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डेरों की शाही शानो-शौकत

अपने सामाजिक और राजनैतिक रसूख के जरिए बाबाओं की जमात और तामझाम में लगातार इजाफा
अंध भक्तिः रविदासिया संप्रदाय के डेरा सचखंड बल्लन में कथा के दौरान मौजूद अनुयायी

समाजशास्‍त्री एम. राजीवलोचन उस वक्त हक्के-बक्के रह गए जब उन्होंने डेरा प्रमुख को मुगलों के राजदरबार जैसे बने हॉल में बैठे देखा। राजीवलोचन पंजाब विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं और डेरों से जुड़ी अद्‍भुत घटनाओं पर शोध के दौरान वह पंजाब के एक डेरे में पहुंचे थे। यह अलग बात है कि डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिखों के दसवें गुरु गुरुगोविंद सिंह की वेशभूषा धारण करने के कारण ज्यादा चर्चा में आए और मुगल दरबार वाली बात ज्यादा चर्चा में नहीं आई। राजीवलोचन के लिए इस तरह की घटनाएं केवल राम रहीम तक ही सीमित नहीं हैं। डेरा गुरु अपने अनुयायियों के सामने ऐसी ‘लौकिक शक्तियों’ का प्रदर्शन करते रहते हैं। वह कहते हैं, “जैसे डकैत पुलिस और सेना की रैंक की नकल करते हैं वैसे ही डेरे भी एकछत्र राज की तरह बादशाही भीड़ और उनकी मंडली द्वारा चलाए जाते हैं।” वह कहते हैं, ‘‘एक राजा जो शाहजहां की तरह हो या फिर कोई दूसरा मुगल बादशाह जो लोगों की कल्पना में लोकप्रिय जगह रखता हो।’’

हालांकि यह रुझान सिख गुरुओं के चित्रण की प्रवृत्तियों से बहुत अलग नहीं है। गुरुगोविंद सिंह को भी अब संदर्भ से अलग लंबे, घोड़े पर सवार चमकदार व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के रूप में चित्रित किया जाने लगा है। गुरु नानक देव विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्‍त्र के पूर्व प्रोफेसर हरीश पुरी कहते हैं, “उन्हें भी तस्वीरों में मुगल बादशाहों की तरह या शिवाजी और राणा प्रताप की तरह तीर और धनुष से लैस दिखाया जा रहा है।” पुरी ने भी डेरा सच्चा सौदा समेत कई डेरों पर काम किया है। 17वीं या 18वीं शताब्दी में गुरु नानक का जो रूप दिखाई देता था वह आजकल के चित्रों में नहीं रहता है। प्रो. पुरी कहते हैं, “उन्होंने काफी लंबी दूरी पैदल तय की थी। कोई भी इस बात की कल्पना कर सकता है कि ऐसा करने के कारण उनके चेहरे पर लगातार चमक नहीं रह सकती है।”

ऐसे में बाबाओं के दरबार को उनके भक्त या विश्वसनीय अनुयायियों की निगाह से देखा जाना चाहिए। यहीं पर ये बाबा खुद को भगवान की तरह होने का दावा करते हैं और ‘लौकिक’ ताकत का प्रदर्शन कर आध्यात्मिक संदेश देते हैं। राजीवलोचन कहते हैं, “बाबा के शानदार सिंहासन पर बैठने, बोलने, कपड़े पहनने और लोगों से बातचीत करने का जैसा अंदाज है उससे लगता है कि वह लाल किला से कृपा बरसा रहे हों।”

डेरों के प्रमुख लगातार अपनी सेकुलर सत्ता पर जोर देते रहे हैं। इनकी वजहें भी हैं। डेरों ने सिर्फ आध्यात्मिक जगत में ही स्थापित धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी है। जैसा कि गुरुग्रंथ साहिब को लेकर सिखों से इनके टकराव से जाहिर होता रहा है। मुगल दरबार की नकल से एक सामाजिक और आर्थिक नियंत्रण का संदेश भी ये देते रहे हैं। यानी वे खुद को एक समानांतर सत्ता की तरह पेश करते हैं, जहां लोग अक्षम राजतंत्र से निराश होकर उनके यहां आश्रय पाते हैं।

