यकीनन पिछले कुछ हफ्तों से म्यांमार के राखिने राज्य के उत्तरी मांगदा जिले में तथाकथित रोहिंग्या या बंगाली लोगों पर हिंसा का ऐसा भयावह दौर टूट पड़ा है जैसा कई दशकों में नहीं देखा गया। फिर, फर्क यह भी है कि पहले हिंसा के दौर की वजह सांप्रदायिक वारदात हुआ करती थी लेकिन इस बार इसकी शुरुआत अराकान रोहिंग्या सैलवेशन आर्मी (एआरएसए) के करीब 30 सीमा चौकियों और एक सैनिक अड्डे पर हमले के बाद हुई। एआरएसए को अब म्यांमार सरकार ने आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया है। इसके पहले एआरएसए अपनी संदिग्ध शाखा हराकाह अल यकीन (एचएवाइ) के बैनर तले अक्टूबर 2016 में तीन सीमा चौकियों पर हमला और नवंबर में एक सैन्य अफसर की हत्या कर चुका है।
इस बार त्रासदी हृदय विदारक है और उसकी विस्तृत खबरें भी आ चुकी हैं। सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं जिनमें ज्यादातर रोहिंग्या हैं और कुछ सीमा पुलिस के जवानों, अफसरों के अलावा राखिने बौद्ध और हिंदुओं सहित अल्पसंख्यक भी हैं। नाफ नदी के आसपास के करीब तीन लाख रोहिंग्या बांग्लादेश में शरण तलाश रहे हैं और राखिने में हजारों बौद्ध और अल्पसंख्यक बेघर हो चुके हैं। गांव के गांव लूटे गए हैं। नरसंहार और नस्ल विनाश की अफवाहें फैली हुई हैं। उस इलाके में मानवीय मदद मामूली है और मीडिया की तो पहुंच ही मुश्किल है। उसे जाने की इजाजत कतई नहीं है।
ये घटनाएं लंबे समय से सुलग रहे इस मसले के विकराल बन जाने की ही संकेत हैं। यूं तो यह मसला 1948 में मुजाहिदीन विद्रोह के वक्त से ही रह-रहकर हिंसक रूप लेता रहा है लेकिन जून-अक्टूबर 2012 में यह आपराधिक घटनाओं के सांप्रदायिक रंग लेने से भड़का, जिसे रोका जा सकता था लेकिन ताकत के असंतुलन तथा सुरक्षा बलों के राखिने लोगों की ओर झुके होने से नहीं हो सका। उस दौरान कम से कम 160 लोग मारे गए, लाखों बेघर हो गए और तब से करीब 1,40,000 लोग टीडीपी शरणार्थी शिविरों में हैं जिनमें ज्यादातर रोहिंग्या हैं। इसके अलावा जीविका के साधनों के तबाह होने और 2015 की नाव डूबने की त्रासदी के बाद दूसरे देशों में आने-जाने के अवैध रास्तों के बंद हो जाने से हताशा, नाराजगी कई गुना बढ़ गई जिससे कट्टरता और उग्रवाद को बढ़ावा मिला।
अक्टूबर 2016 और अगस्त 2017 से राखिने में हिंसा का चरित्र बदल गया है। लगता है कि हाल की घटनाएं विदेश में स्थित रोहिंग्या समूहों के संगठित प्रयास और भड़कावे से भड़की हैं, ताकि इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं तेज हो जाएं। अगर मंशा यह है तो उन समूहों को इसमें जबरदस्त सफलता मिली है। यह भी लगता है कि हालात बाहरी तत्वों के शह से शायद आतंकवाद की ओर मुड़ रहे हैं। अब यह पूरी तरह स्थापित हो चुका है कि एआरएसए और एचएवाइ को सऊदी अरब, पाकिस्तान और दूसरे देशों में स्थित तालिबान और कट्टरपंथी तत्वों से प्रशिक्षण और फंड मुहैया हो रहा है। इनके दूसरे अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों से भी संपर्क हो सकते हैं। इस वजह से पुराने रोहिंग्या सालिडैरटी ऑर्गेनाइजेशन (आरएसओ) का दबदबा संभवतः घट गया हो। एआरएसए का अगुआ सऊदी अरब स्थित पाकिस्तानी अताउल्लाह है। म्यांमार में सुरक्षा बलों की सख्त कार्रवाई इसी की प्रतिक्रिया हो सकती है।
