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गम भुलाने की तरकीबों से बना पहला थिसारस

थिसारस शब्दों के मूल और विविध प्रयोगों का उपयोगी खजाना है मगर रोजेट के योगदान और भी विलक्षण
अदब की मेहनतः एडिनबर्ग में रोजेट के नाम का शिलापट, थिसारस का पहला पन्ना

यह कहानी है बहुआयामी विद्वान पीटर मार्क रोजेट की जिसने एक के बाद एक गम झेले और गमों से निजात पाने के लिए खुद को काम में झोंक दिया। ऐसे ही एक काम का नतीजा था दुनिया का पहला आधुनिक ‘रोजेट का थिसारस।’ कहा जाता रोजेट ऐसा नाम है जो किताब बन गया, लेकिन वह इससे भी अधिक था।

पीटर का जन्म लंदन में 18 जनवरी 1779 को हुआ था। लगभग नब्बे साल की उम्र में 12 सितंबर 1869 को इंतकाल हुआ। जीवन में उसने बहुत कुछ किया और जो किया बहुत खूब किया, जो अपने आप में मिसाल बन गया। उसके पिता ज्यां रोजेट फ्रांसीसी मूल के पादरी थे और मां कैथरीन रोमिली लंदन के धनी जौहरी की बेटी थीं। पापा के तपेदिक का इलाज कराने और आबोहवा बदलने के लिए मम्मी कैथरीन, पापा को स्विट्जरलैंड ले गईं। पीटर को अपने भाई सैमुएल रोमिली के पास छोड़ गईं। तभी से मामा और भानजे के बीच जो गहन आत्मीयता का रिश्ता जुड़ा, वह स्थाई हो गया।

पापा मरे तब पीटर चार साल का था। अबोध बालक के दिल में दर्द घर कर गया। आशियाने बदलते रहे। मम्मी कैथरीन ने एडिनबरा में घर जमाया और वहीं बेटे पीटर की पढ़ाई का बंदोबस्त किया। इस जद्दोजहद में वे पैरानोइया (भ्रमोन्माद) से ग्रस्त हो गईं। बच्चों को बिलखता छोड़ गईं। बहन के साथ एक बार फिर पीटर लंदनवासी सफल वकील मामा सर सैमुएल रोमिली के संरक्षण में आ गया। बहन को मनोघात होते रहते थे। वे भी साथ छोड़ गईं।

चौदह साल की अल्पायु में प्रतिभाशाली पीटर ने चिकित्साशास्‍त्र की शिक्षा शुरू की और पांच साल बाद डॉक्टरी पास की। 1795-96 के शिक्षा सत्रों में उसे प्रोफेसर जोसेफ ब्लैक के ज्ञानवर्धक और रोचक केमिस्ट्री लेक्चर सुनने का सौभाग्य मिला, जो हमेशा उसके काम आए। रासायनिक तत्व मैगनीशियम, कार्बन डायऑक्साइड, अंतर्निहित (लेटेंट) तथा विशिष्ट (स्पेसिफिक) ताप के क्षेत्र में अपने काम के लिए विख्यात प्रोफेसर जोसेफ ब्लैक ने समकालीन वैज्ञानिकों के पांच (जल, लवण, पृथ्वी, अग्नि और धातु) तत्वों में छठा तत्व जोड़ा ‘हवा’। हवा पर उनके प्रयोगों से सिद्ध हुआ कि उसमें कार्बन डायऑक्साइड मौजूद होती है।

इस काल के पीटर का वर्णन छरहरे समाजप्रिय जेंटलमैन के रूप में किया गया है। उसकी वाकपटुता और जीवंतता से लंदनवासी मित्र चकित रह जाते थे। वह नाटक देखता, समीक्षाएं लिखता। मामा सैमुएल संसद के सदस्य थे। दासप्रथा के प्रबल विरोधी थे। कानून-व्यवस्था में सुधार आंदोलन ‘रीजेंसी इंग्लैंड’ के संरक्षकों में गिने जाते थे। लेकिन 1818 में पत्नी लेडी रोमिली के देहांत से उन्हें जो धक्का लगा उससे उबर नहीं पाए। दो-तीन दिन तक डिलीरियम की अति-उत्तेजित अवस्था से मामा को उबारने की 39-वर्षीय पीटर की तमाम कोशिशें बेकार गईं। एक रात अचानक सोते-सोते मामा उठ बैठे और उस्तरे से अपना गला रेतने लगे। पीटर रोक नहीं पाया, छाती से लगे मामा को मरते देखता रहा। 

