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साझी विरासत या साझा मंच

लालू-नीतीश की टकराहट को शरद यादव ने तमाम विपक्षी दलों को एकजुट करने का मौका बनाया मगर कई सियासी सवाल बाकी
एकजुटताः साझी विरासत सम्मेलन में मनमोहन सिंह, राहुल गांधी, येचुरी के साथ शरद यादव

हाल में शरद यादव ने साझी विरासत का आह्वान किया तो राजनैतिक हलकों में इसकी गूंज कई रूपों में सुनाई दी। कुछ इसका अर्थ विपक्षी पार्टियों के साझा मंच से लगा रहे हैं तो कुछ मान रहे पुराने जनता दली और सामाजिक न्याय के पैरोकार दलों को एकजुट करने की कोशिश। हालांकि एक वर्ग उसके सामान्य अर्थ यानी हिंदू-मुस्लिम एकता को ही तवज्जो दे रहा है। लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पाला बदलकर एनडीए में शामिल होने के बाद अपनी जमीन तलाश रहे जनता दल (यूनाइटेड) के पूर्व अध्यक्ष के समर्थकों की मानें तो साझी विरासत में सब कुछ समाहित है। शायद इसी वजह से यह कांग्रेस, वाम दलों, तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी के लिए भी मुफीद है और बहुजन समाज पार्टी की मायावती तथा समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव के लिए भी एक चबूतरे पर खड़े होने का बहाना बन रहा है। इसका एक संकेत बसपा के ट्विटर हैंडल पर कुछ समय के लिए पोस्ट किया गया वह पोस्टर है जिसमें ‘सामाजिक न्याय की साझी विरासत’ शीर्षक के तहत मायावती की बड़ी तस्वीर के साथ अखिलेश, शरद, सोनिया गांधी वगैरह की तस्वीरें चस्पा थीं। विपक्षी एकता के संदेश को आगे बढ़ाते हुए 16 विपक्षी दलों ने 21 अगस्त को एक समिति गठित कर शरद यादव को इसका संयोजक बना दिया। इस समिति में कांग्रेस, टीएमसी, एनसीपी, माकपा, भाकपा, सपा, बसपा, राजद, राष्ट्रीय लोकदल और जनता दल (एस) सहित सभी 16 पार्टियों के सदस्य हैं। यह समिति देश के सभी राज्यों में शरद यादव द्वारा दिल्ली में आयोजित साझा विरासत कार्यक्रम की तर्ज पर साझा विरासत बचाओ कार्यक्रम आयोजित करेगी। इस घटनाक्रम का सीधा मतलब है कि यह मंच विपक्षी एकता को आगे बढ़ाने के एजेंडे पर काम करेगा।

इस नजारे को जरा पीछे ले जाइए तो लगेगा कि कुछ ऐसी ही कोशिश के सबसे प्रबल पैरोकार नीतीश कुमार भी हुआ करते थे। या यूं कह सकते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और नरेन्‍द्र मोदी के हाथों मुंह की खाए तमाम नेता नीतीश को आगे करके एक साझा मोर्चा बनाने की कोशिश में जुटे थे। लेकिन एक फर्क भी है। तब केंद्र में मोदी सरकार की छवि खासकर भूमि अधिग्रहण के मसले पर “सूट-बूट की सरकार” की बन गई थी और वह बिहार तथा दिल्ली में उसी छवि और ऊंचे विपक्षी एकता सूचकांक की वजह से हार गई थी। अब खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भारी जीत के बाद मोदी सरकार की गुड्डी फिर चढ़ी तो नीतीश को विपक्ष का खेमा बेजान लगने लगा और उन्होंने ऐसे पाला बदला कि कई राजनैतिक पंडित भी हैरान रह गए। जदयू के प्रमुख महासचिव के.सी. त्यागी कहते भी हैं, “राष्ट्रपति उम्मीदवार तय करने में कांग्रेस के टालमटोल के रवैए से ही लग गया था कि विपक्षी एकता की कोशिश छलावा भर है।”

इसलिए शरद यादव की कोशिश शायद विरासत के तहत इस कथित “छलावे” को हकीकत में बदलकर पुख्ता शामियाना तैयार करने की है। यह अलग बात है कि शामियाने में अभी भी कई सियासी पैबंदों को मजबूत धागे से सिलने की दरकार होगी और सत्तारूढ़ एनडीए के खेमे की ओर से इसके धागों को तोड़ने की कोशिशों से पार पाना होगा। केंद्र में संभावित मंत्रिमंडल फेरबदल में कुछ नए सहयोगियों को स्‍थान देने और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के मामलों में हस्तक्षेप इसके उदाहरण हो सकते हैं।

जहां तक शरद यादव के जदयू से संबंधों का मामला है, कभी उनके खेमे के खास माने जाने वाले त्यागी कहते हैं, “शरद जी भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ रहे हैं इसलिए अगर वे लालू यादव की पटना में 27 अगस्त की रैली में शामिल होते हैं तो उन्होंने जिन राजनैतिक मूल्यों को हमेशा तरजीह दी, उन्हें गंवा देंगे क्योंकि भ्रष्टाचार के मामले में दोषी साबित लालू यादव के साथ मंच साझा करना उनके मूल्यों के प्रतिकूल है।”     