एक मायने में रोहिंग्या लोगों की त्रासदी एक सीधे-से नैतिक सवाल से जुड़ी है। बेहद गरीब, बिना किसी देश के, भेदभाव से ग्रस्त लोगों पर नस्ली और सांप्रदायिक आधार पर बहुसंख्यक धार्मिक राष्ट्रवाद की आड़ में कठोर सैन्य कार्रवाई की जा रही है। कथित रोहिंग्या उग्रवाद बेशक बेहद गरीबी में गुजर-बसर करने वाले लोगों के साथ सांस्थानिक भेदभाव, मनावाधिकारों का अभाव और देशहीनता के बोध का नतीजा हो सकता है। ये लोग खासकर 2012-13 से कानूनी तौर पर नो मैंस लैंड में पूरी तरह से हाशिए पर बुनियादी सुविधाओं के बिना हताशा-निराशा की स्थिति में फंसे हुए हैं।
फिर भी असली वजह बेहद पेचीदी है। वे इतिहास (पूर्व औपनिवेशक, औपनिवेशिक और बंटवारे के दौर के), राजनीति (ब्रिटिश, बर्मी और इस्लामी) और म्यांमार में गैर-बौद्ध अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले बरताव के बीच फंसे हुए हैं। भारत के शायद कुछ ही लोग उस दंश को समझ पाएं जो अंग्रेजी राज में बड़े पैमाने पर भारतीयों के वहां बसाए जाने से म्यांमार के लोगों के मानस पर पड़ा। इसका एक पहलू तो धनी भारतीयों (खासकर तमिलनाडु से चेट्टियार सूदखोर) के हाथों जमीन गंवाना और अर्थव्यवस्था पर उनका दबदबा है। इसी वजह से जनरल ने विन ने बर्मी अर्थव्यवस्था का राष्ट्रीयकरण किया और इसी भयाक्रांत भावना ने वहां सैनिक शासन की स्थापना की जिसने उन भारतीयों को निकाला, जो जा सकते थे।
यही भयाक्रांत भावना म्यांमार पहचान वाली 135 नस्लों की शिद्दत से बनाई गई फेहरिस्त के पीछे भी काम कर रही थी जिसमें रोहिंग्या शामिल नहीं किए गए। फिर, 1982 के नागरिकता अधिनियम में भी यही भावना दिखी, जिसके तहत भारतीय मूल के तमाम लोगों समेत सभी बाहर से आकर बसे लोगों को बेसहारा कर दिया गया। इनमें बड़ी संख्या गरीब तमिलों की थी। उनके साथ पहले के बंगाल से आए गरीब बंगालियों, बिहार और उत्तर प्रदेश से पहुंचे हिंदीभाषियों को सामूहिक रूप से कुछ हिकारत के साथ कालार (चमड़ी के रंग की वजह से नहीं, बल्कि म्यांमार से बाहरी बताने के लिए) कहा जाने लगा।
विभिन्न पहचान के रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट से बाहरी होने का वजूद औपचारिक बन गया। यह संस्थागत भेदभाव के प्रामाणिक दस्तावेज की तरह है। भारतीय मूल के ज्यादातर हिंदुओं ने इन वर्षों में लो प्रोफाइल रहकर और बौद्ध बहुसंख्यकों के साथ मिल-जुलकर बौद्ध संघों का संरक्षण पा लिया। इससे उनकी हालत कुछ सुधरी लेकिन अभी मुख्यधारा में वे पूरी तरह से शामिल नहीं हो पाए हैं।
लेकिन मुसलमानों के मामले में ऐसा नहीं हो पाया। बौद्ध बामार बहुसंख्यक के धार्मिक राष्ट्रवाद और मुसलमानों में इस्लामी पहचान के प्रति आग्रह बढ़ने से लगातार तनाव बना हुआ है और उनके बीच खाई चौड़ी होती गई है। इसके साथ उन आम धारणाओं ने भी फर्क पैदा किया है कि मुसलमान बच्चे ज्यादा पैदा करते हैं, उनकी आबादी बढ़ रही है। इससे म्यांमार बौद्धों में एक डर बैठने लगा है कि उनका धर्म खतरे में है। बेशक ये बहुत हद तक अफवाहें हैं लेकिन इससे मुसलमान विरोधी भावनाएं बढ़ी हैं। इन हालात से वह दौर भी बेमानी होता जा रहा है जब मस्जिद और मठ अगल-बगल सहअस्तित्व के साथ हुआ करते थे और बर्मी भाषी मुसलमान काफी उदार हुआ करते थे।
