संगीतकार नारायण दत्त का नाम आज के दौर के कम ही लोग जानते होंगे। लेकिन आज भी कई संगीत प्रेमी मुकेश के गाए ‘मेरा प्रेम हिमालय से ऊंचा, सागर से गहरा प्यार मेरा’ गुनगुनाते हैं। बिना यह जाने कि इस मधुर गीत के कंपोजर वही नारायण दत्त थे, जिन्हें अब हम भूल चुके हैं। उन्होंने ही पुजारिन फिल्म के लिए इस खूबसूरत गीत को सुरों में बांधा था। नारायण दत्त का जन्म राजस्थान की जोधपुर रियासत के गांव बिलावास में हुआ था। प्रसिद्ध बीकानेर नरेश गंगा सिंह के दरबार में राज गायक उनके पिता दुर्गा प्रसाद ने ही उन्हें संगीत की प्रारंभिक शिक्षा दी थी। पिता से मिली शिक्षा के कारण ही उन्हें हर प्रकार के शास्त्रीय संगीत का भरपूर ज्ञान था। फिल्म संगीत में वह गायक बनने की इच्छा लेकर आए थे और पांचवें दशक की रंसीली (1947) में हनुमान प्रसाद के निर्देशन में उन्होंने दो युगल गीत भी गाए थे। पहला गीत ‘आगाज चला अंजाम चला’ (मुकेश के साथ) और दूसरा गीत ‘नैनों की प्याली में’ (गीता के साथ) था। फिल्म नीलकमल का गीत ‘जइयो ना बिदेस मोरा जिया भर आएगा’ में भी संभवत: उन्हीं की आवाज थी। हालांकि रेकॉर्ड पर नाम स्नेहल भाटकर का दिया गया है। नारायण दत्त ने मोहन पिक्चर्स की कई स्टंट फिल्मों के अतिरिक्त गौना, सेहरा आदि फिल्मों में भी गीत गाए। लेकिन मुकेश, रफी जैसे गायकों की प्रतिस्पर्धा में खुद को पीछे देखकर वह संगीत-निर्देशन के क्षेत्र में आ गए।
नारायण की पहली संगीतबद्ध फिल्म मोरध्वज (1952) थी, जिसके ‘गिन गिन तारे रतियां बिताऊं, (गीता), ‘कित जाओगे घनश्याम मुरारी’ (रफी) और सुंदर गेय तत्व से भरा ‘मेरा मन है मगन, मुस्काए गगन’ (आशा, खान मस्ताना) जैसे गीतों को थोड़ी सफलता मिली थी। शाहू मोडक अभिनीत भक्ति प्रधान फिल्म आस्तिक (1956) की रफी, साथियों के स्वर में ‘जिसका साथी है भगवान’, ‘भगवान तेरा इंसान देख ले है कितना नादान’ और ‘है तुझ से प्यार’ जैसी भक्ति-रचनाएं भी उस वक्त लोकप्रिय हुई थीं। श्याम की जोगन (1957) के ‘कहां गए भगवान बता देकर के सूनी काया’ (रफी), ‘मैं तो प्रेम दीवानी हो गई रे’ (गीता), ‘जाग रहा भगवान तो सुन ले’ (रफी) जैसे गीतों की भी चर्चा रही थी। नया कदम (1958) में शिवराम के साथ संगीत देते हुए फिल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत (रफी के स्वर में) ‘कोई आता है कोई जाता है’ को उन्होंने ही संगीतबद्ध किया था।
नारायण दत्त का संगीत मूलत: भारतीय परंपरा के भक्ति-संगीत धारा की परिपाटियों को लेकर ही चलता था। राजस्थान की लोकभक्ति संस्कृति, धार्मिक दर्शन और ग्रामीण छटाओं की रसरंजक विविधता उनके अधिकांश गीतों में रहती थी। भारतीय संगीत के भक्तिरस से थोड़ा अलग हटकर रचा पुजारिन (1969) का ‘मेरा प्रेम हिमालय से ऊंचा’ ही उनका श्रेष्ठतम गीत माना जाएगा। वैसे इस गीत में भी प्रेम का पूर्ण समर्पित भाव भक्ति की धारा की तरह ही विद्यमान है। इसी फिल्म का मुकेश के ही स्वर में दर्द भरा गीत ‘कैसे जिएं रे साथी तेरे बिना कैसे जिएं रे,’ इसमें प्रयुक्त लोकरस की मेलोडी की छाया इसे यादगार बना देती है। रफी के स्वर में राग बागेश्वरी पर आधारित ‘पिया की नगरिया तज के गोरी’ भी एक अत्यंत सुंदर रचना थी, जो दुर्भाग्य से लोकप्रिय नहीं हो सकी। हेमलता के स्वर में ‘संतोषी मां दे संतोष का दान’ भी चला पर, मुकेश के उपरोक्त गीतों जैसा स्मरणीय उसमें कुछ नहीं था।
भारतीय संगीत के आधार वाले नारायण दत्त के लिए आठवें दशक की संगीत-शैली के बीच टिकना बहुत मुश्किल था, हालांकि नारद-लीला (1972) में उन्होंने लीला जोशी से ‘गुलमोहर के लाल-लाल फुलवा खिल गए’ और ‘पिया लाख कहा हमसे’ जैसे लोकरंग-प्रधान मेलोडियस गीत, जय हनुमान (1973) में महेन्द्र और आशा से और सीताराम राधेश्याम (1973) में रफी और सुमन से सुंदर भक्ति और प्रणय गीत गवाए थे। जय हनुमान का राग बहार पर आधारित ‘रे रे बहार आई’ (महेन्द्र, आशा) एक उत्कृष्ट कंपोजीशन थी और ‘आया आया रे आया रे आया बसंत’ (आशा) के लिए उन्होंने राग वृंदावनी सारंग का इस्तेमाल किया था। सरस्वती लक्ष्मी पार्वती (1975 हिंदी में डब), सिंदूर का दान (1984), हमसे मिले तुम उनकी अन्य फिल्में थीं। सिंदूर का दान फिल्म के युगल गीत ‘तुम जो साथ रहो तो मेरी रोज पूनम की रात हो’ में मधुरता से भरी धुन थी जिसे लोकप्रियता भी मिली। राजस्थानी लोकसंगीत पर सजा हमसे मिले तुम फिल्म का ‘सावन आयो रे’ गीत आशा और शब्बीर कुमार के स्वरों में सुनना बहुत कर्णप्रिय लगता है। हालांकि इसे भी अधिक लोकप्रियता नहीं मिली थी। हिंदी के अलावा नारायण ने बाबा रामदेव पीर (1963), म्हारी प्यारी चनणा (1983) और नानीबाई को मायरो (1988) जैसी राजस्थानी फिल्मों में भी संगीत दिया था। लोकधुनों पर उन्होंने कई गैर फिल्मी राजस्थानी गीत भी बनाए थे। नारायण ने वेदों पर शोध कर आर्य समाजी गीतों की संगीत-रचना भी की थी तथा जैन गीतों को भी कंपोज किया था। रजनीश फाउंडेशन के लिए भी उन्होंने कुछ गीतों की धुनें रची थीं। नई प्रतिभाओं को उन्होंने ‘सुर-ताल’ नामक संस्था के माध्यम से प्रशिक्षण भी दिया। पर नारायण की उतनी कद्र न हो सकी जिसके वे हकदार थे। 16 जून, 1988 को उनकी मृत्यु हुई और एक अन्य सुर-सर्जक निष्ठुर फिल्म जगत को छोड़ गया।
(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)