राजसी दरबार के आकर्षण से प्रभावित होकर डेरा समर्थक पूजा की अलग विधि अपनाते हैं और गुरु की ईश्वरीय आज्ञाओं के कारण बाबा के पास भक्तों का समूह उमड़ पड़ता है। एक बाबा सिख गुरु का अंदाज इसलिए अपनाता है क्योंकि उसकी इच्छा उस क्षेत्र पर कब्जा करने की है जिसे वह चाहता है। ये सांई बाबा के अनुयायियों की तरह नहीं हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने खुद को मुस्लिम से हिंदू संत के रूप में परिवर्तित कर लिया था। न ही ये सुदूर, क्षेत्र के शिक्षित नागरिक हैं जो बौद्ध परंपराओं की जानकारी के लिए ध्यान केंद्रों पर आते हैं।

ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के संस्थापक कुलपति सी. राजकुमार के अनुसार अधिकांश डेरे उन ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जहां विज्ञान और कला की पढ़ाई के लिए बड़े-बड़े विश्वविद्यालय बने हुए हैं। यहां इन डेरों का होना विरोधाभास का भान कराता है। वह कहते हैं, “हम देखते हैं कि हमारे विश्वविद्यालय के परिसर के पास से लाखों लोग राम रहीम के प्रवचन सुनने के लिए जा रहे हैं। यह मुझे इस बात का विश्वास दिलाता है कि हम भारतीय एक साथ 19वीं, 20वीं और 21वीं सदी में जी रहे हैं।”

नए धार्मिक विचार देश भर में तेजी से फैल रहे हैं लेकिन इस क्षेत्र में पंजाब का मामला कुछ विशेष ही है। यहां विभिन्न विचारों को सदियों से आपस में मिलने का मौका मिलता रहा है। मोटे तौर पर कहा जाता है कि पंजाब में डेरों की कुल संख्या 3,000 से लेकर 10,000 तक है। पिछले तीन दशक में इन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिली, इस दौरान के डेरे ज्यादा आधुनिक घटनाक्रम हैं। जिन तकलीफों से अनुयायी छुटकारा पाने की उम्मीद करते थे वे भी आधुनिक थीं।

अच्छी स्कूली शिक्षा, ढंग का घर, ज्यादा वेतन वाली नौकरी, विश्वसनीय स्वास्थ्य सेवा पाना आधुनिक भारत के लोगों के तनाव के कारण हैं। लोग इनसे मुक्ति के लिए डेरे की शरण में आते हैं और यही पंजाब में डेरों के प्रसार का कारण है। हर जगह एक से अनुयायियों की भीड़ और कार्बन कॉपी बाबा कई सामाजिक अंतर छुपाते हैं। पुरी सवाल करते हैं, “क्या हमें डेरे पर लोगों के विश्वास करने पर सवाल करने का हक है?” वह कहते हैं, “यह जरूर है कि कुछ लोगों ने राम रहीम का विरोध किया है लेकिन कई को यह भरोसा नहीं है कि उनके गुरु ने गलत किया है जबकि कई इसकी चिंता ही नहीं करते।”

पुरी कहते हैं कि डेरे के अनुयायी गरिमा और सहभागिता के मामले में दूसरी जगहों की तुलना में खुद को यहां ज्यादा सुखी महसूस करते हैं। “ये अनुयायी सिख या हिंदू धर्म की ओर नहीं जाएंगे।” इसका कारण यह है कि पंजाब के दोआबा, माझा और मालवा क्षेत्र में ये डेरे सामाजिक अंतरधारा से जुड़े हैं। दोआबा में सचखंड बल्लन द्वारा संचालित रविदासिया इस इलाके का प्रमुख डेरा है। इसने 2010 में खुद को अलग धर्म घोषित कर लिया था। ऐसा विएना में 2007 में बालान प्रमुख की हत्या सहित कई घटनाओं के बाद हुआ था।

