अगस्त का महीना देश और देशवासियों के लिए बहुत अहम है क्योंकि इसी महीने में हम अपनी स्वतंत्रता का जश्न मनाते हैं और स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधन में उन महत्वपूर्ण मसलों पर बात करते हैं, जो देश को बेहतर दिशा में ले जाने के साथ ही आम नागरिक की बेहतरी के लिए जरूरी हैं। इस बार भी प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त के अपने भाषण में कई अहम बातें कहीं। उन्होंने ‘न्यू इंडिया’ बनाने पर जोर देने के साथ ही देश के लोगों को इस लक्ष्य की प्राप्ति में भागीदार बनने को कहा। लेकिन इसी अगस्त में कई ऐसी बातें हुई हैं जो इस लक्ष्य को हासिल करने में बाधक हैं।
इसी महीने गोरखपुर के एक अस्पताल में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हो गई। इसके पीछे चिकित्सा सुविधाओं की कमी और भ्रष्टाचार को मुख्य कारण बताया जा रहा है। लेकिन यह भी सच है कि जिस जापानी इंसेफेलाइटिस बुखार को इन बच्चों की मौत की मुख्य वजह बताया जा रहा है, वह उत्तर प्रदेश के इस इलाके और पड़ोसी राज्य के करीबी हिस्सों में कई दशक से चल रही ऐसी घातक बिमारी है जो असमय ही हजारों बच्चों को लील चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या हमारे प्रशासनिक ढांचे और स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति हमारी लापरवाही उस सीमा को छू चुकी है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार देश अपने मासूम बच्चों को सुरक्षित नहीं कर पा रहा है। हम चंद्रमा के बाद मंगल मिशन की तैयारी में लगे हैं और कथित तौर पर ऑटो के किराये से कम कीमत पर मंगलयान भेजने की क्षमता रखते हैं लेकिन देश में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों को बेमौत मरने के लिए भी छोड़ देते हैं। यह विरोधाभास किसी भी संवेदनशील और जवाबदेह प्रशासकीय तंत्र और समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
पिछले दिनों झारखंड के एक गांव में एक भिखारिन को भीड़ ने इसलिए पीट-पीटकर मार डाला क्योंकि उन्हें आशंका थी कि वह चोटी काटने की अफवाह से जुड़ी हुई है। एक तो, विकासशील से विकसित राष्ट्र की ओर बढ़ते देश के लिए किसी महिला और उसके नाबालिग बच्चे का भीख मांगने के लिए मजबूर होना ही समाज और देश के ऊपर कलंक है। दूसरे, पागल भीड़ किसी अफवाह के चलते उस असहाय को पीटकर मार डाले, यह किसी सभ्य समाज की निशानी नहीं हो सकती है! इसी तरह उत्तर प्रदेश के आगरा और राजस्थान में एक-एक महिला की सरेआम हत्या की जा चुकी है। यह इस बात की गवाही है कि हम ऐसा समाज बनते जा रहे हैं जहां अफवाहें और अंधविश्वास गहराता जा रहा है। न्याय प्रक्रिया का इंतजार किये बिना ही भीड़तंत्र लोगों को निशाना बना रहा है।
तर्कहीन, विवेकहीन और अवैज्ञानिक सामाजिक सोच किसी भी देश के विकास में बाधक है। चिंताजनक यह है कि ऐसी घटनाएं रुक नहीं रही हैं और न ही इनके विरोध में सामाजिक जागरूकता के लिए लोग आगे आ रहे हैं क्योंकि समाज और राजनीति दोनों स्तरों पर नए-पुराने के बीच द्वंद्व चल रहा है। कई ऐसे विचार और मान्यताएं स्थापित करने की कोशिशें हो रही हैं, जो तार्किकता के दायरे में नहीं आतीं। यहां एक उदाहरण जरूर उम्मीद जगाता है। इसी महीने दिल्ली और देश के कई शहरों में वैज्ञानिकों और युवाओं ने एक मार्च निकाला, जो विज्ञान की महत्ता के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए था। इन लोगों का भी कहना था कि वैज्ञानिक और तार्किक सोच को पीछे धकेला जा रहा है। यही नहीं, कई संस्थानों में शोध के लिए जरूरी वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता में कमी को लेकर भी सवाल उठाए गए, जो वाजिब हैं।
इन परिस्थितियों में बदलाव लाने के लिए सरकार और समाज को मिलकर काम करना होगा। यही बात प्रधानमंत्री ने भी कही है कि हमें ‘न्यू इंडिया’ बनाने के लिए जनभागीदारी की जरूरत है। ऐसा ‘न्यू इंडिया’ जहां सभी शिक्षित हों, लोगों के पास रोजगार हो, रहने के लिए घर हो और सामाजिक समरसता हो। लेकिन यह गोरखपुर में बिना इलाज के मर रहे बच्चों की खबरों के बीच नहीं हो सकता है और न ही झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान या उत्तर प्रदेश में अफवाह और अंधविश्वास के चलते महिलाओं और बच्चों की हत्या के जारी रहते संभव है।
बहरहाल, एक बात सुकून की है कि इसी अगस्त में सुप्रीम कोर्ट का एक ऐसा फैसला आया, जो समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए मील का पत्थर साबित होगा। तीन तलाक की प्रथा समाप्त करने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसी तर्कशील समाज की धारणा को मजबूत करता है, जहां तथ्यों और बेहतर मूल्यों का ध्यान रखते हुए फैसले लेने की परंपरा हो। इसलिए तमाम प्रतिकूल घटनाओं के बीच यह फैसला ऐसी आशा की किरण लेकर आया, जो समाज के एक बड़े वर्ग में महिलाओं के जीवन में रोशनी भर देगा। ऐसी ही रोशनी की दरकार देश के हर नागरिक के जीवन में है। यह तभी संभव है जब हम तर्क और बुद्धि-विवेक के आधार पर चलने वाले समाज बनें।