हालांकि रोहिंग्या का मामला कुछ अलग है। यह इन सवालों के इर्दगिर्द सिमटा हुआ है कि वे कौन हैं और क्या वे राखिने राज्य के स्थानीय हैं? इसका जवाब दावों-प्रति दावों में उलझा हुआ है, जिसे साफ करने के लिए स्वतंत्र और गहरे शोध की दरकार है। समझदार रोहिंग्या, बांग्लादेशियों और ज्यादातर बाकी दुनिया के लिए यह स्वयंसिद्ध है कि वे स्थानीय समूह हैं और इस नाते उन्हें स्वतः नागरिकता दी जानी चाहिए।
लेकिन राखिने और म्यांमार लोग इसका भारी विरोध करते हैं। उनका मानना है कि वे स्थानीय नहीं हैं और अंग्रेजों के राज में बंगाल से आकर बस गए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वे दूसरी तरफ थे। फिर, वे अलग गांवों में रहते हैं और बर्मी नहीं बोलते, इससे भी यह धारणा मजबूत होती है।
सच्चाई शायद इन दोनों दावों के बीच कहीं है। अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि रोहैंग, जिससे रोहिंग्या शब्द बना है, बांग्ला की एक बोली है, जो नाफ नदी के दोनों किनारों पर बोली जाती है और उसका दायरा राखिने में मायू नदी के तट तक जाता है। बंटवारे और म्यांमार की आजादी के वक्त स्थानीय समूह पहचान की राजनीति के प्रभाव में थी और मुजाहिदीन पूर्वी पाकिस्तान में मिलना चाहते थे, जिसे नकार दिया गया। अब वही बात सऊदी अरब और पाकिस्तान में रह रहे रोहिंग्या आप्रवासी कर रहे हैं।
आज जो अपने को रोहिंग्या कहते हैं, वे सभी रोहैंग भाषी हैं या फिर अवैध आप्रवासियों की जमात भी उनमें जुड़ गई है, यह शोध का विषय है। बांग्लादेश इस बात से इनकार करता है कि उसके लोग वहां गए हैं। म्यांमार इसे मानने को तैयार नहीं है। इस बीच उत्तरी राखिने के ज्यादातर गरीब रोहिंग्या किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं। उन्हें अगर नागरिकता मिल जाती है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि वे रोहिंग्या हैं या बंगाल। वे एक बड़े खेल में प्यादे भर हैं।
अब यह मसला मानवाधिकार का मामला बन गया और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सामने है। भारत पहले तो अपनी मौजूदा राजनीति के चलते म्यांमार की तरफ ही झुका हुआ था लेकिन बाद में कुछ लचीला रवैया अपना रहा है। बांग्लादेश एक तरफ अच्छा पड़ोसी कहलाने तथा इस्लामी कट्टरता से दूर रहने और दूसरी ओर जनभावना का ख्याल करके बेसहारा रोंहिंग्या लोगों के प्रति हमदर्दी दिखाने के बीच फंसा हुआ है। चीन ने संतुलित रवैया अपनाया है। वह सहानुभूति भी दिखा रहा है और सुरक्षा परिषद में म्यांमार का बचाव भी कर रहा है।
म्यांमार सरकार और आंग सान सू की निजी तौर पर कठोर रवैया अपनाए हुई हैं और बहुसंख्यक म्यांमारी सरकार के साथ हैं। ऐसे हालात में किसी समाधान की संभावना बेहद कम है। सू की द्वारा नियुक्त म्यांर और अंतरराष्ट्रीय कोफी अन्नान आयोग की सिफारिशों में बेहतर विकल्प यह है कि 1982 के नागरिकता कानून पर पुनर्विचार किया जाए। लेकिन ऐसे तनाव के माहौल में उसकी गुंजाइश कम ही दिखती है।
(लेखक म्यांमार में भारत के राजदूत रह चुके हैं)