राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के फेलो, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ बॉयोटेक्नोलॉजी में प्रोफेसर डॉक्टर द्वैपायन भारद्वाज सरकार के जिनोमिक प्रोजेक्ट में वरिष्ठ प्रमुख वैज्ञानिक भी रह चुके हैं। वे कई बीमारियों के आनुवंशिक कारणों की नई जानकारियों से लगातार हमारी समझदारी बढ़ा रहे हैं। जिया हक से उनकी बातचीत के प्रमुख अंशः
क्या जीन्स संरचना के बारे में नई समझ से कैंसर जैसे रोगों से लड़ाई कुछ आसान होने में मदद मिलेगी?
वैज्ञानिक होने के नाते मैं वही बताऊंगा जो मेरी समझ है। सबसे पहले यही बात कि जींस को लेकर बड़ी गलतफहमी है। लोग इसे अच्छी तरह से नहीं समझते हैं। अगर मैं आपके बाल या खून या शरीर के किसी हिस्से से सैंपल लूं तो मुझे हर जगह से एक समान डीएनए मिलेगा। अब ये जीन संशोधित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए एक जीन को मिथाइलेट किया जा सकता है (मिथाइलेट वह प्रक्रिया है जिससे जीन के संदेश को रोका या आगे बढ़ाया जा सकता है)। यह संशोधन तो किया जा सकता है लेकन जींस की संरचना नहीं बदली जा सकती। वह स्थिर है। वह बुनियादी विज्ञान है। अब, म्युटेशन या परिवर्तन से जीन में बदलाव होता है। कभी-कभी कोई प्रोटीन हट जा सकता है या गलती से कोई जुड़ जाता है। इससे जिस प्रोटीन की जरूरत होती है वह नहीं बनता और जिसकी जरूरत नहीं होती वह बन जाता है। यही म्युटेशन है। यह डीएनए संरचना है।
क्या आप इसे समझा सकते हैं?
निस्संदेह बड़ी संख्या में नए अन्वेषण और जेनेटिक जानकारी में प्रगति हुई है। लेकिन दिलचस्प यह है कि उच्च तकनीक वाले टेस्टों को भूल जाइए, कुछ सामान्य तरीके हैं जिनकी मदद से कई आनुवंशिक गड़बड़ियों को रोका जा सकता है। उदाहरण के लिए, सही समय पर शादी करना। देर से शादी करने का मतलब है गर्भाशय में देरी से अंडाणु सिंचित होना, जो वहां 13-14 साल से रहता है। यह रबर बैंड की तरह है जो अपनी लचीलापन खोता जाता है। यानी मां की जितनी ज्यादा उम्र होगी, आनुवंशिक गड़बड़ियों की आशंका उतनी ज्यादा रहेगी। इसलिए सही समय पर शादी एक अच्छी चीज है। देर से मां बनने वालों में गलती से गुणसूत्र छूट जाने या नए गुणसूत्र जुड़ जाने की आशंका बहुत ज्यादा रहती है। यह ‘घातक भ्रूण’ है यानी यह विकास कर रहे बच्चे के लिए अच्छा नहीं है।
अंततोगत्वा, इसका अर्थ हुआ कि कैंसर जीन का रोग है?
हां, लेकिन जीन और साथ में वातावरण भी। मैंने मिन्नेसोटा मेयो क्लीनिक के साथ एक शोध किया था। मैंने वहां प्रवासी भारतीयों के सैंपल लिए, यहां से 30 स्थानीय भारतीयों के सैंपल लिए और उन्होंने 30 गोरे अमेरिकियों के सैंपल भेजे। जिन अमेरिकियों के सैंपल मिले वे वाइकिंग जाति के थे क्योंकि मिन्नेसोटा क्षेत्र में रहने वाले अधिकांश लोग स्कैंडिवियाइ मूल के हैं। इसके बाद हमने उनके आनुवंशिक प्रोफाइल की जांच की। प्रवासी भारतीय और स्थानीय भारतीयों की आनुवंशिकता एक होनी चाहिए थी लेकिन हमने पाया कि प्रवासी भारतीयों और अमेरिकी लोगों की जीन प्रोफाइल समान है। ऐसा वहां के वातावरण के कारण हुआ।
बड़ी संख्या में लोग जानना चाहते हैं कि क्या कैंसर को रोका जा सकता है?
मुझे एक और कहानी बताने दीजिए जिससे आप समझ जाएंगे। हाल ही में डेनिस ग्रुप का छोटा सा शोध सामने आया है। उन्होंने एक ही उम्र के 30 लोगों को लिया। उन्होंने जांच से पहले उनके पैर की मांसपेशियों से सैंपल लिया। इन लोगों को तीन महीने तक एक पैर के लिए व्यायाम बताया गया। इसके बाद पैर के आनुवंशिक बदलाव के लिए मांसपेशियों की फिर से जांच की गई। इन तीन महीनों में, जिस पैर से व्यायाम कराया गया था वह सभी मायनों में दूसरे से बेहतर पाया गया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि संतुलित भोजन और व्यायाम से सहायता मिलती है।
आपने जीन और जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों पर काम किया है। इसका कुछ निष्कर्ष बताएं।
हमारे ग्रुप ने इस बारे में कई चीजें प्रकाशित की हैं। इनमें भारतीय आबादी में आनुवंशिक विविधताओं के बारे में बताया गया है। इसमें विशेषकर उत्तर भारतीय आबादी की चर्चा की गई है और बताया गया है कि ये विविधताएं क्या हैं? हमारे यहां मुख्यतः चार प्रकार की जनसंख्या है-यूरोपीय, द्रविड़, तिब्बती-बर्मन और ऑस्ट्रालोएशिएटिक। हमने इसके लिए ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) से सैंपल लिए। हमारे शोध में मुख्य तौर पर हिंदी भाषी उत्तर भारतीय या इंडो-यूरोपीय जनसंख्या के लोग शामिल थे। इसमें 14,000 लोगों के सैंपल लिए गए। हमने टीएमइएम163 नाम के जीन की खोज की जो टाइप टू डायबिटीज से जुड़ा था। पहले इसकी जानकारी नहीं थी। इसे हमने 2014 में प्रकाशित किया। इसके बाद यह कहा जा सकता है कि यह डायबिटीज का कारण है। इसका मतलब यह हुआ कि जीव विज्ञान में इसे डायबिटीज के प्रेरक जीन के रूप में साबित किया जा सकता है। यह काम जारी है। इसके बाद हम इसे डायबिटीज जीन कह सकते हैं।