इसी प्रकार माझा में अलगाव की भावना के तहत जाति के आधार पर गुरुद्वारों की स्थापना की गई। पुरी कहते हैं, “लेकिन मालवा में नीची जाति के लोग अपने लिए अलग गुरुद्वारा नहीं बना सकते थे। विकल्प के तौर पर वे निरंकारी (संप्रदाय) या सच्चा सौदा से जुड़े।”

सच्चा सौदा के ‘जीवित देवता’ गुरु ग्रंथ साहिब, हिंदू पौराणिक कथाओं को आधार बना कर प्रवचन देते हैं पर ये अनुयायियों की जीवन की मुख्य चाहत गरिमा, नौकरी, कानूनी मामलों में राहत पर ही आधारित होते हैं। यह सच है कि अन्य डेरों की तरह ही सचखंड बल्लन ने भी स्थापना के शीघ्र बाद ही अपने प्रभुत्व का प्रदर्शन किया। पुरी कहते हैं, “जब एक बार आप ‘प्रेमी’, जैसा रविदासिया खुद को कहते हैं, बन जाते हैं तो आप एक मजहबी, लबाना, वाल्मीकि या कुछ और नहीं रह जाते।” मुक्ति की इसी भावना ने लाखों अनुयायियों को यहां से जोड़ा। पुरी के अनुसार, “जैसे ओशो ने ओरेगन में एक संप्रदाय की स्थापना की उसी तरह डेरों में लोगों को भाईचारे की नई जगह मिली। यहां सामाजिक अलगाव की भावना कम होती है। यह बहुत ही बारीक बदलाव है जिसे बाहर से लोग नहीं देख सकते।”

बदलाव छोटे रूप में दिखा। उदाहरण के लिए मालवा के अखबार में एक वैवाहिक विज्ञापन छपा जिसमें ‘अद धर्मी (रविदासिया) राधास्वामी’ जोड़ी की बात कही गई। इसका मतलब साफ है कि डेरा के अनुयायी जाति की सीमा से बाहर आ चुके हैं  और भविष्य में रिश्ते के लिए इसे जारी रखना चाहते हैं।

पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्‍त्र पढ़ाने वाले रोंकी राम का मानना है कि डेरे स्थापित धर्म को चुनौती नहीं देते पर ये उनके लिए बने हैं जो मुख्यधारा के धर्म में असहजता महसूस करते हैं। वह कहते हैं, “सिख धर्म पूरी तरह से जीवन के सभी हिस्सों को प्रभावित करता है। हालांकि सामाजिक तौर पर सभी को एक समान व्यवहार नहीं मिल पाता। इसमें आप कुछ अपवाद भी पा सकते हैं। लेकिन डेरे सभी धर्मों के लोगों को अपने यहां जगह देते हैं। अलग पहचान वाले लोग यहां आते हैं और समरूपता की तस्वीर पेश करते हैं।”

बाबा दूसरे धर्मों की तरह शाकाहार और अन्य वर्जनाओं को थोप सकते हैं पर वे स्थापित धर्म प्रतीकों और शास्‍त्रों के प्रति सख्त नहीं हैं। रोंकी राम कहते हैं, “जैसे ही वे कहते हैं कि वे धर्मग्रंथों का इस्तेमाल करते हैं वैसे ही इसके अनुचित ढंग से इस्तेमाल करने के आरोपी हो जाते हैं।” रोंकी राम के अनुसार, “जब वे बड़ी संख्या में अनुयायी पा लेते हैं तो नेताओं को लगता है कि वे इसका फायदा उठा सकते हैं।”

बाबा लोगों को पुत्र प्राप्ति, कोर्ट में चल रहे मुकदमे से राहत, अच्छी शिक्षा और कर्ज के अलावा राजनेताओं और दलों को मतदाताओं का भी प्रलोभन देते हैं।

साथ में भावना विज अरोड़ा

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