि जब मैं रेडियो पर बऊआ के रूप में आता था और लोगों ने मुझे देखा नहीं था तो उन्होंने कल्पना की कि मैं स्कूल से आने वाले लड़के की तरह दिखता हूं। कंधे पर बैग टांगे, थका-सा, आधी शर्ट बाहर आधी अंदर, बिखरे बाल, मैली यूनीफॉर्म, पानी की बोतल का टूटा स्ट्रैप। और जब मैं टीवी पर आने लगा तो ज्यादातर लोगों को मुझे देख कर बहुत अचरज हुआ। अरे! ये तो बहुत अलग दिखता है। तो टीवी में प्रेजेंटेशन और रेडियो में अटेंशन का फर्क है।

कंटेंट को लेकर भी क्या दोनों माध्यमों में बहुत फर्क है?

हां, फर्क तो है ही। टीवी के दर्शकों के पास धैर्य नहीं है। पेशेन्स की बहुत कमी है। जो चाहिए, जल्दी चाहिए। सब कुछ फटाफट। यदि मैं कोई चुटकुला सुना रहा हूं या कोई चुटीली कहानी या बात कह रहा हूं और बीच में ब्रेक आ जाए तो दर्शक तुरंत चैनल बदल देगा। उसे कोई मतलब नहीं कि आगे पूरी बात सुन ले। कोई नहीं कह सकता कि फिर वह दर्शक दोबारा उस चैनल पर आएगा या नहीं। लेकिन रेडियो पर कुछ चल रहा है तो श्रोता उसे पूरे ध्यान से सुनेगा। रेडियो में कंटेंट बहुत कंसंट्रेशन से सुना जाता है। क्योंकि कोई दिख नहीं रहा, उन्हें सुन कर ही समझना है। इसलिए टीवी के कंटेंट को लूज नहीं छोड़ा जा सकता। हालांकि रेडियो में भी ऐसा नहीं है लेकिन लुक और फील के आगे रेडियो का कंटेंट अलग है, जैसे फूल की पत्तियां फेंकने जैसा और टीवी पर मशीनगन, बस तड़ातड़ चलती रहनी चाहिए। जितने जोक मैं टीवी पर मार देता हूं उतने धीमे-धीमे बोलूं तो रोहित शेट्टी की एक मूवी बन जाए।

बात टीवी की चली है तो इसकी भाषा पर भी बात कर ली जाए। टीवी के कॉमेडी शोज की भाषा कुछ ज्यादा ही बोल्ड नहीं है?

हां, बोल्डनेस बढ़ी तो है। हमने महसूस नहीं किया कि टीवी के कंटेंट पर लोग असहज महसूस करते होंगे। मैं खुद ऐसा कंटेंट नहीं चाहता जो किसी को भी असहज महसूस कराए। बऊआ के शो के बाद कई बार मुझे भी श्रोताओं के फोन आए हैं जो कहते हैं कि आपके शो में इतने बीप क्यों थे। पर मेरे बेटे को मालूम है कि बीप के पीछे कौन सा शब्द है। तब मैंने उनसे कहा कि यह आपको देखना चाहिए कि आपका बच्चा अगर बीप के शब्द जान रहा है तो वह किसके साथ रह रहा है।

यह पीढ़ियों के हास्य बोध का अंतर है?

बिलकुल हो सकता है। वैसे हास्य ऐसी विधा है जिसे पीढ़ी में नहीं बांटा जा सकता। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि नई और पुरानी पीढ़ी के हास्य बोध में अंतर तो आया है।

किस तरह का अंतर आप देखते हैं?

पहले कंटेंट का बोलबाला था। अब प्रेजेंटेशन का है। चुटकुला मारक न भी हो तो बहुत सी बातें मिल कर उसे उठा देती हैं। पहले ऐसा नहीं था। दूरदर्शन के जमाने में एक से एक हास्य कवि सम्मेलन आते थे। दर्शक इंतजार करते थे और देखते थे। तब कवि अकेले दम पर लोगों को हंसाते थे। आज की पीढ़ी को बुफे टाइप चाहिए। 699 में सारा खाना दे दो भाई। 350 की केवल दाल वाली जगह खाना खाने कोई नहीं जाएगा। पसंद बदली है। आज के युवाओं को सब कुछ फास्ट चाहिए। हास्य भी।

क्या यही वजह है कि वन लाइनर प्रचलित हो रहे हैं?

वन लाइनर के पीछे बहुत से कारण हैं। उनमें से एक कारण यह भी है। विदेशों में वन लाइनर शो काफी पॉपुलर हैं। क्योंकि वहां इस्टेबलिशमेंट पर सवाल उठाए जा सकते हैं। वहां के तो राष्ट्रपति भी किसी ऐसे कार्यक्रम में आ सकते हैं। हमारे यहां ट्विटर आने के बाद वन लाइनर में इजाफा मान सकते हैं। जैसे मैंने जन्माष्टमी पर लिखा, ‘मुबारक हो कंस को भांजा हुआ है’ तो इसे लोगों ने बहुत सराहा। ऐसा कुछ चुटीला हो तो ठीक है वरना अब तो बिलो द बेल्ट भी वाक्य होते हैं। दरअसल विदेश की नकल करने के चक्कर में हम कभी-कभी एब्यूसिव हो जाते हैं। सोशल मीडिया पर यही हो रहा है।

क्या इसमें पॉलिटिकल सटायर भी शामिल है?

इसे अलग से नहीं देखा जा सकता। कुछ लोग महिलाओं के प्रति भी अभद्र हैं।

लड़के लड़कियां बन कर हंसा रहे हैं। इसे कैसे देखते हैं?

मुझे नहीं लगता लड़कियों का मजाक उड़ाने के लिए ऐसा किया जा रहा है। लड़कियों को कोई भी नीचा नहीं दिखा रहा है। जैसे कुछ लोग लड़कियों के मेकअप, उनकी ड्राइविंग स्किल्स की खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन वहां ऐसा नहीं है। मुझे लगता है यह फॉर्मेट चल गया है सो बस चल रहा है। किसी को नीचा दिखाने जैसी कोई बात नहीं है।

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