1824 के नवंबर में 44 साल के पीटर ने मेरी टेलर हाब्सन से विवाह किया। सात साल पूरे करते-करते वह कैंसर से ग्रस्त हो कर जाती रही। अब उसके पास एक बेटी और एक बेटा थे। एक अकथित अव्यक्त गम उसके जीवन का स्थायी भाव बन गया।

गम से निपटने के लिए बचपन से ही पीटर ने दो हथियार बना लिए थे, काम और जीवंतता। चार साल की उम्र से ही वह मन बहलाने के लिए सूचियां बनाता रहता था। हर चीज की। यह उसका उन्माद बन गया। सूचियां बनाने, कोटिकरण (श्रेणिबद्ध) करने का उसे धुन सवार हो गया था। पढ़ाई पूरी कर पीटर कुछ धनी लोगों का निजी चिकित्सक बन गया। साथ-साथ उसने उस समय का लोकप्रिय धंधा बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। इसका एक अंग होता था विकास के लिए छात्रों को यूरोप घुमाना।

उल्लेखनीय है कि उन दिनों वैज्ञानिक शोध वैयक्तिक शौक हुआ करता था। पीटर था तो चिकित्सक पर उसने अनेक वैज्ञानिक आविष्कार किए और नए विचारों का प्रतिपादन किया।

नौ दिसंबर 1824 में ‘अक्षिपटल पर दृश्य का कुछ पल के लिए टिकाव’ (परसिस्टेंस ऑफ विजन) विषय पर शोधपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के आधार पर सिनेमा के परदे पर तस्वीरों का चलना संभव हो पाया था। (फिल्म में एक सेकंड में एक के बाद एक बारह स्थिर इमेज दिखाई जाती हैं, जो परसिस्टेंस ऑफ विजन के कारण हमें चलती-फिरती नजर आती है।) (नोट : रोजेट ने इस प्रभाव के जो कारण बताए, वे गलत थे लेकिन प्रदर्शित परिणाम सही था।)

*गणित के क्षेत्र में उसने पहला स्लाइडिंग रूल बनाया। 1827 में उसे वैज्ञानिकों के लिए बनी रॉयल सोसाइटी का फेलो मनोनीत किया गया।

*1834 में वैज्ञानिक शिक्षा और खोज के प्रसार के लिए स्थापित रॉयल इंस्टीट्यूशन में उसे जैव कायिकी (फिजियोलॉजी) विषय का प्रथम फुलेरियन प्रोफेसर नियुक्त किया गया।

*चिकित्साशास्‍त्र यानी आयुर्विज्ञान के प्रशिक्षण में सुधार के लिए वह हमेशा लगा रहता था। वह ‘चिकित्सीय एवं शल्य चिकित्सीय’ शिक्षा के लिए बनी (मेडिकल ऐंड क्यूरोजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन) के संस्थापकों में से एक था।

*ऐनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के लिए उसने अनेक जानकारीपूर्ण आधिकारिक लेख भी लिखे। यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन की स्थापना में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

*शतरंज के शौकीन पीटर ने शतरंज की जेबी बिसात की रचना भी की।

रोजेट को बार-बार हर तरह के विषयों पर भाषण देने जाना होता था। इसके लिए वह नोटबुक में संबंधित विषय के शब्द दर्ज करता रहता था। इस तरह एक पूरा खजाना जमा हो गया था। 1840 में रोजेट रिटायर हुआ। उसने आठ साल बाद शब्दों के पुराने संकलन उठाए। लगातार उनका परिष्कार, मार्जन और परिवर्धन करता रहा। छपने पर उसका रूपरंग कैसा होगा, पाठक को वह कैसा दिखेगा, उसी शैली में उसने अपने हाथ से पूरी किताब ही लिख डाली। उसे नाम दिया ‘थिसारस’।