दिल्ली में साझी विरासत सम्मेलन के पहले शरद यादव बिहार के कई जिलों का दौरा भी कर चुके हैं। यह महज संयोग भी नहीं कहा जा सकता कि उनका यह दौरा उसी वक्त हुआ, जब लालू के बेटे तथा पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी “जनादेश से विश्वासघात” यात्रा निकाल रहे थे। फिर 19 अगस्त को जदयू के नीतीश कुमार वाले धड़े की कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी तब शरद यादव और जदयू के दूसरे राज्यसभा सदस्य अली अनवर पटना में समांतर सभा कर रहे थे। इसमें दो राय नहीं कि जदयू पर नीतीश की ही पकड़ मजबूत है। हालांकि शरद यादव गुट के लोगों का दावा है कि उन्हें जदयू की 12 राज्य इकाइयों का समर्थन प्राप्त है। लेकिन यह भी किसी से छुपा नहीं है कि बिहार के बाहर की इकाइयों की कोई खास ताकत नहीं है। 

हालांकि यही छुटपुट ताकत हाल में गुजरात के राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के अहमद पटेल की नाटकीय जीत की वजह बन गई। भाजपा और उसके करिश्माई अध्यक्ष अमित शाह की तमाम कोशिशों के बावजूद अहमद पटेल जदयू विधायक छोटूभाई बसावा के एक वोट की मदद से जीतने में कामयाब रहे। इस तरह करीब महीने भर पहले तक जो टकराव लालू-नीतीश पर केंद्रित था, शरद यादव ने उसे विपक्ष और एनडीए के मुकाबले में तब्दील कर दिया है।

करीब चार दशक बाद समय एक बार फिर शरद यादव को वहीं ले आया है जहां से 1974 में वे राजनैतिक फलक पर छा गए थे। जबलपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष से वे सीधे साझा जनता उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरे थे। तब भी वह विपक्ष की एकता का इम्तिहान था। आज एक बार फिर शरद यादव उससे भी बड़े इम्तिहान से गुजर रहे हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों में बेहतर रणनीति बनाना शरद यादव की खासियत रही है। केंद्र की वीपी सिंह सरकार में जब देवीलाल और चंद्रशेखर के चलते संकट चल रहा था और उसी समय भाजपा राम मंदिर मुद्दे को पूरे जोरशोर से बढ़ा रही थी तब वीपी सिंह से मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की सबसे जोरदार वकालत शरद यादव ने ही की थी। पिछले दिनों दिल्ली में अपने आवास पर एक लंबी बातचीत के दौरान शरद यादव ने दावा किया था कि वीपी सिंह को मंडल आयोग की रिपोर्ट तुरंत लागू करने का सुझाव उन्होंने ही दिया था और इस फैसले ने पूरी स्थिति को ही पलट दिया था। बेशक, इससे देश की राजनीति को ही एक नया एजेंडा मिल गया, जिसके इर्द-गिर्द देश की सारी राजनीति दो दशक से ज्यादा घूमती रही है।

आज विपक्षी दल शरद यादव से उसी तरह के किसी करिश्मे की उम्मीद कर रहे हैं। नरेन्‍द्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देने के लिए विपक्ष के पास अभी कोई एक अदद सूत्रधार नहीं है। साझा विरासत के मंच पर राहुल गांधी से लेकर सीताराम येचुरी, फारूक अब्दुल्ला, प्रकाश आंबेडकर और सपा-बसपा समेत कुल 16 दलों के नेता जुटे। हालांकि डीएमके और आम आदमी पार्टी जरूर ना-मौजूद थी, मगर उन्हें बुलाया ही नहीं गया था।

देश में कथित गोरक्षकों की गुंडागर्दी और धार्मिक पहचान को निशाना बनाकर हुए भीड़ की हिंसा की पृष्ठभूमि साझा विरासत बचाने का अभियान ‘सेकुलरिज्म’ की नाकामी से उबरने में मददगार साबित हो सकता है। शायद इसलिए साझा विरासत बचाओ सम्मेलन में वक्ता सेकुलरिज्म शब्द से परहेज करते नजर आए। इसी तरह हिंदुत्व के बजाय मनुवाद पर हमला बोला गया। अल्पसंख्यकों का मुद्दा उठाने के बजाय दलित, पिछड़े, आदिवासी यानी वंचित वर्ग के सवालों पर जोर दिया गया। भाषायी स्तर पर नजर आए ये बदलाव विपक्ष की भावी राजनीति का व्याकरण व्यक्त करते हैं। जाहिर है, इन बदलावों के पीछे हाल की नाकामियां और भाजपा तथा आरएसएस के एजेंडे की मजबूत काट न ढूंढ़ पाने की लाचारी ज्यादा है।

दिल्ली में शरद यादव की ओर से बुलाए गए सम्मेलन में भी जदयू से ज्यादा लोग अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल और वीएम सिंह की राष्ट्रीय किसान मजदूर पार्टी के दिखाई दिए। यानी शरद यादव ने जो राह पकड़ी है, उसमें उन्हें अब जदयू के भीतर से ज्यादा कुछ हासिल होने वाला नहीं है। इतना जरूर है कि लालू, अखिलेश, मायावती, अजित सिंह और कांग्रेस तथा वाम दलों को साथ लाकर वे दलित, पिछड़े और मुस्लिम गठजोड़ के जरिए मंडल सरीखा कोई नया गुल खिला सकते हैं। इस संभावना को मंडल पार्ट-टू या मंडल 2.0 भी कहा जा रहा है। आगे-आगे देखिए होता है क्या! 

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