इसका शाब्दिक अर्थ है ‘खजाना’, ‘ट्रैजरी’, हिंदी में ‘तिजोरी’। व्युत्पत्ति विशेषज्ञ इस शब्द का मूल प्राक्कालीन भारोपीय भाषा की धातु ‘धे’ (धरना, रखना, संकलन करना) निर्धारित करते हैं। ग्रीक भाषा में इसे थिसोऊरोस कहा जाता है। मैंने इसका हिंदीकरण कर ‘थिसारस’ बना दिया। 1852 में यह छपा तो एक समालोचक ने लिखा यह कभी ‘उपयोगी’ सिद्ध नहीं होगा। लेकिन तब से एक के बाद एक इसके सैकड़ों संस्करण करोड़ों की संख्या में बिक चुके हैं, बिकते जा रहे हैं और बिकते ही जाएंगे। यह एक किताब है, जो अपने आप में स्वतंत्र व्यवसाय बन गई है। रोजेट के एक जीवनीकार ने लिखा है उसे परफेक्ट (त्रुटिहीन) नहीं कहा जा सकता। जो धुन लग जाती वह उसी में लगा रहता। यह उसके लिए अनिवार्य, अपरिहार्य, वैवश्यक हो जाता था। सूचियां बनाना उसकी प्रवृत्ति थी। पागलों की तरह अनावश्यक वस्तुओं की गिनती करना। काम न करना उसकी क्षमता से परे था।

वही जीवनीकार कहता है कि आंदोलित और क्षुब्ध मनस्क व्यक्ति इसके द्वारा संसार को सुव्यवस्थित करने की कोशिश करते रहते हैं। उसकी जीवनी ‘द मैन हू मेड लिस्ट्स’ के लेखक जोशुआ कैंडल ने लिखा है, “उसके थिसारस से लाखों-करोड़ों उपभोक्ताओं ने दो सदियों में जितना लाभ उठाया, उससे कई गुना लाभ रोजेट को मिला क्योंकि शब्दों की सूचियां उसके लिए मुक्ति का साधन बन गई थीं।” इन्हीं की बदौलत वह ऊर्जापूर्ण जीवन जी सका था। पीटर के जाने के बाद उसके बेटे सैमुएल रोमिली रोजेट ने इसका परिष्कार और परिवर्धन किया। मुझे 1953 में जो थिसारस मिला वह इस परिवर्धित संस्करण का ही कोई पुनर्मुद्रण रहा होगा।

मुझे कल्पना तक नहीं थी कि कोई ऐसी भी किताब हो सकती है। आजकल रोजेट के सैकड़ों पन्नों वाले विशाल थिसारस बाजार में मिलते हैं। उनके मुकाबले तब यह ढाई-तीन सौ पन्नों की छोटी सी किताब थी, जो मेरे जैसे हर प्रयोक्ता के लिए पूरी तरह चमत्कारपूर्ण, अद्भुत, जादुई, विलक्षण, उपयोगी, व्यावहारिक और सार्थक थी। हर समय हर जगह यह मेरी संगिनी बन गई। जब कभी पंद्रह मिनट मिलते तो मैं कोई भी पेज खोल लेता। शब्दों के रूप में कौरव-पांडवों की सन्नद्ध सेनाएं खड़ी दिखाई देतीं। इसका कारण था उसका असाधारण ले-आउट। इसमें संबद्ध और विपरीत शब्द आमने-सामने छपे थे। उनकी कोई विपरीत कोटि नहीं थी, वे दोनों से हट कर बीच में छपे थे। ठीक वैसे ही जैसे रोजेट ने अपनी पांडुलिपि (हस्तलिपि) में लिखा था। मैं उस पर फिदा हो गया, मंत्रमुग्ध तो था ही, लट्टू भी था और वशीभूत भी। एक शब्द में कहूं तो मैं उस पर आसक्त था। किसी एक भावकोटि के शब्द पढ़ कर उसके उलटे शब्द पढ़ता। इस पेज से उस पेज तक छलांग लगा बैठता। मेरा संपादन का काम आसान हो गया। इससे भी बड़ी बात यह हुई कि बचपन से बड़े-बड़े सपने देखने का आदी और मातृभाषा हिंदी को समर्पित मैं एक अनोखा सपना देखने लगा। हिंदी में भी कोई ऐसी किताब होनी चाहिए। वह मैं बनाऊं यह मेरे सपने का अंग नहीं था। 23 साल का छोकरा ऐसे उद्धत प्रयास के लिए कतअन तैयार नहीं था।

मैंने सोच लिया कि कोई न कोई हिंदी वाला यह बना कर रहेगा ही। पंडित नेहरू और मौलाना आजाद की पहल पर तरह-तरह की शब्दावलियों के विकास का आंदोलन चल रहा था। कई आयोग बनाए गए थे। डॉक्टर रघुवीर जैसों को कोश बनाने के लिए अनुदान दिए गए थे। क्‍या वहीं से कोई हिंदी थिसारस निकलेगा? बाद में 1996 में मेरा ‘समांतर कोश’ कैसे प्रकाशित हुआ, यह एक अलग कहानी है।

(‌लेखक हिंदी के पहले थिसारस समांतर कोशके रचयिता हैं) 

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